इस शील-गुण अधिकार में शील के अठारह हजार भेदों को और गुणों के चौरासी लाख भेदों को गिनाया है तथा उनको संख्या, प्रस्तार, नष्ट, उद्दिष्ट, परिवर्तन इन पाँच गणित भेदों से बताया है। उनमें से सर्वप्रथम शील के मूलभेदों को कहते हैं-
जोए करणे सण्णा इंदिय भोम्मादि समणधम्मे य। अण्णोण्णेहिं अभत्था अट्ठारहसीलसहस्साइं।।१०१९।।
योग, करण, संज्ञा, इंद्रिय, पृथिवी आदि दश और दश श्रमण धर्म, इनको परस्पर गुणित करने से शील के १८००० भेद हो जाते हैं। मन-वचन-काय का शुभ क्रियाओं से संयोग होना योग है यह तीन प्रकार का है। क्रिया या परिणामों को करण कहते हैं, मन-वचन-काय का अशुभ क्रिया से संयोग होना करण है, यह भी मन, वचन, काय की अपेक्षा तीन प्रकार का है। संज्ञाएं चार हैं-आहार, भय, मैथुन और परिग्रह।
इंद्रियाँ पाँच हैं-स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र।
पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, प्रत्येक वनस्पति, साधारण वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ये पृथिवी आदि दश प्रकार के जीव भेद हैं। उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य से दश श्रमण धर्म हैं।
इस प्रकार-३²३·९, ९²४·३६, ३६²५·१८०,१८०²१०·१८००, १८००²१०·१८००० शील के भेद हो जाते हैं। शीलों के आलाप की उत्पत्ति में निमित्त अक्षसंचार के विशेष हेतु को संख्या कहते हैं। इनके स्थापन का नाम प्रस्तार है। अक्ष संचार का नाम परिवर्तन है। संख्या रख कर अक्ष निकालना नष्ट है और अक्ष रखकर संख्या निकालना उद्दिष्ट है। इस तरह संख्या, प्रस्तार, परिवर्तन, नष्ट और उद्दिष्ट, इन पाँच प्रकारों से शील और गुणों को जानना चाहिए१।’’ इन भेदों में प्रथम शील के भेद का उच्चारण इस प्रकार होता है-मनोगुप्ति से गुप्त, मन:करण से रहित, आहार संज्ञा रहित, स्पर्शन इन्द्रियविजयी, पृथिवीकायिक संयम से युक्त और क्षमागुण संयुक्त मुनि के अट्ठारह हजार शील के भेदों में यह पहला भेद कहा है। ऐसे ही सर्व भेद कोष्ठक से निकाल लेना चाहिए। ये सर्व भेद केवली भगवान के ही पूर्ण होते हैं।
गुणों के भेद
इगवीस चदुर सदिया दस दस दसगा य आणुपुव्वीय। हिंसादिक्कमकाया विराहणा लोयणा सोही।।१०२५।।
इक्कीस, चार, सौ, दस, दस, दस, ऐसे अनुक्रम से हिंसादि त्याग को परस्पर गुणा करने से ८४ लाख उत्तर गुण हो जाते हैं।
हिंसादि २१ – प्राणिवध, मृषावाद, अदत्त, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, भय, अरति, रति, जुगुप्सा, मनोमंगुल, वचनमंगुल, कायमंगुल, मिथ्यादर्शन, प्रमाद, पैशून्य, अज्ञान और अनिग्रह, ये इक्कीस हिंसादि दोष हैं। अतिक्रमादि ४ – अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार ये चार दोष हैं।
पृथिवी आदि १०० – पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, प्रत्येक वनस्पति, अनंतकाय वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय। इनको आपस में गुणने से १०० भेद हो जाते हैं।
अब्रह्म १० –स्त्रीसंसर्ग, प्रण्तरसभोजन, गंधमाल्यसंस्पर्श, शयनासन, भूषण, गीतवादित्र, अर्थसंप्रयोग, कुशीलसंसर्ग, राजसेवा और रात्रिसंचरण ये दश अब्रह्म हैं। आलोचना के दोष १० – आवंपित, अनुमानित, यद्दृष्ट, बादर, सूक्ष्म, छन्न, शब्दाकुलित, बहुजन, अव्यक्त और तत्सेवी ये दश दोष आलोचना के हैं।
प्रायश्चित्त के दोष १० – आलोचना, प्रतिक्रमण, उभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार और श्रद्धान ये दश दोष प्रायश्चित्त के हैं। इन सब दोषों से रहित उतने ही गुण हो जाते हैं। इनको परस्पर में गुणित करने से २१²४·८४, ८४²१००·८४००, ८४००²१०·८४०००, ८४०००²१०·८४००००, ८४००००²१०·८४००००० उत्तर गुण होते हैं।
इसका पहला भेद इस प्रकार है- प्राणातिपातविरत, अतिक्रमणदोष रहित, पृथिवीकाय आरंभ से शून्य, स्त्रीसंसर्गवियुत, आवंपितदोषरहित और आलोचना शुद्धियुत वीर मुनि के यह चौरासी लाख गुणों में प्रथम गुण का उच्चारण होता है। ये सर्व भेद सिद्धों में ही पूर्ण होते हैं। पूर्व कथित शील और गुणों को जानकर जो उनका पालन करते हैं वे इन शील गुणों को पूर्ण कर सर्वकल्याण को प्राप्त कर लेते हैं।