इस अधिकार में पर्याप्तियों का कथन करेंगे। यहाँ पर ‘पर्याप्ति’ यह उपलक्षण मात्र है। इससे पर्याप्ति देह काय संस्थान इन्द्रिय संस्थान योनि आयु प्रमाण योग वेद लेश्या प्रवीचार उपपाद उद्वर्तन स्थान कुल अल्पबहुत्व, स्थिति अनुभाग प्रकृतिबंध स्थिति बंध अनुभाग बंध प्रदेश बंध इसमें इन बीस सूत्र पदों का निरूपण किया गया है।
पर्याप्ति के छह अधिकार हैं- संज्ञा, लक्षण, स्वामित्व, संख्यापरिमाण, निर्वृति और स्थितिकाल ये छह अधिकार पर्याप्तियों के होते हैं।
१. पर्याप्ति – आहार, शरीर, इन्द्रिय, आनप्राण-श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन ये छह भेद पर्याप्ति के हैं। एकेन्द्रिय जीवों के प्रारंभ की चार पर्याप्तियाँ होती हैं। द्वीन्द्रिय से असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक पाँच एवं पंचेन्द्रिय संज्ञी जीवों को छहों पर्याप्तियाँ होती हैं। तिर्यंच और मनुष्यों में पर्याप्तियों की पूर्णता भिन्न मुहूर्त में (एक समय कम दो घड़ी में) होती है और देव, नारकियों के पर्याप्ति की पूर्णता प्रतिसमय होती है अर्थात् देव, नारकियों के सर्व अवयवों की रचना अंतर्मुहूर्त काल में ही हो जाती है। तिर्यंच और मनुष्यों के शरीर की रचना में बहुत काल लगता है किन्तु पर्याप्तियाँ अंतर्मुहूर्त में ही पूर्ण हो जाती हैं। चारों प्रकार के देवों के यहाँ उपपाद गृह में उपपाद शिला है। उसका आकार शुक्तिपुट के समान है। उसके ऊपर मणिखचित पलंग हैं। उसमें दिव्य शय्या पर दिव्य रूप से देव सम्पूर्ण यौवन सहित, सर्व आभरणों से भूषित उत्पन्न होते हैं।
२. देह – देवों का शरीर अंतर्मुहूर्त में ही पूर्ण बन जाता है। इसमें सात धातु, रक्त, शुक्र, वीर्य, मल-मूत्रादि नहीं होते हैं। उनका शरीर दिव्य वैक्रियिक रहता है। नारकियों का शरीर भी अंतर्मुहूर्त में बन जाता है। वैक्रियिक है फिर भी अत्यंत घिनावना, दुर्गंधियुक्त, भयंकर होता है। तिर्यंचों के एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यंत अनेक भेद हैं, मनुष्य पंचेन्द्रिय ही होते हैं। नारकी नीचे की सात पृथिवियों में रहते हैं। देव अधोभाग में, मध्यलोक में व ऊध्र्वलोक में रहते हैं। मनुष्य ढाई द्वीप तक रहते हैं और तिर्यंच सारे मध्यलोक में रहते हैं। प्रकरण प्राप्त मध्यलोक के द्वीप, समुद्र का विंचित् वर्णन करते हैं- जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड, पुष्करवरद्वीप, वारुणीवरद्वीप, क्षीरवरद्वीप, घृतवरद्वीप, क्षौद्रवरद्वीप, नंदीश्वरद्वीप, अरुणद्वीप, अरुणभासद्वीप, कुण्डलवरद्वीप, शंखवरद्वीप, रुचकवरद्वीप, भुजगवरद्वीप, कुशवरद्वीप और क्रौंचवरद्वीप। जंबूद्वीप को घेर कर लवण समुद्र है, धातकीखण्ड के बाद कालोदधि समुद्र है। शेष समुद्र अपने-अपने द्वीप के नाम वाले ही हैं। एक द्वीप के बाद समुद्र और समुद्र को घेरकर द्वीप ऐसे द्वीप-समुद्र असंख्यात हैं। प्रारंभ में द्वीप है और अंत में स्वयंभूरमण समुद्र है। लवणसमुद्र का जल नमक जैसा है, वारुणीवर समुद्र का जल मद्य जैसा है, क्षीरवर समुद्र का जल दूध रूप है और घृतवरसमुद्र का जल घीरूप है। कालोदसमुद्र, पुष्करवरसमुद्र और स्वयंभूरमण समुद्र का जल जल के स्वाद जैसा है। शेष सर्व असंख्यातों समुद्रों का जल मधुर रस वाला है। जम्बूद्वीप, धातकीखण्डद्वीप और मानुषोत्तर से पूर्व आधा पुष्करद्वीप इन ढाई द्वीपों तक ही मनुष्य होते हैं। इनसे आगे सर्वत्र द्वीपों में पंचेन्द्रिय भोगभूमिज तिर्यंच हैं। आगे अंतिम स्वयंभूरमण के उस तरफ आधे में कर्मभूमिज तिर्यंच हैं। लवणसमुद्र, कालोदसमुद्र और स्वयंभूरमण समुद्र में जलचर जीव, मत्स्य, मगर आदि पाए जाते हैं। शेष समुद्रों में जलचर जीव नहीं हैं। यहाँ लवण समुद्र के नदीमुख के स्थान में नौ योजन प्रमाण देहधारी मत्स्य हैं, आगे स्वयंभूरमण समुद्र में एक हजार योजन प्रमाण शरीरधारी महामत्स्य होते हैं।
३. कायसंस्थान – तिर्यंचों और मनुष्यों में छहों संस्थान होते हैं। नारकी के हुंडक संस्थान ही है और देवों में एक समचतुरस्र संस्थान ही है।
४. इन्द्रिय संस्थान – श्रोत्रेन्द्रिय का आकार जव की नली के समान है, चक्षु इन्द्रिय का मसूर के समान है, घ्राणेन्द्रिय का तिल के पुष्प समान है, जिह्वा का आकार अर्धचन्द्राकार है और स्पर्शन इन्द्रिय के अनेक आकार होते हैं।
५. योनि –सचित्त, शीत, संवृत, अचित्त, उष्ण, विवृत, सचित्ताचित्त, शीतोष्ण और संवृतविवृत ये नव प्रकार की योनियाँ हैं। शंखावर्त, वूर्मोन्नत और वंशपत्र ये तीन भेद भी योनि के होते हैं। वूâर्मोन्नत योनि से तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि महापुरुष जन्म लेते हैं। वंशपत्र योनि से अन्य सभी भोगभूमिज, कर्मभूमिज मनुष्य जन्मते हैं और शंखावर्त योनि में गर्भ नहीं रहता है। योनि के ८४ लाख भेद भी होते हैं।
६. आयु –शुद्ध पृथिवीकायिक की उत्कृष्ट आयु १२ हजार वर्ष है। खर पृथिवीकायिक की २२ हजार वर्ष है। जलकायिक की ७ हजार वर्ष, अग्निकायिक की ७ दिन, वायुकायिक की ३ हजार वर्ष और वनस्पति कायिक की १० हजार वर्ष की उत्कृष्ट आयु है। द्वीन्द्रिय की १२ वर्ष, तीन इन्द्रिय की ४९ दिन, चतुरिन्द्रिय की ६ महीने उत्कृष्ट आयु है। पंचेन्द्रिय मत्स्य की उत्कृष्ट आयु एक कोटि पूर्व वर्षों की है। मनुष्यों में भोगभूमिजों की उत्कृष्ट आयु तीन पल्य है और कर्मभूमिजों की एक कोटि वर्ष पूर्व की है। नारकी और देवों की उत्कृष्ट आयु तेतीस सागर प्रमाण है। तिर्यंच व मनुष्यों की जघन्य आयु अंतर्मुहूर्त है और देव, नारकियों की जघन्य आयु दश हजार वर्ष है।
७. प्रमाण –प्रथम नरक में नारकियों के शरीर का प्रमाण-ऊँचाई जघन्य रूप से तीन हाथ प्रमाण है। सातवें नरक में उत्कृष्ट प्रमाण पाँच सौ धनुष है। देवों में सर्वार्थसिद्धि के देवों का शरीर प्रमाण एक हाथ प्रमाण है। भवनवासी देवों में उत्कृष्ट ऊँचाई पच्चीस धनुष है। तिर्यंचों में उत्कृष्ट ऊँचाई एक हजार योजन है। जघन्य घनांगुल के असंख्यातवें भाग मात्र है। मनुष्यों की जघन्य ऊँचाई छठे काल में एक हाथ है और उत्कृष्ट ऊँचाई सवा पाँच सौ धनुष प्रमाण है।
८. योग –मन-वचन-काय के निमित्त से जो आत्मप्रदेशों में चंचलता होती है, वह योग है। यह मन-वचन-काय से तीन भेदरूप है। एकेन्द्रिय जीवों के एक काययोग है, द्वीन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक काययोग और वचनयोग हैं और संज्ञी पंचेन्द्रिय में तीनों योग रहते हैं।
९. वेद –एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, नारकी और संमूच्र्छन जीव इनके एक नपुंसक वेद ही है। देव और भोगभूमिजों में स्त्रीवेद और पुरुषवेद ये दो वेद होते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच तथा मनुष्यों में तीनों वेद होते हैं।
१०. लेश्या –कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल ये छह लेश्या हैं। नारकियों में प्रारंभ की तीन अशुभ लेश्या ही हैं। देवों में तीन शुभ लेश्या हैं। तिर्यंच और मनुष्यों में छहों लेश्याएँ होती हैं।
११. प्रवीचार –तिर्यंच और मनुष्यों में काय-शरीर से प्रवीचार-काम सुख होता है। भवनवासी व्यंतर, ज्योतिष्क और सौधर्म, ईशान स्वर्ग तक देवों में काय से प्रवीचार सुख है। इससे ऊपर सानत्कुमार-माहेन्द्र स्वर्ग में स्पर्शजन्य प्रवीचार है। ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव और कापिष्ठ स्वर्गों में रूप देखने का प्रवीचार है। शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार स्वर्गों में शब्द का प्रवीचार है अर्थात् ये देव देवांगनाओं का रूप देखकर या शब्द सुनकर काम सुख की तृप्ति कर लेते हैं। आगे आनत, प्राणत, आरण और अच्युत स्वर्गों में देव-देवांगना अपने-अपने पति-पत्नियों का मन में विचार कर ही कामसुख से सुखी हो जाते हैं। आगे नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश और पाँच अनुत्तरों में देवांगनाएं ही नहीं हैं।
१२. उपपाद –असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच पहले नरक पृथिवी तक जाते हैं। सरीसृप आदि दूसरी पृथिवी तक, पक्षी तीसरी तक, उर: सर्प आदि चौथी तक, सिंह आदि पाँचवीं तक, स्त्रियाँ छठे तक और मनुष्य तथा महामत्स्य आदि तिर्यंच सातवीं पृथिवी तक जाते हैं। सर्व अपर्याप्तकों में, सर्वसूक्ष्म जीवों में, सर्व अग्निकायिक, वायुकायिक और सर्व असंज्ञी जीवों में तिर्यंच और मनुष्य उत्पन्न होते हैं। जिन्होंने दान दिया है या दान की अनुमोदना की है, ऐसे मनुष्य और तिर्यंच भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य सम्यक्त्व के बिना ही भवनत्रिक देवों में जन्म लेते हैं। सम्यक्त्व और व्रत सहित तिर्यंच सोलहवें स्वर्ग तक जा सकते हैं। मनुष्य सम्यक्त्व सहित या रहित भी नवग्रैवेयक तक भी जाते हैं किन्तु इससे आगे सम्यक्त्व-व्रत से सहित ही जन्मते हैं।
१३. उद्वर्तन – सातवें नरक से निकले नारकी तिर्यंच ही होते हैं। छठे नरक के मनुष्य भव पा सकते हैं, उन्हें सम्यक्त्व हो भी सकता है। पाँचवें नरक से निकलकर संयम लाभ कर सकते हैं। चौथे से निकलकर मनुष्य होकर मोक्ष भी प्राप्त कर सकते हैं। तीसरे, दूसरे व पहले नरक से निकलकर नारकी तीर्थंकर भी हो सकते हैं किन्तु नरक से निकले जीव चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण, प्रतिनारायण नहीं होते हैं। पृथिवी, जल, अग्नि और वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीव वहाँ से निकलकर तिर्यंच या मनुष्य भी हो सकते हैं तथा विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्तक जीव तिर्यंच या मनुष्य हो सकते हैं। देव, नारकी और भोगभूमियाँ जीव मरकर लब्धि अपर्याप्तक नहीं होते हैं। भवनत्रिक देव व ईशान स्वर्ग तक के देव वहाँ से च्युत होकर कदाचित् एकेन्द्रिय भी हो जाते हैं। उसमें पर्याप्तक ही होते हैं। आगे तीसरे स्वर्ग से बारहवें स्वर्ग तक के देव कदाचित् पंचेन्द्रिय तिर्यंच हो जाते हैं। इससे ऊपर के देव मरकर मनुष्य ही होते हैं। मनुष्य मरकर सर्व एकेन्द्रिय आदि तिर्यंचों में, नरकों में व देवों में जन्म ले सकता है और यदि पुरुषार्थ करे तो कर्मों का नाश कर मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
सर्वार्थसिद्धि से च्युत हुए जीव तीर्थंकर पद, चक्रवर्ती पद और बलभद्र पद के धारक होते हैं अथवा नहीं भी होते हैं, परन्तु वे नियम से मोक्ष प्राप्त करते हैं। सौधर्म इन्द्र शची देवी, लोकपाल, दक्षिण इन्द्र और लौकांतिक देव ये वहाँ से च्युत होकर मनुष्य होकर नियम से मोक्ष प्राप्त करते हैं।
१४. स्थान – इसमें जीवसमास, गुणस्थान और मार्गणा आदि का विस्तार से वर्णन है। जैसे एकेन्द्रिय के सूक्ष्म-बादर दो भेद हैं, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय ये सात हुए, इनके पर्याप्तक और अपर्याप्तक से दो-दो भेद करने से चौदह जीवसमास होते हैं। मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, असंयत, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसांपराय, उपशांतमोह, क्षीणमोह, सयोगकेवली और अयोगकेवली ये चौदह गुणस्थान हैं। गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञित्व और आहारक ये चौदह मार्गणा हैं। इन मार्गणाओं के अवांतर भेद करके उनमें गुणस्थान और जीवसमास को घटाया है।
१५. कुल – संपूर्ण जीवों के कुलों की संख्या एक कोड़ाकोड़ी, सत्तानवे लाख, पचास हजार कोटि है।
१६. अल्पबहुत्व – मनुष्यगति में सबसे थोड़े मनुष्य हैं, फिर भी श्रेणी के असंख्यात भाग मात्र हैं। मनुष्यों से असंख्यात गुणश्रेणी नारकी हैं। नारकियों से देवगति में देव असंख्यात गुणे अधिक हैं। देवों से अनंतगुणे अधिक जीव सिद्धगति में हैं और सिद्धों से भी अनंतगुणे तिर्यंचगति के जीव हैं।
१७. प्रकृतिबंध –यह जीव मिथ्यादर्शन, अविरति, कषाय और योग के निमित्त से कर्मों को ग्रहण करता है। उन कर्म पुद्गलों का जीव के आत्मप्रदेशों में मिल जाना-एकमेक हो जाना बंध है। इसके प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभाग बंध और प्रदेशबंध ये चार भेद हैं। उसमें से प्रथम प्रकृति बंध के आठ भेद हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय। इनके उत्तर भेद एक सौ अड़तालीस हैं।
१८. स्थितिबंध – ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अंतराय इन कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर है। मोहनीय की सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर है। नाम और गोत्र की बीस कोड़ाकोड़ी सागर और आयु की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर प्रमाण है। वेदनीय की जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त है, नाम और गोत्र की आठ मुहूर्त है, शेष पाँच कर्मो की अंतर्मुहूर्त है।
१९. अनुभाग बंध – ज्ञानावरणादि कर्मों का जो परिणामों के द्वारा शुभ-अशुभ रस-अनुभव उत्पन्न होता है जो कि जीव को सुख और दु:ख देता है, वह अनुभाग बंध है। ज्ञानावरण आदि चार घातिया कर्म पापरूप हैं और चार अघातिया कर्मों में पाप तथा पुण्य ये दोनों रूप हैं। नीम, कांजीर, विष और कालकूट, अशुभ प्रकृतियों के ये चार स्थान हैं। गुड़, खांड, शर्करा और अमृत, शुभ प्रकृतियों के ये चार स्थान हैं। मोहनीय और अंतराय को छोड़कर शेष छह कर्मों का उत्कृष्ट अनुभाग चार स्थानों का है और जघन्य अनुभाग दो स्थानों का है। बाकी का अनुभाग बंध-अनुत्कृष्ट और अजघन्य दो, तीन और चारस्थान युक्त है। मोहनीय का उत्कृष्ट अनुभाग चतु:स्थानिक है, जघन्य अनुभाग एकस्थानिक है। अवशेष-अजघन्य, अनुत्कृष्ट अनुभाग एक, दो, तीन व चतु:स्थानिक है। अंतराय का उत्कृष्ट अनुभाग चतु:स्थानिक है। जघन्य अनुभाग एकस्थानरूप है और शेष में सर्व हैं। प्रदेशबंध-आत्मा के प्रत्येक प्रदेश में अनंत कर्म आकर स्थित हो जाते हैं, ये सूक्ष्म हैं, मन, वचन, काय के विशिष्ट व्यापार से आते हैं, आत्मा के साथ एक क्षेत्रावगाही होकर और ज्ञानावरणादि रूप से परिणत होकर तिल में तेल के समान रहते हैं। इसे ही प्रदेशबंध कहते हैं। आत्मा के साथ एक समय में बंधे हुए कर्म समयप्रबद्ध नाम से कहे जाते हैं। इस एक समयप्रबद्ध में आयु का एक भाग है। नाम और गोत्र को आयु से अधिक भाग मिलता है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय को इन नाम-गोत्र से अधिक भाग मिलता है। इनसे अधिक मोहनीय का भाग है और इस मोहनीय से अधिक वेदनीय का हिस्सा है। प्रकृति बंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध और प्रदेशबंध ये चार भेद जिनके हैं वे कर्म मूल में आठ भेदरूप हैं और इनके उत्तर भेद एक सौ अड़तालीस हैं अथवा ये भेद असंख्यात लोक प्रमाण हैं। इन कर्मों का नाश हो जाने पर आत्मा ज्ञानादि अनंतगुण स्वरूप, परमज्योतिर्मय हो जाता है। इस आचार ग्रंथ के आधार से निर्दोष चर्या को पालन करने वाले मुनि इन कर्मों का नाश करते हैं। यहाँ गुणस्थान के क्रम से कर्मों के नाश-क्षपणविधि को कहते हैं- कर्मक्षपण विधि-
मोहनीय ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय के क्षय से सर्व पदार्थों का-लोक, अलोक का प्रकाशक केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है। उन कर्मों के नाश का क्रम यहाँ कहते हैं- अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, सम्यङ्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व इन सात प्रकृतियों का असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत ऐसे चार गुणस्थानों में से किसी भी गुणस्थान में नाश करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो जाते हैं। जो मुनि क्षपकश्रेणी में आरोहण करके कर्मों का क्षय करने वाले हैं उनके नरक, तिर्यंच और देव इन तीनों आयु की सत्ता ही नहीं है। पुन: सातवें से आठवें गुणस्थान में जाकर नवमें में पहुँचते हैं, वहाँ उस गुणस्थान के नव भागों में से प्रथम भाग में नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यंचगति, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रियजाति, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, उद्योत, आतप, एकेन्द्रिय, साधारण, सूक्ष्म और स्थावर इन सोलह प्रकृतियों का नाश करते हैं। दूसरे भाग में अप्रत्याख्यानावरण की चार और प्रत्याख्यानावरण की चार ऐसी आठ प्रकृतियों का नाश होता है। तीसरे भाग में नपुंसक वेद, चौथे भाग में स्त्रीवेद, पाँचवें भाग में हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा इन छह प्रकृतियों का नाश होता है। छठे भाग में पुरुषवेद, सातवें में संज्वलन क्रोध, आठवें भाग में संज्वलन मान और नवमें भाग में संज्वलन माया का नाश होता है। ये छत्तीस प्रकृतियाँ नवमें गुणस्थान में नष्ट हो जाती हैं। दशवें गुणस्थान में संज्वलन लोभ का नाश होता है। इसके बाद बारहवें क्षीणकषाय नाम के गुणस्थान में ज्ञानावरण की पाँच, दर्शनावरण की चार, अंतराय की पाँच, निद्रा और प्रचला इन सोलह प्रकृतियों का नाश होता है। इसके बाद तेरहवें गुणस्थान में पहुँचकर अर्हंत केवली हो जाते हैं। ऊपर में कही ये प्रकृतियाँ त्रेसठ हैं। यथा ७ + ३ + ३६ + १ + १६ =६३, इन त्रेसठ प्रकृतियों के सर्वथा विनाश हो जाने से केवलज्ञान प्रगट हो जाता है। यद्यपि चार घातिया-मोहनीय, दर्शनावरण, ज्ञानावरण और अंतराय इनका नाश कहा है फिर भी नामकर्म की तेरह और आयु की तीन ऐसे सोलह प्रकृतियाँ भी इनमें शामिल हैं। ये सयोगकेवली भट्टारक कुछ भी कर्मक्षपण नहीं करते हैं। पुन: क्रम से विहार करते हुए अंत में योग निरोध कर अयोगकेवली हो जाते हैं।
तदनंतर वे अयोगकेवली औदारिक शरीर, नामकर्म, गोत्रकर्म, आयुकर्म और वेदनीय कर्म ऐसे चार कर्मों का युगपत् क्षय करके नीरज-सर्व कर्मरज से रहित सिद्ध परमात्मा हो जाते हैं। अयोगकेवली भगवान के अपने काल के द्विचरम समय में पाँच शरीर, पाँच संघात, पाँच बंधन, छह संस्थान, तीन अंगोपांग, छह संहनन, पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गंध, आठ स्पर्श, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, साता-असाता में से कोई एक वेदनीय, दो विहायोगति, अपर्याप्त, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, सुस्वर-दु:स्वर, सुभग, दुर्भग, अनादेय, अयश:कीर्ति, निर्माण और नीचगोत्र, ऐसी बहत्तर प्रकृतियों का नाश होता है। अनंतर उनके चरम समय में शेष रही एक वेदनीय, मनुष्यगति, मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी, मनुष्यायु, पंचेन्द्रिय जाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, आदेय, यश:कीर्ति, उच्चगोत्र और तीर्थंकर प्रकृति इन तेरह प्रकृतियों का नाश कर एक समय में ही सिद्ध होकर यहाँ से ऊध्र्वगमन कर लोक के अग्रभाग में जाकर विराजमान हो जाते हैं। ये सिद्ध भगवान औदारिक शरीर से रहित-अशरीरी, कर्मरज रहित, निर्मल, निर्लेप, अनंत ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य सहित, अक्षय, अविनाशी, अनंतगुणों के आधार हो जाते हैं।
एसो मे उवदेसो संखेवेण कहिदो जिणक्खादो। सम्मं भावेदव्वो दायव्वो सव्वजीवाणं।।
जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित यह मुनियों के चारित्र का उपदेश मैंने संक्षेप से कहा है। हे साधुओं! तुम्हें सतत सम्यक् प्रकार से इसकी भावना करनी चाहिए-इसे ग्रहण करना चाहिए और सर्व भव्य जीवों के लिए यह उपदेश देना चाहिए, उन्हें ग्रहण करना चाहिए।