श्रेय: श्रेय-निबन्धनोऽसुखहर: श्रेयं श्रयन्त्युत्तमा:।
श्रेयेनात्र च लभ्यतेऽखिल सुखं श्रेयाय शुद्धा क्रिया:।।
श्रेयाच्छ्रेयकरोऽपरो न च महान् श्रेयस्य मूलं सुदृक्।
श्रेये यत्नमनारतं बुधजना: कुर्वन्तु दृक् चिद्व्रतै:।।
श्रेय-पुण्य, श्रेय-कल्याण को प्राप्त कराने वाला और दु:खों को हरने वाला है इसलिए सज्जन पुरुष पुण्य का आश्रय लेते हैं। पुण्य से ही सम्पूर्ण सुखों की प्राप्ति की है अत: पुण्य अर्जन के लिए शुद्ध क्रियाएं करना चाहिए। पुण्य से अधिक कल्याणकारी और कोई महान् नहीं है। पुण्य की जड़ सम्यग्दर्शन है। इसलिए बुद्धिमानों को रत्नत्रय धर्म के द्वारा पुण्य के अर्जन में अनवरत प्रयत्न करना चाहिए। यहाँ पर इस लोक में आचार्यदेव ने ‘श्रेय’ शब्द में षट्कारक घटित किये। इस श्रेय का अर्थ पुण्य भी होता है और कल्याण भी होता है। अत: श्रेय अर्थात् पुण्य श्रेय अर्थात् कल्याण की, सुख की प्राप्ति होती है, ऐसा समझना।