पावागमदाराइं अणाइरूवट्ठियाइ जीवम्मि।
तत्थ सुहासवदार उग्घादेंतो कड सदोसो।।५०।।
घडियाजलं व कम्मे अणुसमयमसंखगुणियसेढीए।
णिज्जरमणे संते वि महव्वईणं कुदो पावं।।६०।।
जीव में पापास्रव द्वार अनादिकाल से स्थित हैं उनके रहते हुए जो जीव शुभास्रव के द्वार का उद्घाटन करता है अर्थात् शुभास्रव के कारणभूत कामों को करता है वह सदोष कैसे हो सकता है? अर्थात् वह निर्दोष है। जब महाव्रतियों के प्रतिसमय घटिकायंत्र के जल के समान असंख्यात गुणित श्रेणी रूप से कर्मों की निर्जरा होती रहती है तब उनके पाप वैâसे संभव है? अर्थात् मुनियों के पाप का आस्रव नहीं होता है।