परिणमदि जेण दव्वं तक्कालं तम्मय त्ति पण्णत्तं। तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेयव्वो।।८।। जिस काल द्रव्य जिन भावों से, परिणमन करे उस काल सही। तन्मय हो जाता द्रव्य अहो! उस काल कहा उस रूप सही।। इस हेतु धर्म से परिणत हो, आत्मा ही धर्म कहा जाता। अग्नी से तप कर लोह पिंड, जैसे अग्नीमय हो जाता।।८।।
अर्थ-यह द्रव्य जिस काल में जिस भाव से परिणमन करता है, उस काल में उस रूप हो जाता है ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा है। इसलिए धर्म से परिणत हुई आत्मा को धर्मरूप जानना चाहिए अर्थात् निज शुद्ध आत्मा की परिणतिरूप निश्चय धर्म है और पंच परमेष्ठी आदि की भक्ति के परिणामरूप व्यवहार धर्म है। इन उभय धर्म से परिणत हुआ आत्मा धर्म रूप है जैसे अग्नि से संतप्त हुआ लोहे का गोला अग्निरूप ही हो जाता है।