श्री वीतराग जिनेन्द्र को, प्रणमूँ सदा वर भाव से।
श्री सप्तपरमस्थान पूजूँ, प्राप्ति हेतू चाव से।।
आह्वान थापन सन्निधापन, भक्ति श्रद्धा से करूँ।
सज्जाति से निर्वाण तक, पद सप्त की अर्चा करूँ।।१।।
ॐ ह्रीं सप्तपरमस्थानसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं सप्तपरमस्थानसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं सप्तपरमस्थानसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथाष्टक
(चाल-नंदीश्वर श्रीजिनधाम)
जल शीतल निर्मल शुद्ध, केशर मिश्र करूँ।
अंतर्मल क्षालन हेतु, शुभ त्रय धार करूँ।।
मैं सप्तपरमपद हेतु, परमस्थान जजूँ।
सब कर्म कलंक विदूर, परिनिर्वाण भजूँ।।१।।
ॐ ह्रीं श्री परमब्रह्मणे सप्तपरमस्थानाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरभित अलिचुंबित गंध, कुंकुम संग मिला।
भव दाह निकंदन हेतु, चर्चत सौख्य मिला।।
मैं सप्तपरमपद हेतु, परमस्थान जजूँ।
सब कर्म कलंक विदूर, परिनिर्वाण भजूँ।।२।।
ॐ ह्रीं श्री परमब्रह्मणे सप्तपरमस्थानाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मुक्ताफल सम वर शुभ्र, तंदुल धोय धरूँ।
वर पुंज चढ़ाऊँ आन, उत्तम सौख्य वरूँ।।
मैं सप्तपरमपद हेतु, परमस्थान जजूँ।
सब कर्म कलंक विदूर, परिनिर्वाण भजूँ।।३।।
ॐ ह्रीं श्री परमब्रह्मणे सप्तपरमस्थानाय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
मंदार वकुल मचकुंद, सुरभित पुष्प लिया।
मदनारि विनाशन हेतु, अर्चूं खोल हिया।।
मैं सप्तपरमपद हेतु, परमस्थान जजूँ।
सब कर्म कलंक विदूर, परिनिर्वाण भजूँ।।४।।
ॐ ह्रीं श्री परमब्रह्मणे सप्तपरमस्थानाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
बहुविध उत्तम पकवान, घृत से पूर्ण भरे।
निज क्षुधा निवारण हेतु, अर्चूं भक्ति भरे।।
मैं सप्तपरमपद हेतु, परमस्थान जजूँ।
सब कर्म कलंक विदूर, परिनिर्वाण भजूँ।।५।।
ॐ ह्रीं श्री परमब्रह्मणे सप्तपरमस्थानाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृत दीपक ज्योति प्रकाश, जगमग ज्योति करे।
दीपक से पूजा सत्य, ज्ञान उद्योत करे।।
मैं सप्तपरमपद हेतु, परमस्थान जजूँ।
सब कर्म कलंक विदूर, परिनिर्वाण भजूँ।।६।।
ॐ ह्रीं श्री परमब्रह्मणे सप्तपरमस्थानाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दशगंध सुगंधित धूप, खेवत पाप जरें।
वर सप्त पदों को पूज, उत्तम सौख्य वरें।।
मैं सप्तपरमपद हेतु, परमस्थान जजूँ।
सब कर्म कलंक विदूर, परिनिर्वाण भजूँ।।७।।
ॐ ह्रीं श्री परमब्रह्मणे सप्तपरमस्थानाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
बादाम सुपारी दाख, एला थाल भरे।
फल से पूजत शिव सौख्य, अनुपम प्राप्त करें।।
मैं सप्तपरमपद हेतु, परमस्थान जजूँ।
सब कर्म कलंक विदूर, परिनिर्वाण भजूँ।।८।।
ॐ ह्रीं श्री परमब्रह्मणे सप्तपरमस्थानाय फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन अक्षत पुष्प, नेवज दीप लिया।
वर धूप फलों से युक्त, उत्तम अघ्र्य किया।।
मैं सप्तपरमपद हेतु, परमस्थान जजूँ।
सब कर्म कलंक विदूर, परिनिर्वाण भजूँ।।९।।
ॐ ह्रीं श्री परमब्रह्मणे सप्तपरमस्थानाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
सोरठा
शांतीधारा देय, सप्तपरमपद को जजूँ।
परम शांति सुख हेतु, सब जग शांती हेतु मैं।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
चंपक हरसिंगार, पुष्प सुगंधित लायके।
सप्तपरमपद हेतु, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
अथ प्रत्येक अघ्र्य
नरेन्द्र छंद
मात-पिता कुल उभय पक्ष की, शुद्धी सज्जाती है।
सम्यग्दर्शन सहित भव्य को, निश्चित मिल जाती है।।
जल गंधादिक अष्टद्रव्य ले, हर्षित भाव जजूँ मैं।
सज्जाति स्थान परम को, पूजत सौख्य भजूँ मैं।।१।।
ॐ ह्रीं सज्जातिपरमस्थानाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्वजनों से मान्य जगत में, सद्गृहस्थ पद माना।
धर्म-अर्थ अरु काम-मोक्ष का, आकर १श्रेष्ठ बखाना।।
जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, हर्षित भाव जजूँ मैं।
सद्गार्हस्थ परम पद पूजत, उत्तम सौख्य भजूँ मैं।।२।।
ॐ ह्रीं सद्गृहस्थत्वपरमस्थानाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचमहाव्रत पंचसमिति, त्रय गुप्ति सहित जो माना।
वरचारितमय परीव्राज्य पद, जग में सर्व प्रधाना।।
जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, हर्षित भाव जजूँ मैं।
परिव्राज्य पद परम पूज कर, उत्तम सौख्य भजूँ मैं।।३।।
ॐ ह्रीं प्राव्राज्यपरमस्थानाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
कोटि कोटि सुर सहित महद्र्धी, गुण सम्पन्न कहाता।
सुरपति पद सब देवगणों में, आज्ञा नित्य चलाता।।
जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, हर्षित भाव जजूँ मैं।
वर सुरेन्द्र पद पूजन करके, उत्तम सौख्य भजूँ मैं।।४।।
ॐ ह्रीं सुरेन्द्रत्वपरमस्थानाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
षट्खंडाधिप चक्रवर्ति पद, वैभव पूर्ण जगत में।
सम्यग्दर्शन शून्यजनों को, मिलना दुष्कर सच में।।
जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, हर्षित भाव जजूँ मैं।
शुभ साम्राज्य परम पद पूजत, उत्तम सौख्य भजूँ मैं।।५।।
ॐ ह्रीं साम्राज्यपरमस्थानाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
चतुर्निकाय देवगण पूजित, महामहोत्सवकारी।
तीर्थंकर पद सर्वोत्तम पद, त्रिभुवन जन सुखकारी।।
जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, हर्षित भाव जजूँ मैं।
तीर्थंकर स्थान परम पद, पूजत सौख्य भजूँ मैं।।६।।
ॐ ह्रीं आर्हंत्यपरमस्थानाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
घाति अघाती कर्म घातकर, हुए निकल परमात्मा।
शुद्ध सिद्ध कृतकृत्य निरंजन, लोक शिखर गत आत्मा।।
जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, हर्षित भाव जजूँ मैं।
परिनिर्वाण परमपद पूजत, निरुपम सौख्य भजूँ मैं।।७।।
ॐ ह्रीं निर्वाणपरमस्थानाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्णाघ्र्य
सज्जाती सद्गृहस्थ पद अरु, पारिव्राज्य सुरनाथा।
वर साम्राज्य परम अर्हत्पद परिनिर्वाण विधाता।।
सप्त परमस्थान भुवन में, सर्वोत्तम कहलाते।
पूर्ण अघ्र्य ले इन्हें जजूँ मैं, निज पद पूरण वास्ते।।८।।
ॐ ह्रीं सप्तपरमस्थानाय पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा
गुणरत्नाकर वृषभजिन, भव्यकुमुद भास्वान।
सप्तपरमपद पाय के, भोगें सुख निर्वाण।।१।।
चाल-श्रीपति जिनवर……..
शुभजाति गोत्र वरवंश तिलक, जो सज्जाती के जन्मे हैं।
जो उभय पक्ष की शुद्धि सहित, औ उच्चगोत्र में जन्मे हैं।।
वे प्रथम परम पद सज्जाती, पाकर छहपद के अधिकारी।
वह सज्जाती स्थान सदा, भव भव में होवे गुणकारी।।२।।
धर्मार्थ काम त्रय वर्गों को, जो बाधा रहित सदा सेते।
पंचाणुव्रत औ सप्तशील, धारण कर सद्गृहस्थ होते।।
वे ही भव भोगों से विरक्त, जिनदीक्षा धर मुनि बनते हैं।
प्राव्राज्य तृतीय परम पद पा, निज आतम अनुभव करते हैं।।३।।
विधिवत् सन्यास मरण करके, देवेन्द्र परम पद पाते हैं।
स्वर्गों के अनुपम भोग-भोग, फिर चक्रीश्वर बन जाते हैं।।
सोलह कारण भावन भाकर, तीर्थंकर पद को पाते हैं।
छठवें आर्हन्त्य परम पद को, पाकर शिवमार्ग चलाते हैं।।४।।
सब कर्म अघाती भी विनाश, निर्वाण रमापति हो जाते।
जो काल अनन्तानन्तों तक, सुखसागर में गोते खाते।।
इन सप्त परमस्थानों को, क्रम से भविजन पा लेते हैं।
जो सप्तपरमपद व्रत करते, वे अंतिमपद वर लेते हैं।।५।।
घत्ता
जय सप्तपरमपद, त्रिभुवन सुखप्रद, जय जिनवर पद नित्य नमूँ।
‘सज्ज्ञानमतीवर’, शिव लक्ष्मीकर, जिनगुण सम्पत्ती परणूँ।।६।।
ॐ ह्रीं सप्तपरमस्थानाय जयमाला पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो सम्यक्विधि सप्तपरमस्थान सुव्रत करते हैं।
भक्ती से जिनराज चरण का, नित अर्चन करते हैं।।
वे क्रम से इन परम पदों को, पाकर सुख भजते हैं।
स्वर्ग सौख्य भज कर्म विलय कर, परम सिद्ध बनते हैं।।
।।इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलि:।।