रचयित्री-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी
श्री नेमिनाथ जिनराज! नमोऽस्तु तुभ्यं।
श्री नेमिनाथ मुनिनाथ! नमोऽस्तु तुभ्यं।।
अतिशायिक्षेत्रसुत्रिलोकपुरस्य नाथ:।
श्री नेमिनाथ जिनसूर्य! नमोऽस्तु तुभ्यं।।१।।
मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमो गणी।
मंगलं कुंदकुंदाद्यो, जैनधर्मोऽस्तु मंगलं।।२।।
।।अथ जिनपूजा प्रतिज्ञापनाय पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
श्री नेमिनाथ जिनराज! नमोऽस्तु तुभ्यं।
श्री नेमिनाथ मुनिनाथ! नमोऽस्तु तुभ्यं।।
अतिशायिक्षेत्रसुत्रिलोकपुरस्य नाथ:।
श्री नेमिनाथ जिनसूर्य! नमोऽस्तु तुभ्यं।।१।।
मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमो गणी।
मंगलं कुंदकुंद कुंंदाद्यो, जैनधर्मोऽस्तु मंगलं।।२।।
।।अथ जिनपूजा प्रतिज्ञापनाय पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
स्थापना (अडिल्ल छंद)
अतिशय क्षेत्र त्रिलोकपुरी के नेमिजिन।
अतिशयकारी प्रतिमा का करके वन्दन।।
अतिशायी फल प्राप्ति हेतु पूजन करूँ।
नेमिनाथ प्रभु के चौंतिस अतिशय नमूँ।।
ॐ ह्रीं अतिशयक्षेत्रत्रिलोकपुरस्थितश्रीनेमिनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतरत अवतरत संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं अतिशयक्षेत्रत्रिलोकपुरस्थितश्रीनेमिनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः स्थापनं।
ॐ ह्रीं अतिशयक्षेत्रत्रिलोकपुरस्थितश्रीनेमिनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहिता: भवत भवत वषट् सन्निधीकरणं।
-अथाष्टक (शंभु छंद)
प्रभु नेमि के पावन मन सदृश जल स्वर्ण कलश में भर करके।
निज जन्ममरण के नाश हेतु, जलधार करूँ प्रभु के पद में।।
तीरथ त्रिलोकपुर के अतिशयकारी, प्रभुवर का अर्चन है।
सांवरिया जिनवर नेमिनाथ को, मन वच तन से वन्दन है।।१।।
ॐ ह्रीं अतिशयक्षेत्रत्रिलोकपुरस्थितश्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु नेमिनाथ की गुण सुगंधि सम, सुरभित चन्दन ले करके।
संसारताप के नाश हेतु, चन्दन चर्चूं प्रभु के पद में।।
तीरथ त्रिलोकपुर के अतिशयकारी, प्रभुवर का अर्चन है।
सांवरिया जिनवर नेमिनाथ को, मन वच तन से वन्दन है।।२।।
ॐ ह्रीं अतिशयक्षेत्रत्रिलोकपुरस्थितश्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु नेमिनाथ के शुभ्र दया, भावों सम अक्षत ले करके।
अक्षय पद की प्राप्ती हेतू, अक्षत के पुंज चढ़ाऊँ मैं।।
तीरथ त्रिलोकपुर के अतिशयकारी, प्रभुवर का अर्चन है।
सांवरिया जिनवर नेमिनाथ को, मन वच तन से वन्दन है।।३।।
ॐ ह्रीं अतिशयक्षेत्रत्रिलोकपुरस्थितश्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु नेमिनाथ के वैरागी, भावों का अनुमोदन करके।
निज कामबाण विध्वंस हेतु, मैं पुष्प चढ़ाऊँ प्रभु पद में।।
तीरथ त्रिलोकपुर के अतिशयकारी, प्रभुवर का अर्चन है।
सांवरिया जिनवर नेमिनाथ को, मन वच तन से वन्दन है।।४।।
ॐ ह्रीं अतिशयक्षेत्रत्रिलोकपुरस्थितश्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलज्ञानी प्रभु नेमिनाथ नहिं कवलाहार को करते थे।
मेरा क्षुधरोग विनाशन हो, नैवेद्य चढ़ाऊँ प्रभु पद में।।
तीरथ त्रिलोकपुर के अतिशयकारी, प्रभुवर का अर्चन है।
सांवरिया जिनवर नेमिनाथ को, मन वच तन से वन्दन है।।५।।
ॐ ह्रीं अतिशयक्षेत्रत्रिलोकपुरस्थितश्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु नेमि के राजुल त्याग का निर्मोही स्वभाव सुमिरन करके।
निज मोहध्वांत के नाश हेतु आरति कर लूँ घृत दीपक से।।
तीरथ त्रिलोकपुर के अतिशयकारी, प्रभुवर का अर्चन है।
सांवरिया जिनवर नेमिनाथ को, मन वच तन से वन्दन है।।६।।
ॐ ह्रीं अतिशयक्षेत्रत्रिलोकपुरस्थितश्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु नेमिनाथ के कर्मनाश, स्थल गिरनार नमन करके।
निज कर्म नाश हित अष्टगंध की, धूप जलाऊँ प्रभु पद में।।
तीरथ त्रिलोकपुर के अतिशयकारी, प्रभुवर का अर्चन है।
सांवरिया जिनवर नेमिनाथ को, मन वच तन से वन्दन है।।७।।
ॐ ह्रीं अतिशयक्षेत्रत्रिलोकपुरस्थितश्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु नेमिनाथ के तप का फल, शिवपद का अनुमोदन करके।
शिवफल की प्राप्ती हो मुझको, फल थाल समर्पूं प्रभु पद में।।
तीरथ त्रिलोकपुर के अतिशयकारी, प्रभुवर का अर्चन है।
सांवरिया जिनवर नेमिनाथ को, मन वच तन से वन्दन है।।८।।
ॐ ह्रीं अतिशयक्षेत्रत्रिलोकपुरस्थितश्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
ले अर्घ्य थाल ‘‘चन्दनामती’’ अर्पण कर लूँ प्रभु के पद में।
मैं भी अनर्घ्य पद प्राप्त करूँ है भाव सदा मेरे मन में।।
तीरथ त्रिलोकपुर के अतिशयकारी, प्रभुवर का अर्चन है।
सांवरिया जिनवर नेमिनाथ को, मन वच तन से वन्दन है।।९।।
ॐ ह्रीं अतिशयक्षेत्रत्रिलोकपुरस्थितश्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक के अर्घ्य
शौरीपुर में माँ शिवादेवी ने सोलह सपने देखे थे।
महाराज समुद्रविजय पति से फिर सपनों के फल पूछे थे।।
कार्तिक शुक्ला षष्ठी की तिथि प्रभु गर्भकल्याण से पावन थी।
प्रभु नेमिनाथ के गर्भकल्याण की पूजन करूँ यहाँ मैं भी।।१।।
ॐ ह्रीं कार्तिकशुक्लाषष्ठयां गर्भकल्याणकप्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन प्रभु नेमिनाथ का जन्म हुआ।
शौरीपुर नगरी के संग पूरा स्वर्गलोक भी धन्य हुआ।।
पर्वत सुमेरु की पांडु शिला पर शिशु प्रभु का अभिषेक हुआ।
उस जन्मकल्याणक का सुमिरन कर अर्घ्य चढ़ाऊँ आज यहाँ।।२।।
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लाषष्ठ्यां जन्मकल्याणकप्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बस वही जन्मतिथि श्रावण सुदि, छठ प्रभु वैराग्य की बन आई।
जूनागढ़ में पशु बंधे देख, बारात चली वापस आई।।
प्रभु नेमि गये गिरनार जहाँ तपकल्याणक इन्द्रों ने किया।
तपकल्याणक का अर्घ्य चढ़ा मैंने भी निज को धन्य किया।।३।।
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लाषष्ठ्यां दीक्षाकल्याणकप्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आश्विन शुक्ला एकम तिथि थी घातिया कर्म का नाश किया।
गिरनार गिरी पर नेमिनाथ ने केवलज्ञान को प्राप्त किया।।
उस समवसरण में राजुल भी दीक्षा ले गणिनीप्रमुख बनीं।
मैं अर्घ्य समर्पण करूँ ज्ञान कल्याणक की है पुण्य घड़ी।।४।।
ॐ ह्रीं आश्विनशुक्लाप्रतिपदायां केवलज्ञानकल्याणकप्राप्ताय श्रीनेमिनाथ-जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आषाढ़ सुदी सप्तमी नेमि, जिनवर ने शिवपद को पाया।
सौधर्म इन्द्र निज परिकर सह, निर्वाणोत्सव करने आया।।
उस ऊर्जयन्त गिरनार शिखर की पावनता को नमन करूँ।
निर्वाण कल्याणक अर्घ्य चढ़ा प्रभु नेमिनाथ का यजन करूँ।।५।।
ॐ ह्रीं आषाढ़शुक्लासप्तम्यां मोक्षकल्याणकप्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-विशेष अर्घ्य-
प्रभु गर्भ-जन्म से पावन शौरीपुर तीरथ को वन्दन है।
श्रीनेमिनाथ बाइसवें तीर्थंकर को अर्घ्य समर्पण है।।
तीर्थंकर से ही तीर्थ बने जो पुण्यभूमि कहलाते हैं।
ऐसे शौरीपुर तीरथ को हम हर्षित अर्घ्य चढ़ाते हैं।।६।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीनेमिनाथ गर्भ-जन्मकल्याणकपवित्र शौरीपुर तीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तप-ज्ञान और निर्वाण तीन कल्याणक से जो पावन है।
प्रभु नेमिनाथ की कर्मभूमि निष्कर्मपने का साधन है।।
वे सिद्धशिला पर पहुँच गये गिरनार सिद्धि का धाम बना।
उस सिद्धक्षेत्र को अर्घ्य चढ़ाकर पाऊँ आतम सौख्य घना।।७।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीनेमिनाथ दीक्षा-केवलज्ञान-निर्वाणकल्याणकपवित्र-श्रीगिरनारसिद्धक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अतिशयक्षेत्र श्री त्रिलोकपुर का अर्घ्य
अतिशय क्षेत्र त्रिलोकपुरी के नेमिनाथ जिनवर को नमन।
जिनके पद में करें देवता भी परोक्ष में फल अर्पण।।
पारिजात सिद्धार्थ वृक्ष एवं नवग्रह जिनवर को नमन।
अष्ट द्रव्य का थाल ‘‘चन्दनामती’’ करूँ प्रभु पद अर्पण।।१।।
-दोहा-
अतिशय क्षेत्र त्रिलोकपुर, नेमिनाथ का धाम।
अर्घ्य चढ़ाकर मैं चहूँ, अतिशययुत शिवधाम।।२।।
ॐ ह्रीं त्रिलोकपुरअतिशयक्षेत्रे विराजमानश्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय सर्वजिनबिम्बेभ्यश्च अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नेमिनाथ भगवान! तुम्हारे चरणों में शत वन्दन है।
आठों द्रव्यों का अर्घ्य थाल प्रभु जयमाला में समर्पण है।।
शौरीपुर के महाराजा समुद्रविजय व शिवादेवी रानी।
उनके महलों में रत्नवृष्टि करते थे धनकुबेरज्ञानी।।१।।
सोलहस्वप्नों के फल में शिवादेवी तीर्थंकर मात बनीं।
सौधर्म इन्द्र शचि इन्द्राणी परिकर सह आए उसी घड़ी।।
इन्द्राणी गई प्रसूतिगृह माँ को निद्रा में मग्न किया।
मायामयि शिशु को रखके वहाँ लाई प्रभु निज को धन्य किया।।२।।
सौधर्म इन्द्र प्रभु को लखके, नहिं तृप्त हुआ दो आँखों से।
तब नेत्र हजार बना करके, प्रभु अंग अंग निरखा उनसे।।
खुशियों के आँसू छलक पड़े, फिर ताण्डव नृत्य किया उसने।
शौरीपुर नगरी धन्य हुई, प्रभु जन्मकल्याणक उत्सव में।।३।।
वे पंचकल्याणक अधिपति नेमीनाथ चतुर्थ बालयति थे।
पशु बंधे देख निज ब्याह समय, वैराग्य हुआ जूनागढ़ में।।
राजुल कर में जयमाल लिये, पर ब्याह न पाई नेमी को।
वह भी वैरागिन बन चल दी, अपना कर्तव्य निभाने को।।४।।
जूनागढ़ की वैराग्य कथा, गिरनार पे जा साकार हुई।
तप-ज्ञान व मोक्षकल्याणक से पावन धरती इतिहासमयी।।
प्रभु नेमिनाथ के समवसरण की गणिनी राजुल माता थीं।
नारी की धैर्य परीक्षा में आदर्श आर्यिका माता थीं।।५।।
प्रभु नेमिनाथ के अतिशयकारी तीरथ पर अब चलना है।
उत्तरप्रदेश के श्रीत्रिलोकपुर तीर्थ का परिचय करना है।।
बाराबंकी जनपद के निकट यह तीर्थ हमारा स्थित है।
भूगर्भ से निकली नेमिनाथ प्रतिमा का मंदिर निर्मित है।।६।।
कतिपय प्राचीन साल पहले यहाँ देव परोक्ष में आते थे।
वे लौंग-नारियल हरे हरे, वेदी में बन्द चढ़ाते थे।।
मंदिर के दरवाजे प्रात: श्रावकगण खोला करते थे।
तब चढ़े सुगंधित द्रव्य देख आश्चर्य से बोला करते थे।।७।।
जय जय हे नेमिनाथ भगवन्! तुम भक्ति देव भी करते हैं।
इस पंचमकाल में भी भक्ति कर मनवाञ्छित फल वरते हैं।।
इस अवधप्रान्त की गौरवमणि गणिनी श्री ज्ञानमती जी हैं।
इस चैत्यवृक्ष शुभ पारिजात बनवाने की प्रेरणा दी है।।८।।
प्रभु नेमिनाथ मंदिर के सिवा प्राचीन जिनालय ग्राम में है।
वहँ नर नारी अभिषेक व पूजा निशदिन करते रहते हैं।।
इस अतिशय क्षेत्र के अतिशयकारी नेमिनाथ को वन्दन है।
‘‘चन्दनामती’’ प्रभु पूजन कर जयमाला अर्घ्य समर्पण है।।९।।
ॐ ह्रीं अतिशयक्षेत्रत्रिलोकपुरस्थित श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
नेमिनाथ भगवान का, अतिशयक्षेत्र महान।
श्री त्रिलोकपुर नाम का, धाम करे कल्याण।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।