श्रीमानजितनाथस्त्वं, द्वितीयस्तीर्थकृन्मत:।
श्रयाम्यजितनाथं त्वां, संसारोत्तरणेच्छया।।१।।
मार्गोऽप्यजितनाथेन, शिवस्योद्घाटितो गिरौ।
तुभ्यमजितनाथाय, नमो नमोऽस्त्वनंतश:।।२।।
तीर्थमजितनाथात् हि, सर्वेषां हितशासनं।
श्रीमतोऽजितनाथस्य, धर्म: प्राणिदयाकर:।।३।।
तीर्थेशेऽजितनाथे मे, प्रीति: नित्यं शिवप्रदा।
अजितनाथ! मां रक्ष, यावन्निर्वाणमाप्नुयाम्।।४।।
इन्द्रिय विषयों को जीत अजित, प्रभु ख्यात हुए कर्मारिजयी।
त्रिभुवन पूज्या सुरगण मान्या, वह पुरी अयोध्या विजित मही।।
माता विजया भी धन्य हुईं, जितशत्रु पिता भी धन्य हुए।
इक्ष्वाकु वंश के भास्कर को, कर उदित उभय जग वंद्य हुए।।१।।
वह ज्येष्ठ अमावस्या शुभ थी, प्रभु गर्भ महोत्सव इन्द्र किया।
सुर ललनाओं ने माता की, सेवा कर अतिशय पुण्य लिया।।
वर माघ सुदी दशमी तिथि थी, सुरशैल शिखर पर इन्द्रों ने।
अभिषेक महोत्सव करके फिर, शृँगार किया प्रभु का शचि ने।।२।।
अठरह सौ हाथ तनू स्वर्णिम, बाहत्तर लक्ष पूर्व आयु।
देवों के लाए भोजन औ, भूषण वसनादि भोग्य वस्तु।।
प्रभु ने न यहाँ के वस्त्र धरे, नहिं भोजन कभी किया घर का।
नित सुर बालक खेलें संग में, औ इन्द्र सदा ही किंकर था।।३।।
शुभ माघ सुदी नवमी सुरगण, लौकांतिक सुरगण भी आए।
प्रभु द्वारा तजे वसन भूषण, औ केश पयोदधि पधराये।।
प्रभु घोर तपश्चर्या करते, शुद्धात्म ध्यान में लीन हुए।
तब ध्यान अग्नि के द्वारा ही, झट कर्मवनी को दग्ध किये।।४।।
वह पौष सुदी एकादशि थी, प्रभु ज्ञानानंद स्वभावी थे।
विजितेन्द्रिय केवलज्ञान लिए, घट-घट के अन्तर्यामी थे।।
धर्मामृत वृष्टि से भविजन, तरु को सींचा पुष्पित कीना।
वे स्वर्ग मोक्ष से फलित हुए, अगणित को अपने सम कीना।।५।।
थी चैत्र सुदी पंचमि प्रभु ने, पंचमगति का साम्राज्य लिया।
वे पंचकल्याणक के नायक, भव पंचभ्रमण का नाश किया।।
‘गज’ चिन्ह से जाने जाते वे, मुझको भी पंचमगति देवें।
सब रोग शोक से प्रगट हुए, भव दु:खों को झट हर लेवे।।६।।
हे अजितनाथ! बाधा विरहित, शिव सौख्य प्रदान करो मुझको।
प्रभु! पूर्णज्ञान साम्राज्य श्री, मेरी तुरन्त देवो मुझको।।
हे नाथ नमोस्तु है तुमको, हे अजित! अजय पद को दीजे।
भगवन्! मुझको श्री ‘‘ज्ञानमती’’ सुखसिद्धि समृद्धि भी कीजे।।७।।