फलं ध्यानाश्चतुर्थस्य षष्ठस्योद्यानमात्रत:। अष्टमस्य तदारम्भे गमने दशमस्य तु।।१७८।।
द्वादशस्य तत: किंचिन्मध्ये पक्षोपवासजम्। फलं मासोपवासस्य लभते चैत्यदर्शनात्।।१७९।।
चैत्यङ्गणं समासाद्य याति षाण्मासिकं फलम्। फलं वर्षोपवासस्य प्रविश्य द्वारमश्नुते।।१८०।।
फलं प्रदक्षिणीकृत्य भुंक्ते वर्षशतस्य तु। दृष्ट्वा जिनास्यमाप्नोति फलं वर्षसहस्रजम्।।१८१।।
अनन्तफलमाप्नोति स्तुतिं कुर्वन् स्वभावत:। न हि भक्तेर्जिनेन्द्राणां विद्यते परमुत्तमम्।।१८२।।
जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा के दर्शन की भावना करते ही दो उपवास का फल मिल जाता है। चलने की अभिलाषा करते ही तीन उपवास का फल, चलने का आरंभ करते ही चार उपवास का फल, चलते-चलते पाँच उपवास का फल, कुछ दूर चले जाने पर बारह उपवास का फल, बीच मार्ग में पहुँच जाने पर पन्द्रह उपवास का फल, मंदिर के शिखर का दर्शन करते ही एक मास के उपवास का फल, मंदिर में प्रवेश करने पर छह मास के उपवास का फल, मंदिर के द्वार में प्रवेश करने पर एक वर्ष के उपवास का फल, तीन प्रदक्षिणा देने पर सौ वर्ष के उपवास का फल, जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा के दर्शन करने से हजार वर्ष के उपवास का फल मिलता है। पुन: जिनप्रतिमा के सन्मुख खड़े होकर भावपूर्वक स्तुति करने से अनंत उपवास का फल प्राप्त होता है। यथार्थ में जिनेन्द्र भगवान की भक्ति से बढ़कर और कोई उत्तम पुण्य नहीं है।
-पद्मपुराण, पर्व ३२, पृ. ९९