‘शरीरस्थितिहेतुमार्गणार्थं परकुलाभ्युपगच्छतो भिक्षोर्दुष्टजनाक्रोशप्रहस—नावज्ञा ताडनशरीरव्यापादनादीनां सन्निधानेकालुष्यानुत्पत्ति:क्षमा।’
शरीर की स्थिति का हेतु जो आहार उसके खोजने के लिये अर्थात् आहार के लिये निकले हुये साधु परघरों में जा रहे हैं उस समय नग्न देखकर दुष्ट जन उन्हें गाली देते हैं, उपहास करते हैं, तिरस्कार करते हैं, मारते—पीटते हैं और शरीर को पीड़ित करते हैं, नष्ट करते हैं तो भी उस किसी प्रसंग में अपने परिणामों में कलुषता की उत्पत्ति न होना क्षमा है। इस प्रकार से साधु तो पूर्णरूप से क्षमा धर्म का पालन करते हैं किन्तु श्रावक भी एकदेशरूप से इन क्षमा आदि धर्मों का पालन करते हैं। ये धर्म तो सभी सम्प्रदायों में मान्य हैं किसी भी सम्प्रदाय वालों को इनमें विवाद नहीं है। आचार्यों ने क्रोध को अग्नि की उपमा दी है उसे शांत करने के लिये क्षमा जल ही समर्थ है। जैसे जल का स्वभाव शीतल है वैसे ही आत्मा का स्वभाव शांति है। जैसे अग्नि से संतप्त हुआ जल भी जला देता है वैसे ही क्रोध से संतप्त हुई आत्मा के धर्मरूपी सार जलकर खाक हो जाता है। क्रोध से अंधा हुआ मनुष्य पहले अपने आपको जला लेता है पश्चात् दूसरों को जला सके या नहीं भी। क्षमा के लिये बहुत उदार हृदय चाहिये, चंदन घिसने पर सुगन्धि देता है, काटने वाले कुठार को भी सुगन्धित करता है और गन्ना पिलने पर रस देता है। उसी प्रकार से सज्जन भी घिसने—पिलने से ही चमकते हैं। देखो! अग्निमय स्थान टिकता नहीं है, खाक हो जाता है किन्तु जलमय स्थान टिके रहते हैं तभी तो असंख्यातों समुद्र और नदियाँ जहाँ की तहाँ स्थिर हैं। कषायों की वासना काल को समझकर हमेशा अपने अंतरंग का शोधन करते रहना चाहिये। अनंतानुबंधी कषाय अनंत संसार का कारण है। यह मिथ्यात्व की सहचारिणी है इसका काल संख्यात, असंख्यात और अनंत भव है। भव—भव में बैर को बाँधते चले जाना भी इसी का काम है, अप्रत्याख्यानावरण कषाय एक देशव्रत को भी नहीं होने देती है। इसका वासना काल अधिक से अधिक छह महीना है। सम्यग्दृष्टि को अधिक से अधिक इतनी वासना रह सकती है। प्रत्याख्यानावरण महाव्रत नहीं होने देता है, इसका वासना काल पन्द्रह दिवस का है। व्रती श्रावकों में अधिक से अधिक इतने दिन तक बैर के संस्कार रह सकते हैं। संज्वलन की वासना का अंतर्मुहूर्त मात्र काल है इसलिये साधु यदि किसी पर क्रोध भी करते हैं तो भी अंतर्मुहूर्त के बाद उसके प्रति दया और क्षमा का भाव जाग्रत हो जाता है। ‘जो क्षमादेवी की उपासना करके हमेशा सभी कुछ सहन कर लेता है वह उपसर्गों और परीषहों को जीतकर पार्श्वनाथ तीर्थंकर के सदृश महान् हो जाता है। क्या क्रोध से शांति हो सकती है ? क्या बैर से बैर का नाश हो सकता है ? क्या खून से रंगा हुआ वस्त्र खून से ही साफ हो सकता है ? यदि अपकार करने वाले के प्रति तुझे क्रोध आता है तो फिर तू क्रोध पर ही क्रोध क्यों नहीं करता है ? क्योंकि यह क्रोध तो तेरे दोनों लोकों का विनाश करने वाला महाशत्रु है। पांडव, गजकुमार आदि महामुनि अपने प्राणों का घात करने वाले महाशत्रुओं को भी क्षमा करके ‘सर्वंसह’ सिद्ध हो गये हैं उनको मेरा नमस्कार होवे। द्रव्य और भाव इन दो प्रकार के क्रोध को मैं अपने आत्मिंचतन के बल से भेदन करके उत्तम क्षमा से युक्त अपने ज्ञान और सौख्य को निश्चितरूप से प्राप्त करूँगा। १ से ५।। हमेशा ऐसी भावना भाते रहना चाहिये।