पर्यावरण, दो शब्दों –परि = चारो ओर एवं आवरण = ढंका हुआ, से मिलकर बना है” साधारण भाषा में हम कह सकते है कि हमारे आसपास या चारो ओर द्रश्य एवं अद्रश्य वातावरण, जीव व अजीव पदार्थो की मौजूदगी और उनमे आपसी संबंध ही हमारा पर्यावरण है” पृथ्वी पर पर्यावरण अनन्तकाल से विद्यमान है” इसे वैज्ञानिकों व धर्मगुरुओं ने समझने एवम् समझाने का प्रयास किया है व मान्यताओं के अनुसार इसकी विवेचना की है” प्रस्तुत आलेख में पर्यावरण के विभिन्न पहलुओं एवं महत्व को जैन मतानुसार एवं पर्यावरण विज्ञान की द्रष्टि से एक तुलनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है”
जैनदर्शन
जैनाचार्यों के अनुसार वर्तमान में हम जैनधर्म के २४वें तीर्थंकर श्री १००८ तीर्थंकर महावीरजी के जिनशासन के आधीन हैं एवं समवशरण में खिरी दिव्य ध्वनि द्वारा सभी जीवों को दिए हितोपदेश का सभी अनुसरण कर रहे हैं ” इसे जिनवाणी या द्वादशांग वाणी कहा जाता है ” इस द्वादशांग वाणी को लिपिबद्ध करने का कार्य ईसा की प्रथम व द्वितीय शताब्दी में जैनधर्म के महान आचार्यों १०८ आचार्य श्री कुन्द्कुंद स्वामी व १०८ आचार्य श्री उमास्वामी द्वारा ग्रंथों में किया गया ” महावीर के सिद्धांतों में जियो और जीने दो, अहिंसा परमोधर्म: एवं अपरिग्रह प्रमुख हैं, जो यह दर्शाते हैं कि जैनधर्म में पर्यावरण को बहुत महत्व दिया गया है एवं इसे विस्तारपूर्वक समझाया गया है” साथ ही पर्यावरण संरक्षण के विषय में काफी लिखा गया है ” पूज्य १०८ आचार्य श्री उमास्वामी द्वारा द्वादशांग वाणी को छोटे छोटे सूत्रों में रचकर लोगों के सामने “तत्त्वार्थ सूत्र” नामक ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत किया है ” यह जैन साहित्य का आद्य ग्रन्थ है व जैनदर्शन का आधार स्तम्भ है ” जैन परंपरा में इसका वही महत्व है जैसा हिन्दुओं में गीता का, ईसाईयों में बाइबिल का और मुसलामानों में कुरान का है ” इस ग्रंथराज में जैनधर्म के चारों अनुयोगों में से प्रथामानुयोग (इतिहास) के अतिरिक्त करणानुयोंग (भूगोल, खगोल, गणित), चरणानुयोग (चारित्राचार) व द्रव्यानुयोग (वास्तुवाद) का बड़ा ही सुन्दर वर्णन है” इसके कुल १० अध्यायों में तीनों अनुयोगों का सूत्र रूप में इतना विशद वर्णन करके आचार्यश्री ने गागर में सागर के कहावत को पूर्ण रूपेण चरितार्थ कर दिखाया है” यहाँ पर मै ग्रंथराज तत्त्वार्थ सूत्र से पर्यावरण के संबंध में कुछ उद्धरण दे रहा हूँ” आचार्यश्री ने जीवों की चर्चा करते हुए अध्याय ५ के सूत्र २१ में कहा है – “परस्परोपग्रहो जीवानाम” अर्थात् सभी जीव आपसी सामंजस्य अनुसार आपस में एक दूसरे पर आधारित है एवं एक दूसरे पर उपकार करते है” इस प्रकार संसार में जीवों में अनेक प्रकार के संबंध देखे जाते हें” एक जीव दूसरे जीव को सुख-दुःख भी देता है व जीवन मरण में भी सहायक होता है” इस प्रकार यहाँ जैविक श्रंखला के सिद्धांत को प्रतिपादित किया, जिसमे अजीवों का भी योगदान है”
अध्याय १ के सूत्र क्रमांक ४ –“जीवाजीवास्रव-बंध-संवर-निर्जरा मोक्षास्तत्त्वम” में आचार्यश्री ने पर्यावरण के ७ तत्वों का वर्णन किया है यानी जीव,अजीव,आस्रव,बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्व प्रयोजनभूत हैं” इन सात तत्वों में से प्रथम दो तत्त्व “जीव व अजीव” द्रव्य हैं तथा शेष ५ इनकी संयोगी तथा विशेष अवस्थाएं हैं” इनकी व्याख्या निम्नानुसार है- जीव- जिसका लक्षण चेतना है, वह जीव है” इसी कारण जीव अन्य द्रव्यों से ब्याव्रत्त होता है” अजीव- जिनमें चेतना नहीं पायी जाती ऐसे पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये ५ अजीव हैं” जीव और अजीव के परस्पर में बद्ध होने का नाम ही संसार है” सात तत्वों के होने पर भी इस सूत्र के अंत में “तत्वं” ऐसा एक वचन सूचक शब्द प्रयोग किया गया है, जो यह सूचित करता है कि इन सैट तत्वों का ज्ञान करके, भेद पर से लक्ष हटाकर, जीव के ध्रुव-सहज ज्ञान स्वभाव का आश्रय करने से जीव शुद्धता प्रगट कर सकता है” आगे के सूत्रों में तत्वों को जानने के उपाय बताये हैं”
अध्याय २– में जीवों की विस्तृत चर्चा की गई है” इसमें जीव तत्व के असाधारण भाव, लक्षण, इन्द्रियां, योनि, जन्म तथा शारीरादिक व वर्गीकरण का वर्णन है” सूत्र ८ से १६ तक में जीवों के विभिन्न रूपों को बताया है” सूत्र ८ – “उपभोगो लक्ष्मणं” यानी जीव का लक्षण उपयोग है” यह सभी जीवों में पाया जाता है, अन्य द्रव्यों में नहीं” चैतन्य गुण के साथ संबंध रखने वाले जीव के परिणाम को उपयोग कहते हैं” जैसे – वनस्पतियों द्वारा प्रकाश-संश्लेषण विधि द्वारा अन्य पदार्थों का उपयोग कर भोजन निर्माण करना” इस भोज्य पदार्थ का उपयोग अन्य जीवों द्वारा करना” इस प्रकार जीवों के गुण व लक्षण पर्यावर्णीय-तंत्र का निर्माण करते हैं” सूत्र १० में जीव के ०२ प्रकार – संसारी और मुक्त बताये हैं” सूत्र ११ में संसारी जीव को मन की अपेक्षा से सैनी (समनस्क) और असैनी (अमनस्क) दो प्रकार के बताये हैं” सूत्र १२ में संसारी जीवों के अन्य प्रकार से दो श्रेणी में बताये हैं- संसारिणस्रस: स्थावरा:” यानी संसारी जीव त्रस और स्थावर के भेद से ०२ प्रकार के हैं” उच्च जीवों जिनकी इन्द्रियां ०२ से ०५ हैं, को त्रस की श्रेणी में रखा व एकेंद्रिय जीवों को स्थावर कहा है” आगे निवास स्थान की अपेक्षा से जीवों को ०५ श्रेणियों – प्रथ्विकायिक, जल- कायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक में विभक्त किया है” सूत्र १४ से २३ तक में जीवों का वर्गीकरण संवेदी इन्द्रियों के आधार पर एकेंद्रिय, द्वि, त्रि, चतु: एवं पंचेन्द्रिय में किया गया है” सूत्र २५ – २६ में जीवों की गतियाँ, गमन, समय एवं अन्य क्षेत्रों से संबंध के विषय में बताया गया है” सूत्र ३१ से ३३ में जीवों की व्याख्या गर्भ-धारण व जन्म के आधार पर प्रस्तुत की गई है” सूत्र ३६ से ४० तक में जीवों के शरीर की बनावट व रचना को समझाया गया है” आगे शरीर व आत्मा के विषय में सविस्तार चर्चा की गई है (जिसकी विज्ञान में कोई चर्चा ही नहीं है)” अध्याय ३ व ४ में कहा गया है कि जीवों का निवास तीनों लोकों में है, यानी ब्रम्हांड तीन लोकों – अधोलोक, मध्यलोक व उर्ध्वलोक, को मिलाकर बना है” इन्ही तीनों लोकों के जीवों एवं पर्यावरण के संबंधों की चर्चा की गयी है”
अध्याय ३ में दो लोकों का व अध्याय ४में उर्ध्वलोक (देवलोक) का वर्णन किया गया है” इसमें जीव तत्व के रहने के स्थान व आधार के अनुसार सात नरक प्रथ्वियाँ अधोलोक में बतायी हैं” जिनका वर्णन सूत्र के माध्यम से इस प्रकार है – रत्नशर्कराबालुकापंकधूमतमो महातम: प्रभाभूमयो घनाम्बुबावाकाश प्रतिष्ठा: सप्ता: अधोअध: यानि अधोलोक में रत्नप्रभा, शर्करा(कंकड़)प्रभा, बालुकप्रभा, पंक(कीचड)प्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा और महातम:प्रभा ये सात प्रथ्वियाँ हैं” ये क्रम से एक दूसरे के नीचे-नीचे हैं” ये भूमियाँ घनोदधिवातवालय के आधार हैं, घनोदधिवातवालय घनवातवलय के आधार हैं” घनवातवलय तनुवातवलय के आधार हैं और तनुवातवलय आकाश के आधार हैं, तथा आकाश अपने ही आधार हैं” क्योंकि आकाश सबसे बड़ा और अनंत है”घनोदधि का रंग मूंग के समान और घनवात का गोमूत्र के समान है” यह लोक सभी ओर तीन वातवलयों से घिरा है” अन्य सूत्रों में विस्तार से लोकों व क्षेत्रों की रचनाओं का वर्णन दिया गया है” सूत्र क्र, ३५ में मनुष्य क्षेत्र की व्याख्या इस प्रकार है-“प्राड. मानुषोत्तरान्मनुष्या:” यानी मानुषोत्तर पर्वत के पहिले तक ही मनुष्य हैं” इसके आगे रिद्धिधारी मुनि और विद्याधर भी नहीं जा सकते” जम्बूद्वीप धातकी खंड और पुष्करार्ध द्वीप तथा इनके मध्य में पड़ने वाले लवणोंदधि समुद्र और कालोदधि समुद्र, इतना सब क्षेत्र मनुष्यलोक कहलाता है” मनुष्य इसी लोक में पाए जाते हैं, इसके बाहर नहीं” अढाई द्वीप में १५ कर्मभूमि और ३० भोगभूमि हैं” जम्बुद्वीप में कुल ३४ और २” द्वीप में १७० आर्य खंड हैं मानुषोत्तर पर्वत मनुष्यलोक की सीमा पर स्थित है २ द्वीप के भीतर ३५ क्षेत्रों और दोनों समुद्रों में स्थित अंतर्द्वीपों में मनुष्य उत्पन्न होते हैं परन्तु पाए सर्वत्र जाते हैं” मेरू पर्वत पर भी पहुँच जाते हैं” सूत्र क्रमांक ३६ –“आर्या म्लेच्छाश्च” में – आर्य और म्लेच्छ, दो प्रकार के मनुष्य बताये हैं” आगे मनुष्यों की आयु व कर्म भूमि की व्याख्या की गई है”
अध्याय ५में अजीव तत्व की चर्चा की सविस्तार की गयी है; जबकि पिछले ०४ अध्यायों में जीव तत्व का परिचय कराया” इस अध्याय में अजीव तत्व क्या है, इसका ज्ञान कराया गया है” पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये पांच अजीव तत्व हैं” इन्हें द्रव्य कहा गया है” इनमे से चार द्रव्य आस्तिकाय हैं, जबकि काल द्रव्य कायरूप नहीं है” अत: ०४ द्रव्य ही ऐसे हैं जो अजीव भी हैं और काय भी हैं – अजीवकाया धर्माधर्माकाश-पुद्गला: यह कथनकर द्रव्य, गुण, पर्याय तथा अनेकांत का स्वरुप समझाया है” परिभाषाएं इस प्रकार से हैं- अजीव- जिस द्रव्य में चैतन्य नहीं पाया जाता है” काय – जो बहुप्रदेशी होता है” उतने क्षेत्र-स्थान को जितना एक अणु घेरता है, प्रदेश कहते हैं” धर्म-अधर्म – शब्दों से यहाँ तात्पर्य उन दो जड़-अजीव-चेतना रहित पदार्थों से है जो सर्व लोक में सर्वत्र अखंड एक-एक असंख्यात प्रदेशी, नित्य सदाकाल रहने वाले अपने स्वरुप को कभी न छोड़ने वाले और अरूपी हैं” धर्म द्रव्य गमन-हलन-चलन करने में सहायक होता है” यदि धर्म द्रव्य ना होता तो सब वस्तुएं एक ही स्थान पर स्थिर रहतीं” अधर्म द्रव्य वस्तुओं को ठहराने में सहायक होता है” अन्य किसी दर्शन(धर्म) ने इन द्रव्यों का वर्णन नहीं किया है, जबकि वैज्ञानिक भी ईथर, गुरुत्वाकर्षण-घर्षण रूप में इनकी सत्ता स्वीकार करने लगे हैं” आकाश – समस्त द्रव्यों को स्थान देने में सहायक द्रव्य को आकाश कहते हैं” जो नीला सा पदार्थ ऊपर दिखता है, वह तो पुद्गल वायुकाय है” आकाश तो एक अखंड सर्वव्यापी पदार्थ है, अमूर्त है, लोक-अलोक में सब जगह व्याप्त है” अरूपी है, बिना आकार व रंगरहित है” जो खाली जगह है वह आकाश है” पुद्गल – जिसमें रूप, रस, गंध और स्पर्श गुण पाए जाते हैं” यह परमाणु द्रव्य एक प्रदेशी है, पर उसमें दूसरे परमाणु के साथ मिलने की क्षमता होने से बहुप्रदेशी होने की शक्ति है” अत: इस अपेक्षा से उसे काय कहा जाता है” सूत्र क्र. ६ –”” आ आकाशादेक द्रव्याणि “” अर्थात् धर्म, अधर्म और आकाश – यह तीन द्रव्य एक-एक हैं” जैन सिद्धांत में बतलाया गया है कि जीव द्रव्य अनंतानंत हैं; क्योंकि प्रत्येक जीव स्वतंत्र द्रव्य है” जीवों से अनंत गुणा पुद्गल द्रव्य हैं” काल द्रव्य असंख्यात हैं क्योंकि लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश हैं और एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालाणु स्थिर रहता है” आगे के सूत्र ८ में प्रदेश की व्याख्या इस प्रकार है-“” असंख्येया:प्रदेशा धर्माधर्मेक जीवानाम “” धर्म, अधर्म और एक जीव द्रव्य इनमें से प्रत्येक के असंख्यात- असंख्यात प्रदेश होतें हैं” जितने आकाश को पुद्गल का एक परमाणु रोकता है, उतने क्षेत्र को प्रदेश कहते हैं” धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य तो निष्क्रिय हैं और समस्त लोकाकाश में व्याप्त हैं” अत: लोकाकाश के असंख्यात प्रदेशों में व्याप्त होने से वे दोनों असंख्यात – असंख्यात प्रदेशी हैं” जीव भी उतने ही प्रदेशी हैं; किन्तु उसका स्वभाव सिकुड़ने व् फैलने का है” सूत्र क्र. १२ में ” लोकाकाशे अवगाह: यानी समस्त द्रव्यों का अवगाह लोकाकाश में है तथा उसके बाहर जो आकाश है वह अलोकाकाश है” आगे सूत्र १३ में बताया कि धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य समस्त लोकाकाश में ही व्याप्त हैं” आगे के सूत्रों (१४ से २०) में पुद्गल व जीव के रहने के स्थान व उपकार बताये हैं” सूत्र २१ – परस्परोपग्रहो जीवानाम कहा है अर्थात् जगत के जीवों के परस्पर अनेक प्रकार के सम्बन्ध देखे जाते हैं और वे एक दूसरे पर आश्रित हैं या उपकार करते हैं” यहाँ तक कि जीवन-मरण में भी सहायक होते हैं” इसके साथ सूत्र २२ वर्तना-परिणाम-क्रिया: परत्वापरत्वे च कालस्य मिलाकर पढ़ने से सम्पूर्ण पर्यावरणीय तंत्र की व्याख्या हो जाती है” आगे के सूत्रों में अणु व स्कंध के भेद बताये हैं
अध्याय ६ ठे में जीव और अजीव तत्वों के संयोग से उत्पन्न होने वाले तत्व का निरूपण करते हैं” संसार चक्र के विषय में कहा है – अधिकरणं जीवाजीवा: अर्थात् संसार चक्र जीव और अजीव के सम्बन्ध का फल है” ना अकेला जीव ही कुछ कर सकता है और ना अकेला अजीव ही” आगे इनके भेद बताये हैं”
वैज्ञानिक दृष्टि
विज्ञान में पर्यावरण विज्ञान अत्याधुनिक शाखा है” इसमें विज्ञान की विभिन्न शाखाओं एवं इंजीनियरिंग का समावेश है” इसका विकास विज्ञान व कला की विभिन्न शाखाओं एवं इंजीनियरिंग के अध्ययनों के आधार पर होता गया है” अत: इस विज्ञान में सभी शाखाओं का समावेश है” पर्यावरण को विज्ञान में इस प्रकार परिभाषित किया गया – हम जहां रहतें हैं ओर जो प्राकृतिक वस्तुएं हमें चारों ओर से घेरे हुए हैं, पर्यावरण कहलाता है” आगे कहा गया कि पर्यावरण दो घटकों – जैविक व अजैविक, से मिलकर बना है” इन घटकों में आपसी एवं आंतरिक संबंध होते हैं जो कि भोज्य श्रंखला का निर्माण करते हैं व जाल के रूप में एक दूसरे से गुंथे हुए रहते हैं” इस प्रकार यह पर्यावरण एक तंत्र के रूप में कार्य करता है, जिसे हम पर्यावरण तंत्र कहते हैं” श्रंखला का आरम्भ पौधों से होता है, जिनके द्वारा जमीन से जल व तत्वों का अवशोषण कर सूर्यप्रकाश की उपस्थिति में वातावरण से कार्बन डाई ऑक्साइड के साथ फोटोसिन्थेसिस की क्रिया कर भोजन का निर्माण करते हैं” इसका उपयोग पौधों द्वारा स्वयं भी किया जाता है एवं शाकाहारी जीवों द्वारा किया जाता जो इस पर आश्रित हैं” शाकाहारी जीवों का भक्षण माँसाहारी जीवों द्वारा किया जाता है” जीवन चक्र समाप्त होने पर मृत शरीर का सूक्ष्म जीवों द्वारा विघटन किया जाता है जिससे तत्व जमीन में वापिस मिल जाते हैं एवं गैसेस वायुमंडल में पहुँच जाती है” इस प्रकार यह चक्र चलता रहता है” इसमें ऊर्जा का सन्चार एक दिशा में होता है जबकि तत्वों का चक्रीकरण होता रहता है” इस भोज्य श्रंखला में निचले-निचले स्तर पर उर्जा के दसवें हिस्से की ही प्राप्ति होती है” इस प्रकार उर्जा के संचरण में इसका स्वरुप बदलता है, ना इसका ह्रास होता है और ना ही इसे बनाया जा सकता है” पर्यावरण विज्ञान को इकोलोजी (पारिस्थितिकी विज्ञान) के अंतर्गत सविस्तार समझाया गया है” इकोलोजी, दो ग्रीक शब्दों – ओइकोस घर एवं लोगोस अध्ययन, से मिलकर बना है” इसका शाब्दिक अर्थ हुआ –घर में अध्ययन यानी जीवों का उनके रहने के स्थान में ही अध्ययन” वैज्ञानिक द्रष्टिकोण से जीवों के आपसी सम्बन्ध एवं उनका वातावरण से सम्बन्ध का विस्तार से अध्ययन ही पर्यावरण या पारिस्थितिकी विज्ञान है” ई.सन् १८६६ में जर्मन प्राणीविज्ञानी अर्नस्ट हिकेल द्वारा पारिस्थितिकी विज्ञान का नाम दिया गया” बाद में विज्ञान की अन्य शाखाओं के वैज्ञानिको, जैसे- वनस्पतिशास्त्र, प्राणिशास्त्र, मानवविज्ञान, भूगोल, भूगर्भशास्त्र, रसायनशास्त्र, भौतिकशास्त्र, न्युक्लिएर विज्ञान, माइक्रोबायोलोजी, सामाजिक विज्ञान आदि तथा इंजीनियरिंग क्षेत्र के जुड़ने से इसका विस्तार पर्यावरण विज्ञान एवं इंजीनियरिंग के रूप में हुआ” इस विज्ञान का महत्व दुनिया को यू.एन. की १९७२ में स्टोकहोम में हुई ग्लोबल समिट से समझ में आया” इस विज्ञान की विकास गाथा सिर्फ २९६ वर्षों की है” यदि हम अतीत में इतिहास के पन्ने खोलें तो इसे ४थी शताब्दी के महान फिलोसोफर एरिस्टोटल और उसके विद्यार्थी थिओफ़्रस्तस से जोड़ सकते हैं, जिसने सर्वप्रथम जानवरों का वातावरण से सम्बन्ध विषय पर अध्ययन किया था” इसके बाद इस पर अध्ययन १८वीं एवं १९वीं शताब्दी में किया गया” इसके विकास की गाथा प्रस्तुत सारणी से समझा जा सकता है-
A list of founders, innovators and their significant contributions to ecology, from Romanticism onward. Notable figure Lifespan Major contribution & citation Antoni van Leeuwenhoeke 1632–1723 First to develop concept of food chains Carl Linnaeus 1707–1778 Influential naturalist, inventor of science on the economy of nature[11][13] Alexander Humboldt 1769–1859 First to describe ecological gradient of latitudinal biodiversity increase toward the tropics [14] in 1807 Charles Darwin 1809–1882 Discoverer of evolution by means of natural selection, founder of ecological studies of soils[15] Herbert Spencer 1820–1903 Early founder of social ecology, coined the phrase ‘survival of the fittest'[11][16] Karl Möbius 1825–1908 First to develop concept of ecological community, biocenosis, or living community[17][18][19] Ernst Haeckel 1834–1919 Invented the term ecology, popularized research links between ecology and evolution Victor Hensen 1835–1924 Invented term plankton, developed quantitative and statistical measures of productivity in the seas Eugenius Warming 1841–1924 Early founder of Ecological Plant Geography[5] Ellen Swallow Richards 1842–1911 Pioneer and educator who linked urban ecology to human health[20] Stephen Forbes 1844–1930 Early founder of entomology and ecological concepts in 1887 [8][21] [22] Vito Volterra 1860–1940 Independently pioneered mathematical populations models around the same time as Alfred J. Lotka.[23] [24] Vladimir Vernadsky 1869–1939 Founded the biosphere concept Henry C. Cowles 1869–1939 Pioneering studies and conceptual development in studies of ecological succession[25] Jan Christian Smuts 1870–1950 Coined the term holism in a 1926 book Holism and Evolution.[26] Arthur G. Tansley 1871–1955 First to coin the term ecosystem in 1936 and notable researcher [18] [27] [28] Charles Christopher Adams 1873–1955 Animal ecologist, biogeographer, author of first American book on animal ecology in 1913, founded ecological energetics[29][30] Friedrich Ratzel 1844–1904 German geographer who first coined the term biogeography in 1891. Frederic Clements 1874–1945 Authored the first influential American ecology book in 1905[31] Victor Ernest Shelford 1877–1968 Founded physiological ecology, pioneered food-web and biome concepts, founded The Nature Conservancy[32] [33] Alfred J. Lotka 1880–1949 First to pioneer mathematical populations models explaining trophic (predator-prey) interactions using logistic equation[34] Henry Gleason 1882–1975 Early ecology pioneer, quantitative theorist, author, and founder of the individualistic concept of ecology[31][35] Charles S. Elton 1900–1991 ‘Father’ of animal ecology, pioneered food-web & niche concepts and authored influential Animal Ecology text[32][36] G. Evelyn Hutchinson 1903–1991 Limnologist and conceptually advanced the niche concept[37][38][39] Eugene P. Odum 1913–2002 Co-founder of ecosystem ecology and ecological thermodynamic concepts[28][32][40][41] Howard T. Odum 1924–2002 Co-founder of ecosystem ecology and ecological thermodynamic concepts[28][32][40][41][42][43] Robert MacArthur 1930–1972 Co-founder on Theory of Island Biogeography and innovator of ecological statistical methods[44]
पर्यावरण तंत्र के आगे पारिस्थितिकी विज्ञान की विकास यात्रा इस प्रकार है – पर्यावरण संरक्षण एवं पर्यावरणीय आंदोलन पर्यावरणविदों और अन्य संरक्षणवादीओं व अन्य वैज्ञानिक विधाओं, जैसे – क्लाईमेटोलोजी, भूगर्भशास्त्र, भौतिकी आदि ने इकोलोजी के महत्व को स्वीकार कर एवं अपना योगदान देकर इसे आगे बढाने में बहुत मदद की, और राजनीतिज्ञों को अपनी बात मनवाने के लिए आन्दोलन भी किये”
पर्यावरण क़ानून
सन् १९६९ में यू.एस.ए. में बनी “नेपा” पॉलिसी ने पारिस्तिथिकी के महत्व को कानूनी मान्यता देने में अहम् भूमिका निभाई” आगे जाकर प्रत्येक देश ने पर्यावरण क़ानून बनाए” पारिस्थितिकी विज्ञान एवं ग्लोबल पालिसी सन् १९७१ में यूनेस्को द्वारा मेंन एंड बायोस्फियर नाम से शोध प्रोग्राम शुरू करने के साथ ही पारिस्थितिकी विज्ञान विश्व राजनीति का एक अहम् हिस्सा बन गई” इसका प्रमुख उद्देश्य मानव एवं प्रकृति के आपसी संबंधों के विषय में शोध करना था” कुछ वर्ष बाद इस प्रोग्राम द्वारा बायोस्फियर रिजर्व नाम का कांसेप्ट निकला ” ५ जून १९७२ को विश्व संस्था यूनाईटेड नेशन्स द्वारा स्टोकहोम में मानव पर्यावरण पर अन्तर्राष्ट्रीय कान्फेरेंस आयोजित की गई, जिसमें सभी देशों से आये विशेषज्ञों व राजनीतिज्ञों ने पर्यावरण संकट से निपटने के लिए अपने- अपने विचार रखे ” यहीं से “थिंक ग्लोबली एक्ट ग्लोबली” का मुहावरा प्रचलन में आया” आगे चलकर “बायोलोजिकल बायोडाईवार्सिटी” का कांसेप्ट आया” बाद में सन् १९९२ में “प्रथ्वी सम्मेलन” का आयोजन किया गया” इस तरह इसका ग्लोबलाइजेशन हुआ” सन् १९९७ में क्योटो प्रोटोकोल में ग्रीनहाउस गैसेस पर चिंता व्यक्त की गई, जो क्लाइमेट चेंज के रूप में विश्व-विख्यात है”
विश्लेष्णात्मक विवेचना
उपर्युक्त कथनों से यह स्पष्ट है कि जैनधर्म में पर्यावरण को सम्पूर्णता के साथ वीर सं. के अनुसार २५३९ वर्ष पूर्व यानी ईस्वी शताब्दी से भी ५५७ वर्ष पूर्व श्री १००८ तीर्थंकर महावीर की द्वादशांग वाणी द्वारा लोंगों को समझाया गया था, जिसे जैन अनुयायियों द्वारा शब्दशः पालन किया गया व विश्व को पर्यावरण संरक्षण का सन्देश दिया” पुरानी पीढ़ियों द्वारा पर्यावरण को प्रकृति की भेंट मानकर व अहिंसा एवं अपरिग्रह का पालन करते हुए पीढी-दर-पीढी पर्यावरण को संरक्षित रखा” जेनधर्म में वनस्पतियों को एकेन्द्रिय कहा गया व जल, वायु एवं मृदा में जीवों का वास बताया और इस प्रकार उन्हें भी जीवित तंत्र बताया” साथ ही अहिंसा को परिभाषित किया, जिससे लोगों में जीवों की रक्षा का भाव जागृत होने से पर्यावरण संरक्षण होता रहा” जैनधर्म के नियम व सिद्धांत “उपचार की अपेक्षा रोकथाम” की उक्ति को चरितार्थ करते हैं” इनके पालने से आज भी विश्व में पर्यावरण ह्रास को रोका जा सकता है; क्योंकि ये आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने पूर्व में थे” इसका नवीनतम उदाहरण महात्मा गाँधी द्वारा अहिंसात्मक तरीके से भारत को आज़ादी दिलाना है” गाँधीजी ने अहिंसा को अपने जीवन में उतारा और प्रेक्टिस की” गांधियन विचारधारा भी इसी का परिणाम है जो कि संयुक्तराष्ट्र द्वारा भी मान्य की गई” अतीत में भारत देश “सोने की चिड़िया” के नाम से जाना जाता था; चूँकि यहाँ सभी प्रकार की समृद्धि व विविधताएँ, जैसे –जलवायु, सांस्क्रतिक, भाषाएँ, खानपान, भाईचारा, रीतिरिवाज आदि मौजूद थीं” प्राकृतिक संसाधन भी भरपूर थे चूँकि इनका दोहन बहुत सोच-समझकर एवं अहिंसक तरीके से किया जाता रहा” उदाहरण स्वरुप – जल छानकर लेना और जीवाणी स्रोत में डालना ताकि जीवाणुओं का प्राकृतिक संतुलन (होमिओस्टेसिस) बना रहे, जल के शुद्धिकरण की प्रक्रिया में कमी न हो व जल की शुद्धता कायम रहे” इस प्रकार अहिंसा एवं अपरिग्रह के पालन से वनस्पतियों एवं सभी जीवों की रक्षा होती रही” परन्तु विदेशी आक्रमणों के बाद उनके शासनकाल में पाश्चात्य संस्कृति की विचारधारा के हावी होने की वजह से यहाँ भी अन्य देशों की तरह प्राकृतिक संसाधनों का अति दोहन शुरू हो गया” नतीजा पर्यावरण का तेजी से ह्रास एवं पाश्चात्य देशों की तरह ही पर्यावरण प्रदूषण की समस्याएँ; चूँकि पाश्चात्य देशों की विचारधारा में प्रकृति को ठीक से नहीं समझा गया” साथ ही पर्यावरण के सम्बन्ध में अभी तक जितना शोध हुआ है, उससे भी पर्यावरण के विषय में ज्ञान अपूर्ण है” अंत में इतना कहना चाहूँगा कि जैनधर्म द्वारा प्रतिपादित अहिंसा एवं अपरिग्रह के सिद्धांतों का पालन कर हम अभी भी पर्यावरण को सुरक्षित कर सकते हैं”
सन्दर्भ
1. तत्त्वार्थ सूत्र – आचार्य उमास्वामी २. मोक्षशास्त्र अर्थात् तत्त्वार्थ सूत्र – टीका रामजी मानकचंद दोशी ३. तत्त्वार्थवृत्ति: –श्रुतसागरसूरि विरचित, सम्पादन-अनुवाद प्रो. महेंद्रकुमार जैन, न्यायाचार्य ४. तत्त्वार्थ सूत्र (मोक्षशास्त्र) –टीकाकार बाल ब्र. प्रद्युम्न कुमार ५. तत्त्वार्थवार्तिक (राजवार्तिक) –भट्ट अकलंकदेव सम्पादन-अनुवाद प्रो. महेंद्रकुमार जैन, न्यायाचार्य (भाग १ व २) ६. सर्वार्थसिद्धि –आचार्य पूज्यपाद ७. विकिपीडिया