अर्थ — सत्य धर्म, दयाधर्म का कारण है, दोषों को दूर करने वाला है, इस लोक और परलोक में सुख को देने वाला है। लोक में सत्यवचन की किसी से तुलना नहीं की जा सकती, इसे विश्वास के साथ बोलना चाहिए। सत्यधर्म सर्वधर्मों में प्रधान है, सत्य पृथ्वी तल पर सबसे श्रेष्ठ विधान है। सत्य, संसार समुद्र को पार करने के लिए पुल के समान है और यह सब जीवों के मन को सुख देने वाला है। इस सत्य से ही मनुष्य जन्म शोभित होता है, सत्य से ही पुण्यकर्म बँधता है, सत्य से ही सम्पूर्ण गुणों का समूह महानता को प्राप्त हो जाता है और सत्य से ही देवगण सेवा करते हैं। सत्य से अणुव्रत और महाव्रत होते हैं, सत्य से आपत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं। नित्य ही हित—मित वचन बोलना चाहिए, पर को दु:खदायी ऐसे वचन कभी नहीं बोलना चाहिए। हे भव्य! दूसरों को बाधा—पीड़ा करने वाले वचन कभी मत बोलो, यदि वह वचन सत्य भी हो तो भी गर्वरहित हो उसे छोड़ दो। क्योंकि सत्य ही एक मात्र परमात्मा है, वह भवरूपी अंधकार को दलन करने के लिए सूर्य के समान है अत: उस सत्य की नित्य ही भावना करो। मुनि वचनगुप्ति का निरोध करते हैं, वह क्षणमात्र में संसार के दु:खों का अंत कर देती है। सत्य धर्म के फल से मनुष्य केवलज्ञान को प्राप्त कर लेता है। इसलिए हे भव्य! तुम सत्य धर्म का पालन करो और इस भव में झूठ वचन कभी मत बोलो।
संस्कृत की पंक्तियों में देखें सत्य धर्म की व्याख्या
सत् सम्यक् च प्रशस्तं स्यात् सत्यं पीयूषभृद् वच:।। मिथ्यापलापवं वाक्यं धर्मशून्यं सदा त्यज।।१।।
सत् अर्थात् प्रशस्तजनों में अच्छे वचन बोलना सत्य है। सत् अर्थात् समीचीन और प्रशस्त वचन सत्य कहलाते हैं। ये वचन अमृत से भरे हुये हैं। मिथ्या अपलाप करने वाले और धर्मशून्य वचन सदा छोड़ो। र्गिहत, निदित, हिंसा, चुगली, अप्रिय, कठोर, गाली—गलौज, क्रोध, बैर आदि के वचन, सावद्य के वचन और आगम विरुद्ध वचन इन सबको छोड़ो। देखो! श्रीवंदक नाम बौद्ध मंत्री असत्य वचनों के द्वारा क्षणमात्र में आँखों से अंधा हो गया, वसु राजा भी असत्य के पक्ष से सातवें नरक में चला गया। सत्य, प्रिय, हितकर और सुन्दर वचन सर्वसिद्धि को देने वाले हैं। इस लोक में विश्वासघात के समान महापाप कोई नहीं है। हे आत्मन्! अपने से भिन्न परद्रव्य को अपना मत बनाओ और अपने में अपने को अच्छी तरह से ध्याकर अपनी आत्मा के आह्लादमय सुख को प्राप्त करो।।१ से ५।। ऐसी भावना सतत भाते रहना चाहिये। असत्य के चार भेद हैं—स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से जो वस्तु सत्रूप है उसका निषेध करना प्रथम असत्य है। जैसे सुमेरु आदि हैं उनको न मानना। पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से वस्तु अविद्यमान है, उसको विद्यमान कहना दूसरा असत्य हैं, जैसे यहाँ घड़ा नहीं है कह दो ‘यहाँ घड़ा है’। अपने स्वरूप से विद्यमान भी पदार्थ अन्य स्वरूप से कहना वह तीसरा असत्य है। जैसे बैल को घोड़ा कहना। चतुर्थ असत्य के ,गर्हित साहितवद्य और अप्रिय ये तीन भेद हैं। पैशून्य, चुगली युक्त कठोर, असमंजस प्रलापपूर्ण और शास्त्र विरुद्ध वचन है। इन सबको गर्हित कहते हैं। छेदने, भेदने, मारने, शोषणे अथवा व्यापार चोरी आदि के वचन सावद्य—पापयुक्त वचन हैं, क्योंकि ये प्राणी हिंसा आदि पाप में प्रवृत्ति कराते हैं। दूसरे को अप्रीति करने वाले, भय करने वाले, खेद करने वाले, बैर, शोक, कलह करने वाले तथा जो और भी संताप को करने वाले हों वे अब अप्रिय वचन हैं।
श्रीवंदक की कथा
कनकपुर के राजा धनदत्त का श्रीवंदक मंत्री बौद्ध था। किसी दिन राजमहल की छत पर राजा और मंत्री बैठे थे, आकाश मार्ग से दो चारण मुनि जाते हुये दिखे। राजा ने विनय से उनका आह्वान किया जिससे वे उनकी छत पर उतरे। राजा ने उन्हें उच्च आसन पर विराजमान करके नमस्कार आदि करके उपदेश के लिये प्रार्थना की। उपदेश के बाद प्रभावित होकर श्रीवंदक ने सम्यक्त्व के साथ श्रावक के व्रत ग्रहण कर लिये। दूसरे दिन श्रीवंदक अपने बौद्ध गुरु की वंदना करने नहीं गया तब गुरु ने उसे बुलाया। उसने वहाँ जाकर नमस्कार न करके अपने व्रत ग्रहण का सर्व समाचार सुना दिया। बौद्ध गुरु ने पुन: उसे खूब समझा कर वह धर्म छुड़ा दिया और बोला कि ये लोग इंद्रजालिया हैं, कहीं कोई साधु आकाश में चल सकते हैं ? दूसरे दिन राजसभा में राजा ने आकाशगामी मुनियों की सारी कथा सुनाई और श्रीवंदक से कहा कि आपने भी जो कल आँखों से दिगंबर मुनियों का प्रभाव देखा है सो कहिये। श्रीवंदक ने असत्य बोल दिया और कहा मैंने कुछ भी नहीं देखा है। उसी समय उसकी दोनों आँखें मुनि निंदा के पाप से पूâट गर्इं। उस समय सभी ने मंत्री के असत्य भाषण की निन्दा करके जैनधर्म की खूब प्रशंसा की। ऐसे ही वसुराजा द्वारा पर्वत का पक्ष रखते हुए, ‘अजैर्यष्टव्यं’ में यही सत्य है ऐसा असत्य का पक्ष लेने से बकरों से होम करने की निद्य प्रथा पड़ गई है।
राजा वसु की कथा
स्वस्तिकावती नगरी के राजा विश्वावसु के एक पुत्र था उसका नाम वसु था। वहीं क्षीरकदंब उपाध्याय रहते थे। वे चरित्रवान और सरल स्वभावी थे, जिनदेव के परमभक्त थे, शांतिविधान, हवन अनुष्ठान आदि के द्वारा गृहस्थों के लिए शांति सुख हेतु अनुष्ठान कराते रहते थे। उनकी स्त्री का नाम स्वस्तिमती था। उनके एक पुत्र था उसका नाम पर्वत था। पिता उपाध्याय जितने सरल और बुद्धिमान थे यह पुत्र उतना ही कुटिल और मूर्ख था। जैन धर्म का अनुयायी एक नारद नाम का बालक था जो बहुत ही कुशाग्रबुद्धि था। राजपुत्र वसु, नारद और गुरुपुत्र पर्वत तीनों ही उपाध्याय क्षीरकदंब के पास पढ़ते थे। एक दिन की बात है कि वसु से कोई ऐसा अपराध बन गया, जिससे उपाध्याय ने उसे बहुत मारा। उस समय स्वस्तिमती ने बीच में पड़कर उसे बचा लिया। वसु ने समय पाकर अपनी गुरुमाता से कहा—मात: ! तुमने मुझे बचाया है इससे मैं बहुत ही उपकृत हुआ हूँ। कहो तुम्हें क्या चाहिए सो मैं देने को तैयार हूँ। स्वस्तिमती ने कहा—पुत्र! इस समय तो मुझे कुछ आवश्यकता नहीं है, पर जब होगी तब माँगूंगी। तू मेरे इस वर को अभी अपने पास रख। एक दिन उपाध्याय क्षीरकदंब अपने तीनों शिष्यों को वन के एक पवित्र प्रदेश में विद्या अध्ययन करा रहे थें वहीं निकट में दो महामुनि स्वाध्याय कर रहे थे। तभी शिष्य ने दिव्यज्ञानी महामुनि—गुरु से कहा प्रभो! देखो, यह उपाध्याय अपने शिष्यों को कितना अच्छा पढ़ा रहा है। तभी गुरु ने कहा—वत्स! इनमें से उपाध्याय और उनका एक शिष्य ये दो तो स्वर्ग जायेंगे और राजपुत्र व गुरुपुत्र दोनों नरक जायेंगे। दिव्यज्ञानी मुनि के वचन उपाध्याय क्षीरकदंब ने सुन लिये। अपने शिष्यों को बिना कुछ बताये ही वे उन्हें घर भेजकर आप मुनि के पास दीक्षित हो गये। कालांतर में राजकुमार वसु अपने पिता के दीक्षित हो जाने पर राजा बना। वह भी न्यायपूर्वक राज्य संचालन करता था। उसने अपने सिंहासन के नीचे के पाये स्फटिक मणि के बनवा रखे थे।
जिससे देखने वाले सभी लोग यही समझते थे कि राजा का सिंहासन अधर है। उसके पुण्य से जनता में भी यही प्रसिद्धि हो गई थी कि राजा बहुत ही सत्यवादी है इसलिए सत्य के बल से राजा का सिंहासन आकाश में अधर टिका हुआ है। इधर क्षीरकदंब के दीक्षित हो जाने पर पर्वत को पिता का उपाध्याय पद मिल गया और वह बालकों को धर्माध्ययन कराने लगा। नारद भी गुरु से ज्ञान प्राप्त कर उनकी दीक्षा के बाद अन्यत्र चले गऐ थे। एक समय वह नारद अपने सहपाठी गुरुपुत्र पर्वत से मिलने आ गये। उस समय पर्वत अपने शिष्यों को पढ़ा रहा था। एक सूत्र वाक्य का अर्थ उसने समझाया ‘‘अजैर्यष्टव्यम्’’ इसका अर्थ है अज अर्थात् बकरों से हवन करना चाहिए। उसमें बाधा देकर नारद ने कहा—नहीं, इस श्रुतिवाक्य का ऐसा अर्थ नहीं है। गुरुजी ने जो हम और आपको इसका अर्थ ऐसा बतलाया था कि ‘‘अजैस्त्रिर्वािषवैर्धान्यैर्यष्टव्यम्’’अज अर्थात् तीन वर्ष पुराने धान्य से हवन करना चाहिए। इस पर पापी पर्वत ने दुराग्रहवश हो कहा—नहीं, तुम्हारा अर्थ गलत है, असल में ‘‘अज’’ का अर्थ बकरा ही है। यह विवाद अधिक बढ़ गया तब कुछ समाज के प्रतिष्ठित जनों ने राजा वसु की सभा में इसका निर्णय रखा। पर्वत ने घर आकर माँ से सारा हाल कह सुनाया। माता ने पर्वत को बहुत ही फटकारा और कहा—पापी! तूने इस श्रुति का उल्टा अर्थ कर दिया है। मुझे भी मालूम है कि तेरे पिता पूर्ण अिंहसा धर्मी थे और वे इसका अर्थ न उगने योग्य पुराने धान ही करते थे। फिर भी पर्वत अपने दुराग्रह से नहीं हटा। तब माता स्वस्तिमती भी पुत्र की रक्षा के मोह में आकर राजा वसु के पास पहुँची और बोली—पुत्र ! तुम्हें याद होगा कि मेरा एक वर तुम्हारे पास धरोहर में है सो आज मैं उसको चाहती हूँ। राजा वसु ने कहा—हाँ, याद है माता, तुम जो चाहो सो माँग लो। तब स्वस्तिमती ने कहा—पर्वत और नारद का किसी सूत्रार्थ पर झगड़ा हो गया है उसके निर्णय के लिए आपको चुना गया है सो आप पर्वत के पक्ष का ही समर्थन कीजिए। राजा ने ‘‘तथास्तु’’ कहकर उसे वर दे दिया।
अगले दिन राजसभा में पर्वत—नारद के विवाद का निर्णय देखने के लिए बहुत से लोग एकत्रित हो गये थे। राजा वसु भी अपने रत्न सिंहासन पर आरूढ़ थे। इतने में पर्वत और नारद अपना न्याय कराने के लिए आये। दोनों ने ‘अजैर्यष्टव्यम्’ का अपना—अपना अर्थ सुना दिया और कहा कि आप भी हम दोनों के सहापाठी हैं, गुरु जी ने इसका क्या अर्थ किया है सो आप बताइये? यद्यपि राजा वसु के स्मरण में तत्क्षण ही सही अर्थ आ गया कि तीन वर्ष के पुराने धान से हवन करना चाहिए, ऐसा गुरु जी ने अर्थ किया था। फिर भी उन्होंने गुरु माता को दिये गये ‘‘वर’’ (वचन) के निमित्त से सत्य से विपरीत असत्य का पक्ष लेते हुए अपने मान—मर्यादा और प्रतिष्ठा की कुछ परवाह न कर कह दिया— ‘‘जो पर्वत कहता है सो सत्य है, गुरु जी ने हमें ऐसा ही अर्थ बताया था’’ प्रकृति को ऐसा यह घोर अन्याय सहन नहीं हुआ अत: राजा वसु का सिंहासन पृथ्वी में गिर पड़ा और उसी के साथ राजा वसु भी पृथ्वी में धँसने लगा। यह देख नारद ने तथा सभा में बैठे प्रतिष्ठित लोगों ने जोर—जोर से कहा— ‘‘राजन्! देख लो, इतने महाझूठ का फल, जो कि तुम्हारा सिंहासन पृथ्वी में धँसता जा रहा है। संभलो, संभलो, अभी भी सत्य बोलो, सत्य बोलो।’’ इतना समझाया जाने पर भी राजा वसु नहीं संभला और पुन: बोला— ‘‘जो पर्वत कहता है वही सत्य है।’’ इस महापाप के फलरूवरूप उसी समय पृथ्वी फटती चली गई और राजा का सिंहासन उसमें धँसता चला गया। तब वह राजा मरकर सातवें नरक में चला गया। अहो! इस मूढ़ बुद्धिरूप असत्य को धिक्कार हो, धिक्कार हो। इस दुर्घटना से शहर में हाहाकार मच गया। पर्वत की इस दुष्टता से शहर के न्यायप्रिय लोगों ने उसे गधे पर बिठा कर शहर से बाहर निकाल दिया और नारद का बहुत प्रकार से आदर-सत्कार किया। इसलिए पूजा में यह पंक्ति आती है ‘‘वसु झूठ सेंती नरक पहुँचा स्वर्ग में नारद गया।’’ अत: असत्य न कभी बोलना चाहिए और न असत्य का पक्ष ही लेना चाहिए। असत्यवादी लोग अपने गुरु, मित्र और बंधुओं के साथ भी विश्वासघात करके दुर्गति में चले जाते हैं। किन्तु सत्य बोलने वाले लोगों को वचन सिद्धि हो जाया करती है। क्रमश: सत्य के प्रभाव से वे दिव्यध्वनि के स्वामी होकर असंख्य प्राणियों को धर्म का उपदेश देकर मोक्ष मार्ग का प्रणयन करते हैं। इसलिए हमेशा सत्य धर्म का आदर करना चाहिये।