अनिगूहितवीर्यस्य मार्गाविरोधिकायक्लेशस्तप:।।7।।
यह शरीर दु:ख का कारण है, अनित्य है, अपवित्र है, यथेष्ट भोगों के द्वारा इसका पोषण करना युक्त नहीं है। यह अपवित्र होते हुए भी अनेक गुणरूपी रत्नों को संचित करने वाला होने से बहुत ही उपकारी है, ऐसा निश्चित समझकर विषय सुखों की आसक्ति छोड़कर अपने कार्यों में इसे नौकर के समान लगाने वाले पुरुष जिनशासन से अविरोधी और यथाशक्ति जो कायक्लेश का अनुष्ठान करते हैं, उसी का नाम तप है।
इस तप के १२ भेद हैं-अनशन, अवमौदर्य, वृत्तपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन, कायक्लेश, प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान। इनमें से आदि के छह बाह्य तप हैं और अंत के छह अभ्यंतर तप हैं। बाह्य तप साधन हैं और अंतरंग तप साध्य हैं। कहा है-
‘बाह्यं तप: परमदुश्चरमाचरंस्त्वमाध्यात्मिकस्य तपस: परिबृंहणार्थं।
हे भगवन्! आध्यात्मिक तप को वृद्धिंगत करने के लिये आपने परम दुश्चर बाह्य तप का आचरण किया।
उपवास का नाम अनशन है-रत्नत्रय, दशलक्षण, आष्टान्हिक आदि के उपवास करना आदि। भूख से कम खाना अवमौदर्य है। कुछ नियम लेकर आहार के लिये जाना वृत्तपरिसंख्यान है, रसों का त्याग करना रसपरित्याग है, एकांत स्थान में या जिनमंदिर व गुरुओं के संघ में रहना-शयन करना, उठना-बैठना सो विविक्त शय्यासन है और आतापन योग आदि से शरीर को क्लेशित करना कायक्लेश तप है। दोषों के हो जाने पर गुरु से निवेदन कर प्रायश्चित लेना प्रायश्चित तप है। दर्शन आदि की व गुरुओं की विनय करना विनय तप है। आचार्य आदि गुरुओं की वैयावृत्ति करना वैय्यावृत्ति तप है। जिनदेव कथित आगम को पढ़ना-पढ़ाना आदि स्वाध्याय है। अंतरंग व बहिरंग परिग्रह का त्याग करना व्युत्सर्ग तप है और आर्त ध्यान, रौद्र ध्यान को छोड़कर धर्म ध्यान, शुक्ल ध्यान को ध्याना ध्यान तप है। इस अंतिम तप की सिद्धी के लिये ही सर्व तप किये जाते हैं। अनशन तप के काम्य, अकाम्य आदि अनेक भेद हैं।
राजा हेमवर्ण ने विधिवत् चारित्र शुद्धि नाम के १२३४ उपवास किये फलस्वरूप सोलहवें स्वर्ग में इंद्र हुये। वहाँ से च्युत होकर विदेह क्षेत्र में चंद्रभान नाम के तीर्थंकर हो गये। ऐसे ही अनेक उदाहरण हैं। ‘तपसा निर्जरा च।’ इस सूत्र के अनुसार तप से संवर और निर्जरा ये दोनों ही होते हैं। तप के प्रभाव से अनेक ऋद्धियाँ सिद्ध हो जाती हैं। मंदोदरी के पिता राजा मय को मुनि अवस्था में सर्वौषधि ऋद्धि प्रकट हो गयी थी। एक रानी ने उनको स्पर्श कर विष से मूर्च्छित अपने पति का स्पर्श किया तब वे निर्विष हो गये। विष्णुकुमार मुनि के विक्रिया ऋद्धि तपश्चरण के बल से ही प्रकट हुयी थी। उस ऋद्धि के प्रभाव से उन्होंने सात सौ मुनियों की रक्षा की थी। श्रावकों के अनशन आदि तप यद्यपि गज स्नानवत् माने गये हैं तो भी परम्परा से मोक्ष को प्राप्त कराने वाले हैं ।
जम्बूद्वीप के इसी भरत क्षेत्र में कुरुजांगल देश है, इसमें हस्तिनापुर नाम का सुन्दर नगर है। किसी समय यहाँ पर वीतशोक राजा राज्य करते थे। इनकी रानी का नाम विद्युत्प्रभा था। इन दोनों के एक अशोक नाम का पुत्र था।
इसी समय अंग देश की चम्पा नगरी में मघवा नाम के राजा राज्य कर रहे थे। इनकी श्रीमती नाम की रानी थी। श्रीमती के आठ पुत्र और रोहिणी नाम की एक कन्या थी। यौवन को प्राप्त हुई रोहिणी ने एक समय आष्टान्हिक पर्व में उपवास करके, मंदिर में पूजा करके सभाभवन में बैठे हुए माता-पिता को शेषा दी। पिता ने पुत्री को युवती देखकर कुछ क्षण मन्त्रशाला में मंत्रियों से मंत्रणा की पुन: स्वयंवर की व्यवस्था की। स्वयंवर में रोहिणी ने हस्तिनापुर के राजकुमार अशोक के गले में वरमाला डाल दी।
कालांतर में वीतशोक महाराज ने दीक्षा ले ली और अशोक महाराज बहुत न्यायनीति से राज्य का संचालन कर रहे थे। रोहिणी महादेवी के आठ पुत्र और चार पुत्रियाँ थीं। किसी समय महाराज अशोक महादेवी रोहिणी के साथ महल की छत पर बैठे हुए विनोद गोष्ठी कर रहे थे। पास में वसंततिलका धाय बैठी हुई थी। जिसकी गोद में रोहिणी का छोटा बालक लोकपाल खेल रहा था। इसी समय रोहिणी ने देखा कि कुछ स्त्रियाँ गली में अपने बालों को बिखेरे हुए एक बालक को लिए छाती, शिर, स्तन और भुजाओं को कूटती-पीटती हुई चिल्ला-चिल्ला कर रो रही हैं। तब रोहिणी ने अपनी वसंततिलका धात्री से कुतूहलवश पूछा-हे माता! नृत्यकला में विशारद लोग सिग्नटक, भानी, छत्र, रांस और दुंबिली इन पाँच प्रकारों के नाटकों का ही अभिनय करते हैं। भरत महाराज द्वारा प्रणीत इन पाँच प्रकार के नाटकों के सिवाय ये स्त्रियाँ सादिकुट्टन रूप इस कौन से नृत्य का अभिनय कर रही हैं ? इस नाटक में सात स्वर, भाषा और मूर्च्छनाओं का भी पता नहीं चल रहा है। तुम इस नाटक का नाम तो मुझे बताओ।
रोहिणी के इस भोलेपन के प्रश्न को सुनकर धाय बोली-पुत्री! कुछ दु:खी स्त्रियाँ महान् शोक और दु:ख मना रही हैं।
रोहिणी ने जब धात्री के मुख से ‘‘शोक’’ और ‘‘दु:ख’’ ये दो शब्द सुने तब उसने पूछा-अम्ब! यह बताओ कि यह ‘‘शोक’’ और ‘‘दु:ख’’ क्या वस्तु है ?
तब धात्री ने रुष्ट होकर जबाव दिया-सुन्दरी! क्या तुम्हें उन्माद हो गया है ? पाण्डित्य और ऐश्वर्य क्या ऐसा ही होता है? क्या रूप से पैदा हुआ गर्व यही है? जो तुम ‘‘शोक’’ और ‘‘दु:ख’’ को नहीं जानती हो और रुदन को नाटक-नाटक बक रही हो। क्या तुमने इसी क्षण जन्म लिया है?
क्रोधपूर्ण बात सुनकर रोहिणी बोली-भद्रे! आप मेरे ऊपर क्रोध मत कीजिए। मैं गन्धर्व विद्या, गणित विद्या, चित्र, अक्षर, स्वर और चौंसठ विज्ञानों तथा बहत्तर कलाओं को ही जानती हूँ। मैंने आज तक इस प्रकार का कला गुण न देखा है और न मुझसे किसी ने कहा है। यह आज भी मेरे लिए अदृष्ट और अश्रुतपूर्व है इसीलिए मैंने आपसे पूछा है। इसमें अहंकार और पांडित्य की कोई बात नहीं है।
पुन: धात्री बोली-वत्से! न यह नाटक का प्रयोग है और न किसी संगीत भाषा का स्वर है किन्तु कसी इष्ट बन्धु की मृत्यु से रोने वालों का जो दु:ख है, वही शोक कहलाता है।
धात्री की बात सुनकर रोहिणी पुन: बोली-भद्रे! यह ठीक है परन्तु मैं रोने का भी अर्थ नहीं जानती सो उसे भी बताइये।
रोहिणी के इस प्रश्न के पूरी होते ही राजा अशोक बोला-प्रिये! शोक से जो रुदन किया जाता है उसका अर्थ मैं बतलाता हूँ। इतना कहकर राजा ने लोकपाल कुमार को रोहिणी की गोद से लेकर देखते-देखते ही राजभवन के शिखर से नीचे फेंक दिया।
लोकपाल कुमार अशोक वृक्ष की चोटी पर गिरा, उसी समय नगर देवताओं ने आकर दिव्य सिंहासन पर उस बालक को बिठाया और क्षीरसागर के जल से भरे हुए एक सौ आठ कलशों से उसका अभिषेक किया और उसे आभूषणों से भूषित कर दिया। अशोक महाराज और रोहिणी ने जैसे ही नीचे नजर डाली तो बहुत ही विस्मित हुए। उस समय सभी लोगों ने इसे रोहिणी के पूर्वकृत पुण्य का ही फल समझा।
हस्तिनापुर के बाहर अशोक वन में अतिभूतितिलक, महाभूतितिलक, विभूतितिलक और अंबरतिलक नामक चार जिनमंदिर क्रमश: चारों दिशाओं में थे। एक रूपकुभ और स्वर्णकुभ नाम के दो चारण मुनि विहार करते हुए हस्तिनापुर में आकर पूर्व दिशा के जिनमंदिर में ठहर गये। वनपाल द्वारा मुनि आगमन का समाचार ज्ञात होने पर परिजन और पुरजन सहित अशोक महाराज मुनिराज की वंदना के लिए वहाँ पहुँचे। वंदना भक्ति के अनंतर राजा ने प्रश्न किया कि हे भगवन्! मैंने और मेरी पत्नी रोहिणी ने पूर्व जन्म में कौन सा पुण्य विशेष किया है सो कृपा कर बतलाइये।
मुनिराज ने कहा-हे राजन्! इसी जम्बूद्वीप के अंतर्गत भरतक्षेत्र में सौराष्ट्र देश है। इसमें ऊर्जयंतगिरि के पश्चिम में एक गिरि नाम का नगर है। इस नगर के राजा का नाम भूपाल और रानी का नाम स्वरूपा था। राजा के एक गंगदत्त राजश्रेष्ठी था उसकी पत्नी का नाम सिन्धुमती था, इसे अपने रूप का बहुत ही घमण्ड था। किसी समय राजा के साथ वनक्रीड़ा के लिए जाते हुए गंगदत्त ने नगर में आहारार्थ प्रवेश करते हुए मासोपवासी समाधिगुप्त मुनिराज को देखा और सिन्धुमती से बोला-प्रिये! अपने घर की तरफ जाते हुए मुनिराज को आहार देकर तुम पीछे से आ जाना। सिन्धुमती पति की आज्ञा से लौट आई किन्तु मुनिराज के प्रति तीव्र क्रोध भावना हो जाने से उसने कड़वी तूमड़ी का आहार मुनिराज को दे दिया। मुनिराज ने हमेशा के लिए प्रत्याख्यान ग्रहण कर सल्लेखनापूर्वक शरीर का त्याग कर स्वर्ग पद को प्राप्त कर लिया।
जब राजा वन से वापस लौट रहे थे, कि विमान में स्थित कर मुनि को ले जाते हुए देखकर मृत्यु का कारण पूछा। तब किसी व्यक्ति ने सारी घटना राजा को सुना दी। उस समय राजा ने सिन्धुमती का मस्तक मुण्डवाकर उस पर पाँच बेल बंधवाये, गधे पर बिठाकर उसके अनर्थ की सूचना नगर में दिलाते हुए उसे बाहर निकाल दिया। उसके बाद उसे उदुम्बर कुष्ठ हो गया और भयंकर वेदना से सातवें दिन ही मरकर बाईस सागर पर्यन्त आयु धारण कर छठे नरक में उत्पन्न हुई। यह पापिनी क्रम से सातों ही नरकों में भ्रमण करते हुए कदाचित तिर्यंचगति में आकर दो बार कुत्ती हुई, सूकरी, शृंगाली, चुहिया, गोंच, हथिनी, गधी और गोणिका हुई। अनंतर इसी हस्तिनापुर के राजश्रेष्ठी धनमित्र की पत्नी धनमित्रा से दुर्गन्धा कन्या उत्पन्न हुई। कुष्ठ से व्याप्त और मरे हुये कुत्ते की दुर्गन्ध के समान उसके शरीर से भयंकर दुर्गन्धि आ रही थी जिससे कि उसके पास किसी का भी बैठना कठिन था।
उसी शहर के वसुमित्र सेठ का एक श्रीषेण पुत्र था जो सप्त व्यसनी था। एक दिन चोरी कर्म से कोतवाल के द्वारा पकड़ा जाकर शहर के बाहर निकाला जा रहा था। उस समय धनमित्र ने कहा कि-श्रीषेण! यदि तुम मेरी कन्या के साथ विवाह करना मंजूर करो तो मैं तुम्हें इस बंधन से मुक्त करा सकता हूँ। उसके मंजूर करने पर सेठ ने उसे बंधन मुक्त कराकर उसके साथ अपनी दुर्गंधा कन्या का विवाह कर दिया किन्तु विवाह के बाद जैसे-तैसे एक रात दुर्गन्धा के पास बिताकर मारे दुर्गन्ध के घबराकर वह श्रीषेण अन्यत्र भाग गया। बेचारी दुर्गन्धा पुन: पिता के घर पर ही रहते हुए अपनी निन्दा करते हुए दिन व्यतीत कर रही थी। एक दिन उसने सुव्रता आर्यिका को अपने पितृगृह में आहार दिया। अनन्तर पिहितास्रव नामक चारणमुनि अमितास्रव मुनिराज के साथ वन में आये। वहाँ पर सभी श्रावकों ने गुरु वंदना करके उपदेश सुना। पूतिगंधा ने भी गुरु का उपदेश सुनकर कुछ क्षण बाद प्रश्न किया-हे भगवन्! मैंने पूर्व जन्म में कौन सा पाप किया है जिससे मेरा शरीर महादुर्गन्धियुक्त है ?
मुनिराज ने कहा-पुत्री! सुनो, तुमने सिन्धुमती सेठानी की अवस्था में मुनिराज को कड़वी तूमड़ी का आहार दिया था। उसके फलस्वरूप बहुत काल तक नरक और तिर्यंचों के दु:ख भोगे हैं और अभी भी पाप के शेष रहने से यह स्थिति हुई है। सारी घटना सुनकर पूतिगंधा ने कहा-हे गुरुदेव! अब मुझे कोई ऐसा उपाय बतलाइये जिससे पापों का क्षय हो।
मुनिराज ने कहा-पुत्री! अब तुम सभी पापों से मुक्त होने के लिए रोहिणी व्रत करो, जिस दिन चन्द्रमा रोहिणी नक्षत्र में हो उस दिन चतुराहार त्याग कर उपवास करना चाहिए और वासुपूज्य जिनेन्द्रदेव की पूजा करके उनका जाप करना चाहिए। यह रोहिणी नक्षत्र सत्ताईस दिन में आता है। इस तरह सत्ताइसवें दिन उपवास करते हुए पाँच वर्ष और नव दिन में सड़सठ उपवास हो जाते हैं। अनंतर उद्यापन में वासुपूज्य भगवान् की महापूजा कराके रोहिणी व्रत संबंधी पुस्तक लिखाकर (छपाकर) और भी अन्य ग्रंथों का भी भव्य जीवों में वितरण करना चाहिये। ध्वजा, कलश, घण्टा, घण्टिका, दर्पण, स्वस्तिक आदि से मंदिर को भूषित करके महापूजा के अनंतर चतुर्विध संघ को आहार आदि चार प्रकार का दान और आर्यिकाओं के लिए वस्त्र का दान देना चाहिये।
इस तरह गुरुमुख से सुनकर विधिवत् व्रत ग्रहण कर रोहिणी ने उसका पालन किया। श्रावक व्रत पालन करते हुए अन्त में समाधिपूर्वक मरण करके वह अच्युत नामक सोलहवें स्वर्ग में महादेवी हो गई। वहाँ से च्युत होकर यह तुम्हारी वल्लभा रोहिणी हुई है। राजन्! यह रोहिणी व्रत का ही माहात्म्य है जो कि यह ‘‘शोक’’ और ‘‘दु:ख’’ को नहीं समझ पाई है।
अनंतर मुनिराज ने अशोक से कहा-अब मैं तुम्हारे पूर्व जन्म सुनाता हूँ सो एकाग्रचित्त होकर सुनो।
कलिंग देश के निकट विंध्याचल पर्वत पर अशोक वन में स्तंबकारी और श्वेतकारी नाम के दो मदोन्मत्त हाथी थे। किसी दिन एक नदी में जल के लिये घुसे और आपस में लड़कर मर गये। वे बिलाव और चूहा हुए, पुन: साँप-नेवला तथा बाज और बगुला हुए, पुन: दोनों ही कबूतर हुए। अनंतर कनकपुर के राजा सोमप्रभ के पुरोहित सोमभूमि की पत्नी सोमिला से सोमशर्मा और सोमदत्त नाम के पुत्र हो गये।
राजा सोमप्रभ ने सोमभूमि के मरने के बाद पुरोहित पद सोमदत्त नामक उनके छोटे पुत्र को दे दिया। किसी समय सोमदत्त को यह मालूम हुआ कि मेरा बड़ा भाई मेरी पत्नी के साथ दुराचार करता है तब उसने विरक्त होकर जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। इधर राजा ने पुरोहित पद सोमशर्मा को दे दिया।
एक बार सोमप्रभ राजा ने हाथी के लिए शकट देश के अधिपति वसुपाल के साथ युद्ध करने के लिए प्रस्थान कर दिया। उस समय सोमदत्त मुनि के दर्शन होने से सोमशर्मा ने कहा-महाराज! आपको अपशकुन हो गया है अत: इन मुनि को मारकर इनके खून को दशों दिशाओं में क्षेपण कर शांति कर्म करना चाहिए। यह सुनकर राजा ने अपने कान दोनों हाथों से ढक लिये। अब विश्वदेव नामक निमित्तज्ञानी ने आकर बतलाया-राजन्! आपको आज बहुत ही उत्तम शकुन हुआ है, देखिये! ‘‘यति, घोड़ा, हाथी, बैल, कुम्भ ये चीजें प्रस्थान और प्रवेश में सिद्धिसूचक मानी गई हैं।’’
अन्यत्र भी कहा है-
आरुरोह रथं पार्थ गांडीवं चापि धारय।
निर्जितां मेदिनीं मन्ये निर्ग्रन्थो यतिरग्रत:।।
महाभारत में लिखा है-कि कृष्ण अर्जुन से कहते हैं-हे अर्जुन! तुम रथ पर चढ़ जावो और धनुष धारण कर लो। सामने निर्ग्रन्थ मुनिराज के दर्शन हो रहे हैं, इसलिये मैं समझता हूँ कि अब हमने पृथ्वी जीत ली। हमारी विजय निश्चित है। ज्योतिष शास्त्र में भी एक सुभाषित है-
पद्मिन्यो राजहंसाश्च निग्र्रन्थाश्च तपोधना:।
यद्देशमभिगच्छन्ति तद्देशे शुभमादिशेत्।।
पद्मिनी स्त्रियाँ, राजहंस और निग्र्रंथ तपस्वी जिस प्रदेश में रहते हैं उस प्रदेश में सर्वत्र मंगल रहता है। अन्यत्र धर्मग्रंथों में भी ‘‘साधु’’ के दर्शन से पापों का नाश हो जाता है ऐसा कहा गया है।
राजन्! आप देखिये प्रात: ही राजा वसुपाल का त्रिलोकसुन्दर हाथी लेकर आपको भेंट करूँगा। विश्वदेव के वचनों से राजा का मन शांत हो गया। पुन: प्रात:काल स्वयं वसुपाल राजा ने आकर वह हाथी सहर्ष भेंट कर दिया।
इधर सोमशर्मा ने पूर्व वैर के कारण रात्रि में सोमदत्त मुनि की हत्या कर दी। जब राजा को इस बात का पता चला तब उसे पाँच प्रकार के दण्डों से दण्डित किया। मुनि हत्या के पाप से सोमशर्मा को कुष्ट रोग हो गया और वह मरकर सातवें नरक पहुँच गया।
वहाँ से निकलकर महामत्स्य हुआ, छठे नरक गया, सिंह हुआ, पाँचवें नरक गया, सर्प हुआ, चतुर्थ नरक गया, पक्षी हुआ, द्वितीय नरक गया, बगुला हुआ पुन: प्रथम नरक गया। वहाँ से निकलकर सिंहपुर के राजा सिंहसेन की रानी से पूतिगंध नाम का महादुर्गन्ध शरीरधारी पुत्र हुआ।
किसी समय विमलमदन जिनराज को केवलज्ञान होेने पर देवों के आगमन को देखकर पूतिगंध मूर्छित हो गया। पुन: होश में आने पर उसे जातिस्मरण हो गया। वह पिता के साथ केवली भगवान् का दर्शन करके मनुष्यों की सभा में बैठ गया। राजा ने पूतिगंध के पूर्व भव पूछे और पूर्वोक्त प्रकार विशेष स्पष्टतया जिनेन्द्र की वाणी से अपने भवांतरों को सुनकर पूतिगंध ने कहा-प्रभो! अब मुझे दु:खों से छूटने के लिए कोई व्रतादि बतलाइये। तब भगवान ने उसे रोहिणी व्रत का उपदेश दिया। इस व्रत में तीन१ साल में चालीस उपवास होते हैं और पाँच वर्ष नव दिन में सड़सठ उपवास होते हैं अनंतर विधिवत् उद्यापन करना चाहिए।
पूतिगंध राजकुमार इस व्रत और अणुव्रत आदि के प्रभाव से उसी भव में सुगंध शरीर वाला हो गया। अनंतर एक महीने में ही सल्लेखना विधि से मरण करके प्राणत नामक स्वर्ग में महर्धिक देव हो गया। वहाँ से च्युत होकर पूर्वविदेह में पुण्डरीकिणी नगरी के विमलकीर्ति राजा की श्रीमती रानी से अर्वâकीर्ति नाम का पुत्र हो गया। आगे जाकर अर्ककीर्ति ने महावैभव स्वरूप चक्रवर्ती के पद को प्राप्त किया। अमित सुखों का अनुभव करके विरक्त हो जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। अंत में मरण कर सोलहवें स्वर्ग में देव पद को प्राप्त किया। उस समय पूतिगंधा का जीव जो कि रोहिणी व्रत के प्रभाव से स्वर्ग में देवी हुई थी, वह इस देव की प्रिय देवी हुई। वहाँ से च्युत होकर आप अशोक राजा हुए हैं।
इस प्रकार मुनिराज के मुख से भवांतरों को सुनकर राजा-रानी अति प्रसन्न हुए और सभी पुत्र-पुत्रियों के भव पूछकर हर्षितमना अपने शहर वापस आ गये। एक समय श्वेत केश को देखकर विरक्त होकर राजा अशोक ने वासुपूज्य भगवान के समवसरण में जैनेश्वरी दीक्षा ले ली और सात ऋद्धि से सम्पन्न हुए भगवान के गणधर हो गये। अनंतर मोक्ष को पधार गये। रोहिणी भी सुमति आर्यिका के समीप आर्यिका दीक्षा लेकर स्त्री पर्याय को छेदकर सोलहवें स्वर्ग में देव हो गई।
इस प्रकार से रोहिणी व्रत का माहात्म्य अचिंत्य है। इस व्रत में हर उपवास के दिन भगवान् वासुपूज्य का अभिषेक करके पूजन करना चाहिए पुन:
‘‘ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्यजिनेन्द्राय नम:’’
यह जाप करना चाहिए।