यह ब्रह्मस्वरूप कही आत्मा, इसमें चर्या ब्रह्मचर्य कहा।
गुरुकुल में वास रहे नित ही, वह भी है ब्रह्मचर्य दुखहा१।।
सब नारी को माता भगिनी, पुत्रोवत् समझें पुरुष सही।
महिलायें पुरुषों को भाई, पितु पुत्र सदृश समझें नित ही।।१।।
इक अंक लिखे बिन अगणित भी, बिन्दु की संख्या क्या होगी ?
इक ब्रह्मचर्य व्रत के बिन ही, धर्मादि क्रिया फल क्या देगी ?
भोगों को जिनने बिन भोगे, उच्छिष्ट समझकर छोड़ दिया।
उन बालयती को मैं नित प्रति, वंदूँ प्रणमूँ निज खोल हिया।।२।।
इक देश ब्रह्मव्रत जो पाले, वे शीलव्रती नर नारी भी।
सीता सम अग्नि नीर करें, सुर वंदित मंगलकारी भी।।
शूली से सिंहासन देखा, वह सेठ सुदर्शन यश मंडित।
रावण से नरक गति पहुँचे, वह चन्द्रनखा भी यश खंडित।।३।।
मेरी आत्मा है परम ब्रह्म, भगवान् अमल चिदरूपी है।
यह है शरीर अपवित्र अथिर, आत्मा शाश्वत चिन्मूर्ति है।।
यह द्रव्यकर्म मल भावकर्म, मल आत्म स्वरूप मलिन करते।
जब मैं इन सबसे पृथक् रहूँ, तब सब कर्म स्वयं भगते।।४।।
निज आत्मा में ही रमण करूँ, निज सौख्य सुधा को पाऊँ मैं।
पर के संकल्प विकल्पों को, इक क्षण में ही ठुकराऊँ मैं।।
पर का किंचित् भी भान न हो, निज में तन्मयता पाऊँ मैं।
निज ‘ज्ञानमती’ लक्ष्मी पाकर, त्रैलोक्यपती बन जाऊँ मैं।।५।।
है उत्तम क्षमा मूल जिसमें, मृदुता सुतना, आर्जव शाखा।
शुचि भाव नीर पत्ते सच हैं, संयम तप त्याग कुसुम भाषा।
आकिंचन ब्रह्मचर्य कोंपल, से सुन्दर वृक्ष सघन छाया।
फल स्वर्ग मोक्ष का देता है, दश धर्म कल्पद्रुम मन भाया।।१।।
—दोहा—
धर्म कल्पद्रुम के निकट , माँगू शिवफल आज।
‘‘ज्ञानमती’’ लक्ष्मी सहित , पाऊँ सुख साम्राज्य।।२।।