सामूहिक प्रार्थना—एक गांव का दृश्य है, अनेक स्त्री पुरुष हाथों में सामान लिए,सिर पर गठरी रखे हुए गाना गुनगुनाते हुए कहीं चले जा रहे हैं, तभी पनघट से पानी भरकर घर की ओर जाती हुई महिलाओं की पूछताछ शुरू होती है—
एक महिला — देखो अम्मा! ये सब लोग कहां चले जा रहे हैं ?
बूढ़ी महिला — अरी बहू । चले जा रहे होगें कही को, अपने को क्या करना ?
दूसरी बहन — ऐसे तो न जाने कितने लोग रोज कहीं न कहीं जाते रहते हैं, कहां तक हम उनका पता लगाएंगे।
तीसरी बहन — नहीं सखियो। ऐसा बड़ा सारा जत्था एक साथ जाते तो हमने कभी नहीं देखा है। लगता है ये सब किसी मेले में जा रहे हैं। अरे ओ दादा ! सुनो तो सही, आप लोग इतना सामान लेकर आज इतने सारे लोग एक साथ मिलकर कहां जा रहे हैं ? (उसका प्रश्न सुनकर कुछ यात्रियों का जत्था रुककर बताने लगता है)
एक यात्री — क्या तुम्हें मालूम नहीं है, आजकल पास में ही वेणा नदी के तट पर महिमा नाम की नगरी में बड़ा भारी संत सम्मेलन चल रहा है। सुना है वहां सैकड़ों साधु-साध्वियों से सहित अनेक आचार्य संघ पधारे हुए हैं।
दूसरा यात्री — हम लोग उन्ही संघों के दर्शन करने जा रहे हैं।
महिला यात्री — वहां जाकर हम लोग चौका लगाएंगे और गुरुओं को आहार देकर अपना जीवन सफल बनाएंगे।
तीसरा यात्री — ऐसे अवसर तो बड़ी मुश्किल से प्राप्त होते हैं, जब तमाम सारे साधु-साध्वी एक साथ इकट्ठे हों और उनके प्रवचन सुनने का, आशीर्वाद लेने का हम श्रावकों को सौभाग्य मिले।
महिला यात्री — अरे भइया। जल्दी चलो, देखो! वे सब आगे निकल गये, हम लोग पीछे रहकर कहीं रास्ता न भूल जाएं ।
पुरूष यात्री — हां, हां, चलो ! (ग्रामीण बहनों से)तुम लोग भी गांव में सूचना कर दो और सभी लोग दर्शन करने आ जाओ। ऐसे मौके बार—बार नही मिलते हैं। (थोड़ा दौड़ते हुए वे सभी यात्री आगे बढ़ जाते हैं और गांव की महिलाएं आपस में बातें करती अपने—अपने घर चली जाती हैं।)
सामूहिक महिला स्वर — चलो, जल्दी घर में खाना बनाकर हम लोग भी सम्मेलन में चलें ।
दूसरा दृश्य
(पंचकल्याणक जैसा विशाल दृश्य है, एक ओर पहाड़ी पर भगवान की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है और दूसरी ओर वेणा नदी के तट पर अनेक आचार्य, मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक, क्षुल्लिका के चर्तुिवध संघ विराजमान हैं। वहां श्रावकों की, दर्शर्नािथयों की भीड़ लगी है ।) (यहाँ साधु—साध्वियों का अभिनय किन्हीं बालक—बालिका रूप पात्रों के द्वारा न दिखाकर चित्र, कट-आउट अथवा स्टेचू बनाकर मंच पर दिखावें तथा उनकी आवाज पर्दे के पीछे से आती हुई बतावें।)
दर्शनार्थी श्रावक — (घुटने टेककर पंचाग नमस्कार करके) नमोस्तु महाराज—३! हम धन्य हो गये आपके दर्शन पाकर! गुरुदेव! आप सभी का रत्नत्रय तो कुशल है ना ?
आचार्य भगवन्त — (धर्मवृद्धि आशीर्वाद के साथ) सभी भक्तों के कल्याण की हमारी अभिलाषा है।
दर्शनार्थी श्राविकाएं — (मुनियों के दर्शन कर गणिनी माताजी के पास पहुंचती हैं) हे सरस्वती समान माताश्री! हमारी सविनय वन्दामि स्वीकार कीजिए। आज यहां आकर
साक्षात् समवशरण का दर्शन हो रहा है जिससे हृदय अत्यन्त गदगद हो रहा है।
गणिनी माताजी — आप सभी के लिए सद्धर्मवृद्धि का आशीर्वाद है, हम र्आियकाओं की लघु बहन सदृश श्राविकाओं ! इस पंचमकाल में साक्षात जिनेन्द्र भगवान एवं गणधर गुरू नहीं हैं अत: उनके पदचिन्हों पर चलने वाले साधुओं के चर्तुिवध संघ ही समवशरण के प्रतिरूप हैं।
सभी श्रावक – श्राविका मिलकर चर्तुिवध संघ की भक्तिपूर्वक स्तुति पढ़ते हैं।
—शेर छन्द—
जै जै प्रभू अरिहन्त की मुद्रा नमन करूँ ।
आचार्य उपाध्याय साधु को नमन करूँ ।।
आचार्यदेव ! आपके छत्तीस सुगुण हैं ।
परमेष्ठि उपाध्याय के पच्चीस सुगुण हैं।।१।।
निज ध्यान मे रत साधु अट्ठाईस गुण सहित ।
सबकी करूँ मैं वन्दना होगा निजात्म हित ।।
जिनवर की मानो कन्या ये आर्यिका माता ।
वन्दामि कर नमाऊँ इनके चरण में माथा ।।२।।
दुर्लभ मनुष्य जन्म में यह संघ मिला है ।
गुरुओं के दर्श से हृदय का कमल खिला है ।।
दे दो हमें कुछ ज्ञान व संयम का सहारा ।
जिससे मिले हमको भी भवोदधि का किनारा ।।३।।
(स्तुति करके सभी हाथ जोड़कर उपदेश सुनने की मुद्रा में गुरुदेव के समक्ष बैठ जाते हैं। मुनि का चित्र सामने है और पीछे से आवाज आती है।)
आचार्य देव — धर्मानुरागी भक्तों! भगवान महावीर ने संसार में दो प्रकार के मार्ग बताये हैं, एक त्याग मार्ग अर्थात् मुनिमार्ग और दूसरा भक्तिमार्ग अर्थात् गृहस्थ मार्ग, यहाँ पर आज दोनों ही एक साथ दिख रहे हैं, इसी तरह पंचम काल के अन्त तक दोनों मार्ग चलते रहेंगे। आप सभी अपने जीवन में मद्य, मांस, मधु का त्याग कर सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य एवं परिग्रह की सीमारूप पांच अणुव्रतों का पालन करें, यही गृहस्थ धर्म का सार है।
एक श्रावक — गुरुदेव। मेरा एक छोटा सा प्रश्न है आप उत्तर देकर जिज्ञासा शांत कीजिए।
आचार्य देव — पूछो भव्य प्राणी। आपका क्या प्रश्न है ?
श्रावक — आज यहाँ पर इतनी बड़ी संख्या में आप लोगों के एक साथ पधारने में क्या कोई विशेष कारण है ? मैं यही जानना चाहता हूँ।
आचार्य देव — सुनो महानुभावों! यहां की इस विशाल संघ उपस्थिति का मैं रहस्य बतलाता हूँ। अन्तिम तीर्थंकर महावीर की देशना के आधार पर गौतम गणधर द्वारा बताई परम्परानुसार प्रत्येक पांच वर्ष में सभी गण, गच्छ एवं परम्परा के साधु—साध्वियों को एक जगह एकत्रित होकर ‘‘युग प्रतिक्रमण’’ करने का विधान है। हम सभी आज यहां पर उसी युगप्रतिक्रमण को करने एवं सन्त सम्मेलन करने के लिए एकत्रित हुए हैं।
श्रावक — भगवन् ! इस प्रतिक्रमण एवं सम्मेलन में आप लोग क्या करेंगें, कृपया उस विषय से हमें परिचित कराने का अनुग्रह करें।
आचार्य देव — हे भद्र! इस युगप्रतिक्रमण में हम लोग अपने पंचवर्षीय साधु जीवन के दोषों का प्रायश्चित लेगें तथा सभी संघ के साधुगण अपनी -अपनी समस्याओं का सामूहिक समाधान करेंगे एवं अनेक अनुभवी, विशेष ज्ञानी साधुओं के अनुभवज्ञान का भी इसमें बहुत बड़ा लाभ सभी को प्राप्त होगा। और हाँ, आप लोगों के अनुसार हम लोग भी अपनी आगामी कुलपरम्परा, गुरूपरम्परा एवं आगम परम्परा को निवघ्न चलाने के लिए विचार—विमर्श भी करेंगे।
भक्तों का समवेत स्वर—जय हो, आचार्य संघ की जय हो, मुनि संघ की जय हो, र्आियका संघ की जय हो। धन्य है, गुरुओं की महिमा अपरम्पार है,‘‘गुरु की महिमा वरणी न जाय, गुरु नाम जपो मन वचन काय।’’
तृतीय दृश्य
चर्तुिवध संघ एक विशाल मन्दिर में विराजमान है, (चित्र या स्टेचू रखे हैं)सामने भक्त बैठे हैं, प्रतिक्रमण का सामूहिक स्वर चल रहा है।
—दोहा—
हे भगवन् ! युगप्रतिक्रमण में, दोष विशोधन हेतु।
चाहूँ आलोचन करन, श्रद्धा भक्ति समेत।।
मेरे जो पांच महाव्रत पांच समितियां छह आवश्यक हैं।
पंचेन्द्रिय विषयों का निरोध कचलोंच तथा आचेलक हैं।।
भूशयन तथा अस्नान अदन्तधावन स्थितिभुक्ती भक्तैक।
इन अट्ठाइस मूलगुणों के दोषों का प्रायश्चित एक।।
(प्रतिक्रमण के बीच में ही एक ब्रह्मचारी जी (सफेद धोती—दुपट्टा पहने हुए) कंधे पर थैला लटकाए हुए आ जाते हैं और समस्त संघ को नमन करके बैठ जाते हैं प्रतिक्रमण के पश्चात् आचार्यदेव उनसे पूछते हैं)—
आचार्यदेव — (स्टेचू या चित्र हो, आवाज पीछे से) ब्रह्मचारी जी! आपका कहां से आना हुआ?
ब्रह्मचारी — भगवन् । मैं गुजरात प्रान्त के गिरनार पर्वत की चन्द्र गुहा में रहने वाले आचार्यश्री धरसेन महाराज के पास से आया हूँ। महामुनि आचार्य श्रीधरसेन महाराज ने आप लोगों के पास एक पत्र लिखकर मुझे भेजा है।
आचार्यदेव — क्या कहा ?आचार्य श्रीधरसेन जी ने पत्र भेजा है। जरूर कुछ न कुछ खास कारण होगा।ब्रह्मचारी जी, आप जल्दी से वह पत्र निकालें और सभी के सामने उसे पढ़िये ताकि उस पर सर्वसम्मति से उचित निर्णय लिया जा सके।
ब्रह्मचारी — (पत्र निकालकर खड़े होकर पढ़ते हैं) स्वस्ति श्री महावीर पथ के अनुयायी आचार्यप्रवर! पुण्ययोग से आज जो मुझे अंग और पूर्वरूप श्रुत का अंशज्ञान प्राप्त हुआ है वह भविष्य में समाप्त हो जाने वाला है। मेरी आयु का अब समापन काल चल रहा है, इसलिए मेरी इच्छा है कि आप लोग कुशलबुद्धि के धारक,श्रुत को ग्रहण और धारण करने मे सक्षम ऐसे दो मुनिराजों को मेरे पास भेज दीजिए। मैं उन्हें अपना शेष बचा ज्ञान प्रदान करके आगे के लिए बहुमूल्य श्रुतज्ञान को सुरक्षित करना चाहता हूँ।शेष शुभ, समस्त संघ के लिए मेरा यथायोग्य नमोस्तु, प्रतिनमोस्तु एवं मंगल आशीर्वाद है। (पत्र सुनकर सभी साधुगण एक-दूसरे का मुंह देखने लगते हैं, पुनः दो क्षण पश्चात् ही आचार्य निर्णय देते हैं।)
आचार्यदेव — (आवाज पीछे से) चर्तुिवध संघों के समस्त साधु-साध्वियों! पूज्य वयोवृद्ध आचार्य श्रीधरसेन की श्रुत परम्परा की चिन्ता का हम सभी को मिलकर निराकरण करना है ताकि हमारे जिनशासन की प्रसिद्धि दिनोंदिन बढ़ती जावे।
संतों का समवेत स्वर — अवश्यमेव महाराज ! यह बहुत जरूरी है अन्यथा यदि श्रीधरसेन स्वामी जैन वाङ्मय के अंग, पूर्व का ज्ञान किसी को बिना दिए स्वर्गस्थ हो जाएंगे तो इस धरती पर वह ज्ञान लुप्त ही हो जाएगा।
ब्रह्मचारी जी — हां महाराज! इसलिए आप लोग इस विशाल संघ समुदाय में से चुनकर कम से कम किन्हीं दो मुनिराजों को मेरे साथ अवश्य भेजिए।
आचार्यदेव — (दो युवा मुनियों का चित्र दिखावें, उनकी ओर इशारा करते हुए)मेरे सहधर्मी साधुआ! मेरी समझ में इस संघसमुदाय के अन्दर विशेष प्रज्ञाचक्षु के धारी मुनिराज पुष्पदंत और भूतबली हैं, उन्हें धरसेनाचार्य के पास भेज दिया जाय ताकि ये पूरी तरह से उनके ज्ञान को प्राप्त करके जिनधर्म की रक्षा कर सवें।
संतो का समवेत स्वर — यह निर्णय अति उत्तम है, हम सभी को मंजूर है।
आचार्यदेव — (दो मुनियों की ओर इशारा करके) कहिये मुनिवर! आप लोगों की क्या इच्छा है ?
एक मुनि — (आवाज पीछे से)जो आज्ञा गुरुदेव! मैं अमूल्य श्रुतज्ञान पाने के लिए हर क्षण तैयार हूँ।
दूसरे मुनि — भगवान् ! यद्यपि आपकी छत्रछाया से दूर जाने का मुझे विंâचित कष्ट है किन्तु आपने मुझे अनमोल धरोहर रूप अंगपूर्व का ज्ञान सीखने के योग्य समझा, यह मैं अपना परम सौभाग्य मानता हूँ।
आचार्यदेव — शिष्यों! इस विषय में मेरी छोटी सी शिक्षा को सदा मन में रखना कि अत्यन्त विनयपूर्वक गुरुआज्ञा का पालन करते हुए श्रीधरसेनाचार्य से संपूर्ण ज्ञान प्राप्त कर बाह्य प्रभावना में कभी पथ से विचलित मत होना।
दोनों मुनि — (युगल स्वर) भगवन् ! आपकी शिक्षा का हम सदैव ध्यान रखेंगे। इस प्रकार दोनों युवा मुनिराज गुरु चरणों मे नमन कर,सभी संघ की यथायोग्य विनय कर ब्रह्मचारीजी के साथ चले जाते हैं। यहां खड़्गासन दो मुनियों का पिच्छी-कमंडलु लिए हुए विहार की मुद्रा में चित्र दिखावें, ब्रह्मचारी पात्र के साथ दोनों मुनि चल रहे हैं।
—एक पार्श्वगीत—
तर्ज— तीरथ करने चली सती ……….. दो मुनिवर चल दिये एक संग,
ज्ञान का अलख जगाने को। श्रीधरसेनाचार्य निकट में, ज्ञान उन्हीं का पाने को।। टेक.।।
पुष्पदंत मुनि भूतबली की,प्रतिभाशक्ति निराली है।
इन दोनों से जिनशासन की, महिमा बढ़ने वाली है।।
यही सोच कर भेज दिया, गुरु ने श्रुतज्ञान बढ़ाने को।
गुरु ने श्रुतज्ञान बढ़ाने को।। दो मुनिवऱ़ ।।
जय हो जैनधर्म की जय हो, श्रीधरसेन आचार्य की जय हो,पुष्पदंत-भूतबली महाराज की जय हो। (इन दोनों मुनियों का मंगल विहार चल रहा है। वे आचार्यश्री धरसेन स्वामी के पास पहुंचने वाले हैं कि तभी एक दिन क्या होता है)—
चतुर्थ दृश्य
श्रीधरसेनाचार्य मुनिराज पर्वत की एक शिला पर शयन कर रहे हैं, प्रातःकाल उठकर नित्य क्रिया करके वे पास में बैठे एक ब्रह्मचारी से कहते हैं— (लेटे हुए और बैठे हुए धरसेनाचार्य का चित्र दिखावें और ब्रह्मचारी पात्र बनावें)—
श्रीधरसेनाचार्य — जयदु सुयदेवदा, आज मैंने बड़ा सुन्दर स्वप्न देखा।
ब्रह्मचारी — स्वामी ! वह क्या है, आप मुझे भी बताइये।
श्रीधरसेनाचार्य — मैंने देखा है कि दो सुन्दर बैलों ने आकर मेरी भक्तिपूर्वक प्रदक्षिणा दी है।
ब्रह्मचारी — भगवन् ! इस स्वप्न का फल क्या हो सकता है ?
श्रीधरसेनाचार्य — संभव है कि मेरे भेजे गए पत्रानुसार कोई दो योग्य शिष्यों का मुझे लाभ प्राप्त हो जाय।
ब्रह्मचारी — धन्य है स्वामी! आपका ज्ञान धन्य है, भगवान आपकी इच्छा अवश्य पूर्ण करेंगे। (गुरु शिष्य की यह चर्चा चल ही रही थी कि प्रातःकाल एक ब्रह्मचारीजी के साथ दो मुनिराजों का प्रवेश होता है,भक्तगण जय—जयकार कर रहे हैं। आचार्य श्रीधरसेन के पास पहुंचकर दोनों मुनि विनयपूर्वक नमस्कार करते हैं, पुनः वार्तालाप चलता है) (चित्र द्वारा दृश्य दिखावें और आवाज पीछे से)
दोनों मुनि — नमोस्तु गुरुदेव! नमोस्तु, नमोस्तु, नमोस्तु।
श्रीधरसेनाचार्य — (पिच्छी उठाकर प्रतिवंदन)नमोस्तु मुनिवर ! आप लोग भी मेरा प्रतिनमोस्तु स्वीकार करें।
दोनों मुनि — भगवन् ! अपने रत्नत्रय की कुशलता के साथ आप हमारे योग्य सेवा का अवसर प्रदान कीजिए।
श्रीधरसेनाचार्य — सुट्ठु भद्दं शिष्यों! तुम लोग मार्ग में थककर आये हो अतः तीन दिन विश्राम करो, उसके बाद मैं तुम्हें काम बताउगा। (श्रावकों से)इन मुनियों के आहार एवं निवास की उचित व्यवस्था करो। ब्रह्मचारीजी, आप इनकी योग्य परिचर्या करके इनकी थकान दूर करो। (इस प्रकार तीन दिन आहार,परिचर्या एवं अपनी दैनिक चर्या का निर्वाह करते हुए वे दोनों मुनि गुरु आज्ञानुसार चतुर्थ दिवस पुन: उनके पास जाकर निवेदन करते हैं।)—
दोनों मुनि — (नमोस्तु करके) गुरुदेव! हमें आज्ञा प्रदान कीजिए कि अब हमें क्या करना है ?
श्रीधरसेनाचार्य — शिष्यों! हमने तुम्हें कुछ अमूल्य श्रुत का ज्ञान प्रदान करने हेतु बुलाया है। उसे मैं तुम्हें सिखाऊं, इससे पूर्व दोनों को मैं एक—एक मंत्र देता हूँ (मंत्र का कागज देते हुए ) इन्हें लेकर तुम लोग गिरनार पर्वत चले जाओ और पूर्ण विधि के अनुसार इसकी आराधना करते हुए विद्या की सिद्धि करो।
दोनों मुनि — जो आज्ञा गुरुदेव (कागज लेकर दोनों गुरु को नमस्कार कर चले जाते हैं,पर्वत पर पहुंचकर दोनो मुनि आपस में बात करते हं )
एक मुनि — मुनिवर ! गुरुदेव ने जो यह मंत्र दिया है इसे शास्त्र से देखकर हमें शुद्ध—अशुद्ध का कुछ विचार पहले अवश्य कर लेना चाहिए।
दूसरे मुनि — साधो ! कहीं यह हम लोगों की प्रारम्भिक परीक्षा तो नहीं है, हमें बड़ी सावधानी और श्रद्धा भक्ति के साथ कार्य करना है, जल्दबाजी में नहीं।
पहले मुनि — तुम बिल्कुल ठीक कहते हो, मुने! हमें अपने गुरू पर पूरी आस्था रखते हुए मंत्र की शुद्धि—अशुाqद्ध का कोई विचार नहीं करना है।
दूसरे मुनि — तो फिर लीन हो जाओ ध्यान में और शुरू कर दो मंत्रसाधना। (दोनो मुनि ध्यान में मग्न हो जाते हैं, पुनः देखते ही देखते मंत्र साधना के प्रभाव से दोनों के सामने एक-एक देवी प्रकट होती है, जिन्हें देखकर वे कहते हैं)
पहले मुनि — अरे! यह क्या ? इस देवी का एक दांत तो बड़ा लम्बा निकला है । विद्या देवताएंं तो कुरूप नहीं हुआ करती हैं, इस मंत्र में जरूर कुछ गलती है।
दूसरे मुनि — यही तो मेरे साथ भी हो रहा है कि मेरे सामने वाली देवी एक आंख से कानी है जबकि देवी-देवता हीन अंग वाले होते ही नहीं हैं। मुनिवर! हम दोनों के लिये यह परीक्षा की घड़ी है, अब याद करो अपना मंत्र व्याकरण। देखो, देखो! मेरे मंत्र में एक अक्षर कम है शायद इसीलिए कानी देवी आई है।
एक मुनि — हां,मेरे मंत्र में देखो। यह एक अक्षर ज्यादा है इसीलिए शायद बड़े दांतों वाली देवी आई है। (दोनो मुनि अपने-अपने मंत्र शुद्ध करके पुन: ध्यान में लीन हो जाते हैं, पुन: कुछ देर बाद सुन्दर-सुन्दर देवियां उनके सामने प्रकट होकर कहती हैं।)
दोनों देवियाँ — हे स्वामी ! हमें आज्ञा दीजिए। हम आपके मंत्र सिद्धि से प्रसन्न होकर आपकी मनोकामना पूरी करने आई हैं, हमें काम बताइये।
दोनों मुनि — देवी! हमें आपसे कोई काम नहीं है हम तो केवल गुरुआज्ञा से मंत्र सिद्ध कर रहे थे अत: आप अपने स्थान पर जाइए और जब गुरु की आज्ञा होगी तो आपको याद किया जाएगा।
दोनों देवियाँ — जो आज्ञा प्रभो। आप लोगों की तपस्या धन्य है। (दोनो मुनि ध्यान समाप्त कर गुरु के पास वापस आ जाते हैं और उन्हें पूरा वृतान्त सुना देते हैं।)
आचार्य धरसेन — शिष्यों ! अब मुझे तुम दोनों पर पूरा विश्वास हो गया है कि तुम पूरी श्रद्धा के साथ मेरे ज्ञान को ग्रहण कर सकते हो। आगे तुमसे श्रुत का बहुत बड़ा प्रचार होने वाला है।
दोनों मुनि — आपकी अनुकम्पा के अतिरिक्त हमें कुछ नहीं चाहिए भगवन् ।
श्रीधरसेनाचार्य — चलो वत्स ! अब विद्या प्रारम्भ करो (दोनों के मस्तक पर हाथ फेरते हैं) ऊँ नम: सिद्धेभ्य:—३।
दोनों मुनि — ऊँ नम: सिद्धेभ्य:—३।
श्रीधरसेनाचार्य — आगे बोलो—णमो जिणाणं,णमो ओहिजिणाणं, णमो परमोहिजिणाणं।
दोनों मुनि — (हाथ जोड़कर) णमो जिणाणं,णमो ओहिजिणाणं,णमो परमोहिजिणाणं।
श्रीधरसेनाचार्य — भगवान महावीर ने ग्यारह अंग, चौदह पूर्वरूप जिनवाणी को द्वादशांगमय बतलाया है सो अब आगे उसी जिनवाणी को समस्त प्राणियों तक पहुँचाना है। तुम दोनों इसमें पूर्ण सक्षम हो। (गुरुमुख से विद्या प्राप्त कर दोनों मुनिराज अत्यन्त प्रसन्न हैं तथा पूर्ण मनोयोग के साथ वे अपने-अपने पाठ का मनन-चिन्तन करते हैं) (यहाँ दोनों मुनियों को अलग-अलग स्वाध्याय करते हुए दिखावें।) धीरे-धीरे श्रीधरसेनाचार्य ने अपना पूरा ज्ञान उन मुनियों को प्रदान कर दिया पुन: एक दिन—
एक मुनि — (गुरु से) गुरुदेव! आपने हमें अपनी अमूल्य ज्ञान निधि प्रदान की है, हम आपका यह उपकार जन्म—जन्म में भी भूल नहीं सकते हैं।
दूसरे मुनि — भगवन् ! अब हमें आगे के लिए प्रेरणा प्रदान कीजिए कि इस ज्ञान का प्रचार-प्रसार हम कैसे करें ?
श्री धरसेनाचार्य — मुनिवर! तुम लोगों का अध्ययन अब पूरा हो चुका है, अब आगे तुम इसे पुस्तक रूप में लिखकर भविष्य के लिए सुरक्षित कर दो ताकि आने वाले समय में सभी इस ज्ञान से परिचित हो सवें। शिष्यों! मेरी आयु का अन्त अब समीप है अतः मेरी आज्ञा है कि तुम दोनों यहां से विहार करके पास के किसी नगर में जाकर वर्षायोग की स्थापना करो। (यह चर्चा चल रही थी कि कुछ देव-देवी स्वर्ग से अवतीर्ण होकर वहाँ आ जाते हैं और उन गुरू-शिष्य की तथा श्रुतज्ञान की प्रशंसा करते हुए हाथ जोड़कर स्तुति करते हैं)।
सामूहिक वन्दना — सब मिलकर आज जय कहो, महावीर प्रभू की ।
मस्तक झुकाकर जय कहो, श्री वीर प्रभू की ।।
महावीर की दिव्यध्वनी, गणधर ने सुनी है।
फिर क्रम परम्परा से, मुनियों ने गुनी है।
सब में है श्रद्धा आज भी, महावीर प्रभु की।। सब मिलकर.।।
दोनों मुनि — (गुरु से) महाराज! ये लोग अचानक कहां से आ गये हैं?
श्रीधरसेनाचार्य — ये सभी जिनशासन के भक्त हैं अतः आज आप लोगों की तथा आपके ज्ञान की पूजा करने आए हैं।
एक देव — जय हो, महावीर भगवान की जय हो, सरस्वती जिनवाणी माता की जय हो।
दूसरा देव — आचार्य श्रीधरसेन गुरुदेव की जय हो, महामना युगल मुनिराज की जय हो। (सभी देव-देवी उन मुनियों पर पुष्पांजलि करते हुए जय—जयकार कर बैठ जाते हैं पुन:)
आचार्य श्रीधरसेन — (प्रथम मुनि के पास जाकर) मुनिवर! आप धन्य हैं। आज आपके कुछ टेढ़े-मेढ़े दांतों की पंक्ति को देवताओं ने कुन्द पुष्प के समान सुन्दर बना दिया है इसलिए मैं आपको ‘‘पुष्पदंत’’ इस नाम से अलंकृत करता हूँ। (सामूहिक स्वर)श्री पुष्पदंत महाराज की जय हो—३।
आचार्यश्रीधरसेन — (भूतबली मुनिराज के निकट जाकर) आपकी गुरुभक्ति से हम अत्यन्त प्रसन्न हैं और भूत जाति के देवताओं द्वारा विशेष पूज्य होने के कारण आज आपको ‘‘भूतबली’’ इस नाम से अलंकृत करते हुए हम गौरव का अनुभव करते हैं।
सामूहिक स्वर — श्री भूतबली मुनिराज की जय हो—३।
एक देव — (धरसेनाचार्य से) हे आचार्यप्रवर! हम लोग आज धरती पर आपके द्वारा शिष्यों को प्रदान किये गए श्रुतज्ञान की पूर्णता पर श्रुतदेवता की महापूजा-आराधना करने आए हैं।
श्रीधरसेनाचार्य — अति उत्तम, आज आषाढ़ शुक्ला एकादशी तिथि है, देवताओं! जिनवाणी की महापूजा कर अक्षय ज्ञान की प्राप्ति करो, यही मेरा मंगल आशीर्वाद है। यहां देवियों का एक सामूहिक नृत्य दिखाकर इस दृश्य का समापन करें।
नृत्यगीत
जिनवाणी जग मैया! जनम दुख मेट दो।
जनम दुख मेट दो, मरण दुख मेट दो। जिनवाणी़ ।।
मुनिगण माता पुत्र तुम्हारे,गणधर जैसे भइया।
समवशरण सा महल तुम्हारा,तीर्थंकर हैं खिवैया, जनम दुख मेट दो।।जिनवाणी.।।१।।
(गुरुआज्ञा शिरोधार्य कर दोनों मुनिराज वहां से विहार कर देते हैं)
पंचम दृश्य
(श्रीपुष्पदंत और भूतबली दोनों मुनिराज विहार करते—करते गुजरात प्रान्त के ‘‘अंकलेश्वर’’नगर में पहुंच कर श्रावण कृष्णा पंचमी के दिन वर्षायोग की स्थापना करते हैं ।) (गांव का भक्तिपूर्ण दृश्य, जिनमंदिर के अन्दर भक्तगण नारियल च़ढ़ाकर गुरु का वर्षायोग कराते हुए)—
श्रावकों का सामूहिक स्वर — हे मुनिद्वय! आप लोग कृपा करके हमारे नगर में वर्षायोग की स्थापना कीजिए, ताकि हम लोगों को भी कुछ ज्ञान का लाभ प्राप्त हो । श्राविकाओं का स्वर — हां महाराजजी! हम लोग अज्ञानी प्राणी हैं, गुरुसेवा का हमें अवसर प्रदान कीजिए ।
श्रीपुष्पदंत महाराज — अंकलेश्वर नगर के भक्तजन! चूँकि आज हमारे वर्षायोग स्थापना की अंतिम तिथि है। हम इस तिथि का उल्लंघन नहीं कर सकते हैं अतः यहां के वर्षायोग स्थापना की हम स्वीकृति प्रदान करते हैं ।
(मुनिराजों की जय—जयकार से मंदिर गूंज उठता है, दोनों मुनि को पुस्तक से भक्ति पाठ पढ़ते हुए वर्षायोग स्थापना का दृश्य दिखावें ।) ड महानुभावों! श्रुतावतार की प्राचीन कथानुसार वे दोनों मुनिराज इस चातुर्मास में अपनी पढ़ी हुई विद्या का चिन्तन-मंथन करते रहे, भक्तजनों को उन्होंने प्रवचन आदि से लाभान्वित किया, पुन: चातुर्मास समाप्त होने पर दोनों मुनियों ने अलग—अलग दिशा में विहार कर दिया। उसके पश्चात्) (एक गांव का दृश्य है, जहां श्रीपुष्पदंत मुनिराज अपने गृहस्थावस्था के भान्जे जिनपालित को प्रेरणा प्रदान कर दीक्षा दे देते हैं, पुन:)—
पुष्पदंतमुनि — देखो जिनपालित! पूर्व जन्मों के पुण्ययोग से ही मुझे गुरुवर धरसेन के द्वारा कुछ अमूल्य श्रुतज्ञान प्राप्त हुआ है। मैं चाहता हूँ कि अपने पढ़े हुए श्रुत को लिखकर तुम्हें भी उसका अध्ययन कराऊँ ।
जिनपालित — जो आज्ञा गुरुदेव! आपकी यह कृपा मेरे जीवन को धन्य कर देगी ।
श्रीपुष्पदंतमुनि — (सुई से ताड़पत्र पर लिखते हुए शिष्यों को पढ़ाते हुए)
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं,
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।
जिनपालित — भगवन् ! इस णमोकार महामंत्र में कौन सी विशेषता है जो आपने इस ग्रंथ के मंगलाचरण में इसे प्रथम स्थान प्रदान किया है ?
पुष्पदंत — वत्स! यह तो अनादिनिधन और अपराजित मंत्र है। इसके स्मरण मात्र से सभी विघ्नों का नाश होता है और मनोरथों की सिद्धि होती है ।
जिनपालित — स्वामी! आप जिस ग्रंथ को लिख रहे हैं, इसका क्या नाम है ?
श्रीपुष्पदंतमुनि — इस ग्रंथ का नाम है—षट्खंडागम ।
जिनपालित — इस ग्रंथ के द्वारा आप किस विषय से लोगों को परिचित करा रहे हैं ?
श्रीपुष्पदंत मुनि — जिनपालित ! यह ग्रंथ तो काफी बड़े रूप में बनकर तैयार होगा जिसमें भगवान की दिव्यध्वनि के लगभग सभी विषय रहेंगे किन्तु अभी तो मैंने ग्रंथ के ‘‘सत्प्ररूपणा’’नामक प्रथम खंड में बीस प्ररूपणाओं का कथन किया है ।
जिनपालित — गुरूवर! इसमें क्या विषय है, कृपया मुझे जानने की जिज्ञासा है ।
श्रीपुष्पदंतमुनि — इसमें एक इन्द्रिय जीव से लेकर पांच इन्द्रिय तक के सभी जीवों के गुणस्थान,मार्गणा, पर्याप्ति, प्राण आदि बीस प्रकार से पहचान करने की प्रकिया बताई है। जिससे सभी जीव अपनी—अपनी वर्तमान स्थिति का भी ज्ञान कर सकें और आगे अशुभ गति में जाने से बच सकें ।
जिनपालित — भगवन् ! आपकी महिमा धन्य है। आपके ज्ञान से अब दीर्घकाल तक लोग लाभ प्राप्त करेंगे । (कुछ दिनों में १७७ सूत्रों से परिपूर्ण ‘‘सत्प्ररूपणा’’ नामक ग्रंथ को लिखकर श्रीपुष्पदंताचार्य पूर्ण कर देते हैं, पुन: अपने शिष्य से कहते हैं।)—
पुष्पदंत मुनि — बेटा जिनपालित ! मेरे इस हस्तलिखित ग्रंथ को लेकर तुम श्रीभूतबलि महाराज के पास चले जाओ और उनसे मेरी आयु का लघुकाल बताकर कहना कि आगे के गंरथ का लेखन अब आपको करना है । मुनिश्री
जिनपालित — जो आज्ञा गुरुदेव ! (ग्रंथ लेकर कुछ श्रावकों के साथ जाते हैं) मैं आपका समाचार भूतबली महाराज तक अवश्य पहँचाउंगा। (पुनः कुछ दिन बाद मुनिश्री जिनपालित श्रीभूतबलि महाराज के पास पहुंचकर सब समाचार बताते हुए उनके करकमलों में ग्रंथ को दे देते हैं पुन:)—
श्रीभूतबलि मुनि — हे मुनिराज जिनपालित ! मैं अपने गुरू भाई की पूरी बात समझ गया हूं और इस ग्रंथ के आगे के सूत्रों की रचना मैं शीघ्र ही प्रांरभ कर रहा हूँ। (पुनः श्री भूतबलि मुनि ने ताड़पत्र पर सूत्र लेखन प्रारंभ कर दिया ओैर कुछ समय बाद ‘‘षट्खंडागम’’नामक सिद्धान्त ग्रंथों का लेखन पूरा हो गया,तब)
श्रीभूतबलि मुनि — जय हो, श्रुतदेवता की जय हो (सामने रखे ग्रंथों को पंचाग नमस्कार करते हैं) द्वादशांग रूप में जिनवाणी माता को मेरा नमस्कार हो ।
पास में बैठे भक्तगण — भगवन् ! अकस्मात् आपके मुख से यह जय—जयकार का शब्द कैसे निकल पड़ा ?
श्रीभूतबली मुनि — भव्यात्माओं ! आज मैंने गुरू द्वारा पढ़ाये गये श्रुत को ग्रंथ के रूप में लिखकर परिपूर्ण किया है, इसलिए मै बहुत प्रसन्न हूँ ।
एक भक्त—गुरूदेव ! आज की शुभ तिथि कौन सी है ?
भूतबली मुनि — आज ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी नाम की पवित्र तिथि है।
दूसरा भक्त — ग्रंथ रचना पूर्ण होने के कारण तो आज की तिथि और भी ज्यादा सुखद हो गई है।
श्रीभूतबली मुनि — हाँ भव्यों ! आज की तिथि अब श्रुतपंचमी के नाम से प्रसिद्ध होगी।
अनेक भक्त — श्रीभूतबली महाराज की जय हो, सरस्वती माता की जय हो। पूज्य महाराजश्री! आज हम लोग बड़ी धूमधाम से इन ग्रन्थों की महापूजा करना चाहते हैं।
श्रीभूतबली मुनि — अवश्य कीजिए,यह श्रुतपूजा आप लोगों को भी सच्चे ज्ञान का भंडार प्रदान करेगी। (सभी लोग पालकी में ग्रंथों को विराजमान करके खूब ढोल—ढमाके के साथ शोभायात्रा निकालते हैं और श्रुत की महापूजा करते हैं, लगभग दो हजार वर्ष पूर्व की यह ऐतिहासिक घटना है, तब से ही श्रुतपंचमी का पर्व जैन समाज में प्रचलित हुआ है।)