Jambudweep - 7599289809
encyclopediaofjainism@gmail.com
About Us
Facebook
YouTube
Encyclopedia of Jainism
Search
विशेष आलेख
पूजायें
जैन तीर्थ
अयोध्या
पुण्यास्रव पूजा
September 8, 2020
पूजायें
jambudweep
पुण्यास्रव पूजा
पुण्यास्रव व्रत में
अथ स्थापना
(शंभु छंद)
अर्हंत जिनेश्वर सांप्रायिक, आस्रव से रहित पूर्ण ज्ञानी।
ये पुण्य के फल हैं पुण्यराशि, पुण्यास्रव के कारण ज्ञानी।।
हम इनका आह्वानन करके, भक्ती से अर्चा करते हैं।
इनकी पूजन से पापास्रव, नहिं हो यह वांछा करते हैं।।१।।
ॐ ह्रीं सर्वास्रवविरहित-अर्हज्जिनेश्वर! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं सर्वास्रवविरहित-अर्हज्जिनेश्वर! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं सर्वास्रवविरहित-अर्हज्जिनेश्वर! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथ अष्टक
शंभु छंद
सरयू नदि का प्रासुक जल ले, कंचन झारी भर लाये हैं।
जिनवर पद में त्रयधारा कर, भव तृषा बुझाने आये हैं।।
पापास्रव पुण्यास्रव विरहित, ईर्यापथ आस्रव के स्वामी।
पुण्यास्रव सातिशयी होवे, तुम पूजत हों शिवपथगामी।।१।।
ॐ ह्रीं सर्वास्रवविरहित-अर्हज्जिनेश्वराय जन्मजरा-मृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरि चंदन केशर संग, घिसकर कंचनद्रव सम लाये।
जिनवर पद चर्चत वात पित्त, कफ जनित रोग सब नश जायें।।
पापास्रव पुण्यास्रव विरहित, ईर्यापथ आस्रव के स्वामी।
पुण्यास्रव सातिशयी होवे, तुम पूजत हों शिवपथगामी।।२।।
ॐ ह्रीं सर्वास्रवविरहित-अर्हज्जिनेश्वराय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मोती सम उज्ज्वल शालि धुले, जिन सन्मुख पुंज चढ़ाते हैं।
सब द्रव्य भाव मल धुल जावें, शुद्धात्म भावना भाते हैं।।
पापास्रव पुण्यास्रव विरहित, ईर्यापथ आस्रव के स्वामी।
पुण्यास्रव सातिशयी होवे, तुम पूजत हों शिवपथगामी।।३।।
ॐ ह्रीं सर्वास्रवविरहित-अर्हज्जिनेश्वराय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
चंपा बेला अरविंद वकुल, सुरभित पुष्पों को लाये हैं।
निज आत्म गुणों की सुरभि हेतु, जिनचरणों पुष्प चढ़ाये हैं।।
पापास्रव पुण्यास्रव विरहित, ईर्यापथ आस्रव के स्वामी।
पुण्यास्रव सातिशयी होवे, तुम पूजत हों शिवपथगामी।।४।।
ॐ ह्रीं सर्वास्रवविरहित-अर्हज्जिनेश्वराय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
पूरणपोली लाडू बरफी, सेमई खीर ले आये हैं।
सब उदर व्याधि प्रशमन हेतू, प्रभु सन्मुख चरू चढ़ाये हैं।।
पापास्रव पुण्यास्रव विरहित, ईर्यापथ आस्रव के स्वामी।
पुण्यास्रव सातिशयी होवे, तुम पूजत हों शिवपथगामी।।५।।
ॐ ह्रीं सर्वास्रवविरहित-अर्हज्जिनेश्वराय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृत पूरित कंचन दीप लिये, जगमग ज्योती सब ध्वांत हरे।
आरती करें जिनवर सन्मुख, अंतर में ज्ञान प्रकाश भरे।।
पापास्रव पुण्यास्रव विरहित, ईर्यापथ आस्रव के स्वामी।
पुण्यास्रव सातिशयी होवे, तुम पूजत हों शिवपथगामी।।६।।
ॐ ह्रीं सर्वास्रवविरहित-अर्हज्जिनेश्वराय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दशगंध सुगंधित धूप यहाँ, बस धूप घड़ों में खेते ही।
सब अशुभ कर्म जल जाते हैं, मन देह स्वस्थता प्रगटे ही।।
पापास्रव पुण्यास्रव विरहित, ईर्यापथ आस्रव के स्वामी।
पुण्यास्रव सातिशयी होवे, तुम पूजत हों शिवपथगामी।।७।।
ॐ ह्रीं सर्वास्रवविरहित-अर्हज्जिनेश्वराय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
एला केला अंगूर आम, फल मधुर चढ़ाते हैं प्रभु को।
सब ईप्सित फल जाते तत्क्षण, रत्नत्रय फल भी दो मुझको।।
पापास्रव पुण्यास्रव विरहित, ईर्यापथ आस्रव के स्वामी।
पुण्यास्रव सातिशयी होवे, तुम पूजत हों शिवपथगामी।।८।।
ॐ ह्रीं सर्वास्रवविरहित-अर्हज्जिनेश्वराय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंधाक्षत माला नेवज, वर दीप धूप फल अर्घ्य लिये।
प्रभु चरणों करें समर्पण हम, मिल जाय स्वात्मपद इसीलिए।।
पापास्रव पुण्यास्रव विरहित, ईर्यापथ आस्रव के स्वामी।
पुण्यास्रव सातिशयी होवे, तुम पूजत हों शिवपथगामी।।९।।
ॐ ह्रीं सर्वास्रवविरहित-अर्हज्जिनेश्वराय अनघ्र्यपद-प्राप्तये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा
अर्हत्प्रभु के चरण में, धारा तीन करंत।
मुझमें त्रिभुवन में प्रभो! कीजे शांति तुरंत।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
बेला हरसिंगार ले, पुष्पांजलि विकिरंत।
मेरा तन मन स्वस्थ हो, समकितनिधि विलसंत।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य- ॐ ह्रीं कर्मास्रवरहितअनंतकेवलिभ्यो नम:।
जयमाला
दोहा
तीर्थंकर जिनकेवली, आस्रव बंध विमुक्त।
गाऊँ तुम गुणमालिका, मोक्ष तत्त्व से युक्त।।१।।
गीता छंद
जय जय जिनेश्वरदेव तीर्थंकर प्रभू जिनकेवली।
जय सिद्ध परमेष्ठी सकल, आस्रवरहित जिनकेवली।।
इसकी करूँ मैं वंदना, कर जोड़ नाऊँ शीश को।
इनकी करूँ मैं अर्चना, शत-शत झुकाऊँ शीश को।।२।।
साता करम ही आस्रवे, ईर्यापथास्रव नाम ही।
हो केवली के इक समय, झड़ जाय नहिं हो बंध भी।।
आस्रव कहा जो सांपरायिक, सर्व जीवों में यही।
ये कर्म आठों बांधता, इससे भ्रमण जग में सही।।३।।
ये तीव्र मंद व ज्ञात अरु, अज्ञात भावों से कहा।
निज शक्ति के कम या अधिक से, भेद नाना ले रहा।।
मिथ्यात्व पण पण अविरती, पंद्रह प्रमाद त्रियोग हैं।
चारों कषायों से सहित, भावास्रवों के भेद हैं।।४।।
आठों करम में दर्श मोहनि, चरित मोहनि दो प्रमुख।
सम्यक्त्व औ चारित्र को, नाशें अत: ये दु:खप्रद।।
सम्यक्त्व दर्शन ज्ञान चारित्र, मोक्ष के कारण कहे।
अतएव दर्शनमोहनी, हेतू से हम बचना चहें।।५।।
जिनकेवली को रोग हो, आहार भी लेकर जिएँ।
श्रुत में कहा है माँस भक्षण, साधुगण निर्लज्ज हैं।।
जिनधर्म में कुछ गुण नहीं, सुर देविगण बलि मांगते।
इस विधि कहें जो मूढ़ जन वे, दर्शमोहनि बांधते।।६।।
जो केवली श्रुत संघ को, जिनधर्म सुर को दोष दें।
वे मोहनी दर्शन अशुभ को, बांध कर दु:ख भोगते।।
ये सब असत अपवाद हैं, हे नाथ! मैं इनसे बचूँ।
सम्यक्त्व निधि रक्षित करूँ, हे नाथ! भव दुख से बचूँ।।७।।
क्रोधादि अशुभ कषाय का, उद्रेक जब अति तीव्र हो।
चारित्र मोहनि बंध हो, नहिं चरित धारण शक्ति हो।।
चारित्र मोह अनादि से, हे नाथ! निर्बल कर रहा।
मेरी अनंती आत्म शक्ती, छीनकर दु:ख दे रहा।।८।।
करके कृपा हे नाथ! अब, चारित्रमोह निवारिये।
चारित्र संयम पूर्ण हो, भवसिंंधु से अब तारिये।।
प्रभु आप ही पतवार हो, मुझ नाव भवदधि में फंसी।
अब हाथ का अवलंब दें, ना देर कीजे मैं दुखी।।९।।
इन आठ कर्मों में अधिक, बलवान एकहि मोह है।
इसके अट्ठाइस भेद हैं, बहु भेद सर्व असंख्य हैं।।
ये मोहनी ही स्थिती, अनुभाग बंध करे सदा।
ये मोहनी संसार का है, मूल कारण दु:खदा।।१०।।
सब आस्रवों के भेद इक सौ आठ पापास्रव करें।
इस हेतु इक सौ आठ मणि की, जपसरा से जप करें।।
तुम नाम मंत्रों को सदा, जो भव्य जपते भाव से।
वे पाप आस्रव रोककर, नित पुण्य संचें चाव से।।११।।
व्रत पाँच समिती पाँच गुप्ती, तीन दशविध धर्म है।
बारह अनूप्रेक्षा परीषह-जय कहे बाईस हैं।।
ये कर्म आस्रव रोकते, संवर करें मुनिजन धरें।
हे नाथ! इनको दीजिए, हम कर्म आस्रव परिहरें।।१२।।
जिनभक्ति पूजा मंत्र से, बहु पुण्य संपादन करें।
जिनभक्ति से बलभद्र चक्री, तीर्थकर पद भी धरें।।
जिनभक्ति से सब ऋद्धि सिद्धी, पाय शिवललना वरें।
जिनभक्ति से ही भक्त निज, आनंद अमृत रस भरें।।१३।।
हे नाथ! ऐसी शक्ति दो, मैं सर्व ममता छोड़ दूॅँ।
निज देह से भी होउं निर्मम, सब परिग्रह छोड़ दूँ।।
निज आत्म से ममता करूँ, निज आत्म की चर्चा करूँ।
निज आत्म में तल्लीन हो, परमात्म की अर्चा करूँ।।१४।।
ऐसा समय तुरतहिं मिले, निजध्यान में सुस्थिर बनूँ।
उपसर्ग परिषह हों भले, निजतत्त्व में ही थिर बनूँ।।
निज आत्म अनुभव रस पियूँ, परमात्मपद की प्राप्ति हो।
निज ‘ज्ञानमति’ ज्योती दिपे, जो तीनलोक प्रकाशि हो।।१५।।
दोहा
जब तक नहिं परमात्मपद, तुुम पद में मन लीन।
एक घड़ी भी नहिं हटे, बनूँ आत्म लवलीन।।१६।।
ॐ ह्रीं सर्वास्रवविरहितअर्हज्जिनेश्वराय जयमाला पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा।
दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भव्य पुण्यास्रव की पूजा सतत करें।
वे पाप आस्रव का निरोध युक्ति से करें।।
संपूर्ण पुण्यास्रव मिले निज शक्ति को धरें।
कैवल्य ‘ज्ञानमती’ सहित मुक्ति को वरें।।
।इत्याशीर्वाद:।।
Tags:
Vrat's Puja
Previous post
नवग्रह शांति पूजा
Next post
भक्तामर पूजन
Related Articles
तीर्थंकर पंचकल्याणक तीर्थ पूजा
July 29, 2020
jambudweep
श्री शीतलनाथ जिनपूजा!
February 19, 2017
jambudweep
श्री सिद्ध परमेष्ठी पूजा
July 24, 2020
jambudweep
error:
Content is protected !!