चैतन्य एवं ज्ञान-दर्शन स्वभाव वाला आत्मद्रव्य अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण कर रहा है। इस परिभ्रमण के कारण हैं स्वयं उसके द्वारा उपार्जित उसके कर्म। मूलत: कर्मप्रकृतियाँ आठ हैं, जिनके उत्तर भेद १४८ और अवान्तर भेद असंख्यात लोक प्रमाण होते हैं। इन आठ कर्मों में गोत्र नाम का भी एक कर्म है जो अनादिकाल से जीव के साथ लगा हुआ है और चौदहवें गुणस्थानक अन्त तक साथ रहता है। गोत्र कर्म-लक्षण-