आ.सुदृढ़मती माताजी : आज कल लोग कही सुनी बातो पर विश्वास रखकर तुरंत ही चर्चायें चालू करते है और मुनि आर्यिकाओं पर भी दोषारोप लगाते है. आप की इस बारे में क्या राय है ?
ग.प्र.आ.शि.ज्ञानमती माताजी : देखो, जहाँ चतुर्थ काल में सती सीताजी और रामचंद्र जी पर भी दोषारोप हुए थे, तो अब तो ये पंचम काल है.
फिर भी हमारे देखने में एक ऐसा उदाहरण आया था जो इन दोषारोप करने वाले लोगो के आँखों में अंजन डाल देगा. सन १९५४ में आ. देशभूषण महाराज जी का संघ जयपुर शहर में था। कुछ दिन यहाँ रहकर आचार्य श्री का विहार निवाई गाँव की तरफ हुआ।
हम दो क्षुल्लिकायें यहाँ मंदिर के पास एक धर्मशाला में ठहरी हुई थीं।
गर्मी के दिन थे, हमारे पास में एक ब्रह्मचारिणी चन्द्रावती थीं जो कि बाराबंकी की महिला थीं। एक दिन लगभग २ बजे इन्होंने एक लड़के को कुछ रुपये देकर कहा-
‘‘जाओ, मेरे लिए छुहारा (खारिक) ले आओ।’’ वह लड़का बाहर निकला कि पास के ही एक श्रावक ने पूछ लिया- ‘‘तू कहाँ जा रहा है?’’
उसने कहा-‘‘मुझे माताजी ने रुपये दिये हैं, बाजार से छुआरा लेने जा रहा हूँ।’’ इतना सुनकर वह श्रावक धर्मशाला में आकर बैठ गया। न वह लड़का ४ बजे तक आया और न ये महानुभाव वहाँ से उठे। क्षुल्लिका विशालमती जी मेरे से कहने लगीं- ‘‘अम्मा! भला यह कौन श्रावक है? यहाँ क्यों दो बजे से बैठा है?’’
मैंने कहा-‘‘अम्मा! मुझे कुछ पता नहीं।’’
उन्होंने कहा-‘‘इससे कुछ पूछना तो चाहिए।…छोड़ो, अपने को क्या करना? बैठा रहने दो। जब उसकी इच्छा होगी चला जायेगा।’’
इतनी ही देर में वह लड़का आया और ब्र. चन्द्रावती के कमरे की ओर जाकर छुहारे की पुड़िया तथा शेष पैसे संभलवा दिये।
ब्रह्मचारिणी जी कुछ चिढ़ कर बोलीं-‘‘अरे! तूने ५ बजा दिये। मुझे तो आज कब से प्यास लगी थी।’’ वह श्रावक सब देखता रहा। पुनः क्षुल्लिका विशालमती के निकट आकर बोला- ‘‘माताजी! आपके संघ में इन ब्रह्मचारिणी बाई को ‘‘माताजी’’ क्यों कहते हैं?’’
माताजी ने पूछा-‘‘क्यों! माताजी कहना अच्छा ही होता है।’’
उसने कहा-‘‘नहीं, इससे बहुत कुछ अनर्थ हो सकता है। यह ‘उत्तर है, ‘दक्षिण’ नहीं है। देखो, मेरे ही मन में आज गहरी शंका हो गई थी तभी तो २ बजे से मैं यहाँ बैठा था।
यदि आज मैं यहाँ न बैठता तो बाहर यही चर्चा कर देता कि ये क्षुल्लिकायें शाम को छुहारा खाकर पानी पीती हैं।’’
इतना सुनते ही मेरा हृदय एकदम कांप उठा। मैं घबराई हुई विशालमती माताजी का मुख ताकने लगी। विशालमती जी को भी आश्चर्य हुआ तथा इस बात की खुशी भी हुई कि इस श्रावक ने बहुत ही विवेक से काम लिया है जो अपनी शंका का समाधान आप स्वयं अपनी आँखों से ही देखकर कर लिया है। यह सच्चा श्रावक है, सच्चा गुरुभक्त है, इसमें किंचित् भी संदेह नहीं है।
पुनः माताजी ने कहा-‘‘भाई! तुम सच कहते हो। ब्रह्मचारिणी को माताजी न कहकर ‘‘बाई जी’’ ही कहना चाहिए। अब मैं इन्हें माताजी नहीं कहने दूंगी तथा तुमने आज बहुत ही अच्छा किया जो कि हमारी चर्या भी परख ली है और हमें शिक्षा भी दी है। ’’ इनता सुनकर वह श्रावक तो पुनः पुनः हम दोनों को ‘‘इच्छामि’’ कहकर नमस्कार करके चला गया और हम दोनों ने सायंकाल में महाराजश्री के पास जाकर इस घटना को कह सुनाया।
आचार्य महाराज हँसे और बोले- ‘‘वह श्रावक गुरुभक्त था तभी उसने ऐसा किया अन्यथा इसी तरह से तो साधुओं की निंदा शुरू हो जाती है। अज्ञानी लोग ऐसे ही तो मुनियों पर दोषारोपण करने लग जाते हैं।
इस बात से सभी को ये बात ध्यान में रखनी चाहिए की “कानों सुनी और आँखों देखी में बहोत अंतर होता है”