(महाराष्ट्र प्रांत के औरंगाबाद जिले में एक छोटे से कस्बे वीर नामक ग्राम में रामसुख नाम के एक श्रेष्ठी रहा करते थे। उन्होंने ‘‘भाग्यवती’’ नाम की धर्मपत्नी को पाकर मानो सचमुच ही राम जैसे सुख को प्राप्त कर लिया था। गंगवाल गोत्रीय ये दम्पत्ति श्रावक कुल के शिरोमणि थे। प्रतिदिन मंदिर में जाकर देवदर्शन करना, भक्ति, पूजा आदि उनके जीवन के आवश्यक अंग थे। बंधुओं! माता-पिता के संस्कार बालक के ऊपर आना स्वाभाविक बात है। एक रात्रि में भाग्यवती सुख की निद्रा में सोई हुई थीं, तभी रात्रि के पिछले प्रहर में उन्होंने स्वप्न में सपेâद बैल को देखा और प्रसन्नमना हो उठ बैठी)
भाग्यवती – (उठते हुए नौ बार णमोकार मंत्र का पाठ करती है, पुन: सोचती है)- ओह! आज मैंने सफेद बैल को देखा है। हो सकता है कोई होनहार बालक मेरे गर्भ में आने वाला हो। चलूँ। चलकर गुलाबचंद के पिता को बताऊँ। (खुश होती हुई आगे बढ़ जाती है) (रामसुख जी कमरे में बैठे हैं, वह वहाँ पहुँचकर अपने स्वप्न को बताती है)
भाग्यवती – सुनिए, गुलाब के पिताजी! मैंने आज रात्रि के अन्तिम प्रहर में सपने में एक सफेद बैल देखा है।
रामसुख – (स्नेहपूर्वक पत्नी को देखते हुए) भागू! ऐसा लगता है कि तुम एक होनहार बालक की माँ बनने वाली हो। हो सकता है कि संसार में वह बालक तुम्हारे मातृत्व की ख्याति फैलाकर श्वेत वृषभ के समान कीर्ति वाला बन जाये। (भाग्यवती लज्जापूर्वक सिर झुकाकर पति के चरण स्पर्श करती है और प्रथम पुत्र गुलाबचंद के साथ मंदिर जाती है और खुशी के आवेश में बहुत देर तक भगवान की भक्ति-पूजा करती है। इस तरह देखते-देखते नौ माह व्यतीत होने लगे, भाग्यवती को चूँकि तीर्थ वंदना का दोहला हुआ था, अत: वह पति के साथ सिद्धक्षेत्र, अतिशयक्षेत्र आदि की वंदना के लिए गई। देखते-देखते नौ माह व्यतीत हो गए। वि.सं. १९३३, ईसवी सन् १८७६ में आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा के दिन भाग्यवती ने एक अपूर्व चाँद जैसे बेटे को जन्म दिया। उस समय सारे गाँव में खुशियाँ मनाई गर्इं और पुत्र जन्मोत्सव के उपलक्ष्य मे सेठ रामसुख ने गरीबों को खूब दान बाँटा। उन्होंने इस होनहार बालक का नाम रखा-‘‘हीरालाल’’। यथा नाम तथा गुण के अनुसार हीरा सचमुच हीरा था, देखते-देखते वह बालक ८ वर्ष का हो गया और शुभ मुहूर्त में उपनयन संस्कार से संस्कारित होकर श्रावक बन गया। पाठशाला में उसकी विलक्षण बुद्धि देख सब चकित रह जाते थे।
पाठशाला का दृश्य
अध्यापक – (छात्रों से) प्रिय बालकों! मैंने जो पाठ तुम्हें याद करने को दिया था, क्या तुम सबको याद हो गया ?
सभी बालक – जी, गुरुजी, याद हो गया।
अध्यापक – चलो भाई भीमराव, तुम सुनाओ ?
भीमराव – जी गुरु जी, वह राजा रामचन्द्र वनवास…………, जी वनवास…………, क्षमा करना गुरुजी, मैं भूल गया।
अध्यापक – अच्छा, अच्छा, बैठ जा, चलो बेटा सुमेरचंद तुम सुनाओ।
सुमेरचंद – जी….., वो गुरु जी, क्या हुआ ? कल जब मैं यहाँ से घर गया, तो पाठ याद करना ही भूल गया।
अध्यापक – हे भगवन्! ये बालक हैं या शैतानों की टोली। चल बेटा हीरालाल तू सुना। जी गुरु जी। कल आपने सुनाया था कि जब राजकुमार रामचन्द्र पिता के वचनों का पालन करते हुए वनवास के लिए जाने लगे, तो उन्होंने अपने समस्त राजसी वस्त्र-आभूषण त्याग दिए और पीत वस्त्र पहनकर वन की ओर चले। उस समय लक्ष्मण और सीता भी उनके साथ वन को रवाना हुए।
अध्यापक – बहुत सुन्दर बेटा! इधर आओ। (बालक हीरालाल पास में आता है) बेटे! तुम सचमुच होनहार बालक हो (प्यार से सिर पर हाथ फैरते हैं)। हीरालाल! तुम मेरे विद्यालय का गौरव हो, ऐसा लगता है कि तुम भविष्य में बहुत महान व्यक्ति बनोगे। तुम्हारी नम्रता, तुम्हारी गंभीरता प्रत्येक बालक के लिए अनुकरणीय है। (पुन: बच्चों से) बच्चों! तुम्हें बालक हीरालाल से शिक्षा लेनी चाहिए। आज मैं इसे इस कक्षा का मानीटर बनाता हूँ। इससे कुछ सीखकर तुम सब भी अपना भविष्य उज्ज्वल बनाओ। (बालक हीरालाल ने हिन्दी व उर्दू भाषाओं का सातवीं कक्षा तक अध्ययन किया, पुन: पिता की आज्ञानुसार व्यापार कार्य प्रारंभ कर दिया, किन्तु व्यापार करते-करते भी चित्त से उदासीन हीरालाल अपना ज्यादा समय भगवान की पूजा, भक्ति व स्वाध्याय में व्यतीत करते थे। बेटे की उदासीनता और वैराग्य भावों को देखकर माता-पिता उन्हें विवाह बंधन में बांधने की सोचने लगे। बालक हीरालाल सुन्दर, रूपवान व बुद्धिमान तो थे ही, अब जगह-जगह से उसके रिश्ते आने लगे अत: पिताजी एक दिन हीरालाल से बोले- (घर का दृश्य, माता-पिता कुर्सी पर बैठे हैं, हीरालाल प्रवेश करता है)
पिता रामसुख – बेटा हीरालाल! जरा इधर तो आना। हीरालाल – जी पिताजी! कहिए, कोई विशेष कार्य है।
रामसुख – बेटा! अब तुम युवावस्था में आ गये हो, प्रत्येक माता-पिता की तरह हम भी यही चाहते हैं कि तुम घर में आने वाली बहू का चयन स्वयं करो।
माता – हाँ मेरे लाल! मुझे तो तेरे जैसी ही सुन्दर व सुघड़ बहू चाहिए, जो हमारी कुछ सेवा कर सके। (उस समय हीरालाल संकोचवश कुछ भी न बोल सके लेकिन ‘‘जल तें भिन्न कमल की भांति वे संसार को असार मानते थे, अत: एक दिन संकोच छोड़कर वे माता-पिता के समक्ष पहुँच जाते हैं और पिता के चरण स्पर्श करते हुए निवेदन करते हैं-)
हीरालाल – प्रणाम पिताजी! रामसुख – खुश रहो बेटे। कहो! क्या बात है ?
हीरालाल – पिताजी! आप व्यर्थ ही मेरे विवाह के लिए परेशान हो रहे हैं। मुझे इस संसाररूपी कीचड़ में नहीं फसना है, मुझे तो भगवान महावीर के पथ पर चलकर अपनी आत्मा का कल्याण करना है। पिताजी! मेरा दृढ़ निश्चय है कि मैं शादी नहीं करूँगा। (इतना सुनते ही माता-पिता दंग रह जाते हैं, तब आँखों में आंसू भरकर माँ कहती हैं-
माता – अरे हीरा! मैंने अपनी छोटी बहू को पाने के लिए बड़े अरमान संजोए हैं। (पुन: डांटती हुई) अरे पगले! एक शब्द कहकर तू हम लोगों को निराश करना चाहता है, यह तो हर माता-पिता का कत्र्तव्य है। देख! तू हमारा दिल नहीं तोड़ेगा, ऐसा मुझे पूरा विश्वास है।
हीरालाल – (गंभीरपूर्वक माँ को समझाते हुए)-हे माँ! यही तो मोह की लीला है। पर वास्तव में न तो कोई किसी का पुत्र है और न ही कोई किसी के माता-पिता। प्रत्येक प्राणी की आत्मा भगवान आत्मा है और मुझे उसी को प्रकट करना है।
माता – (चिंतित होकर) यह क्या कह रहा है तू ?
हीरालाल – देखो माँ! मैं ब्रह्मचारी रहने की प्रतिज्ञा कर चुका हूँ। मेरी आपसे हाथ जोड़कर प्रार्थना है कि आप मुझे संसार में मत फसाइए, मैंने तो मुक्तिरूपी कन्या को आपकी बहू बनाने का पूरा निश्चय कर लिया है, जिसे पाने के बाद बार-बार मुझे विवाह के लिए चिंता ही नहीं करनी पड़ेगी। (पुन: माँ के चरणों में बैठकर) हे माँ! मुझे आशीर्वाद दे कि मैं इस पथ पर बिना किसी विघ्न-बाधा के बढ़ता जाऊँ। (बेचारी माँ उसके सिर पर हाथ तो रखती है, लेकिन फूट-फूटकर रोने लगती है। इधर पिता रामसुख सोचते हैं कि क्या सचमुच मेरा बेटा मुझे छोड़कर चला जायेगा, सोचते-सोचते भावविह्वल हो उठकर उसे छाती से लगाते हुए रोने लगते हैं-
पिता रामसुख – अरे मेरे चाँद! तू समझता है कुछ, त्याग में कितने कष्ट हैं। इतना सुकुमार बालक, ब्रह्मचर्य व्रत लेना तलवार की धार पर चलने जैसा है। नहीं, नहीं, तू मुझे छोड़कर कहीं नहीं जा सकता है। बेटा! मेरी बात मान, शादी करके घर बसा ले, मेरे बुढ़ापे का सहारा बन। देख मैं तेरा वियोग सहन नहीं कर सकता। (इतना कहकर उसे पुन: छाती से चिपकाकर रोने लगते हैं। चूँकि हीरालाल भी अब कोई नादान बालक नहीं थे। वे परिवार की सारी स्थिति को देखते हुए ब्रह्मचारी के रूप में घर में रहकर माता-पिता की सेवा करते हैं। रामसुख जी भी कुछ आश्वस्त हो जाते हैं कि चलो बहू नहीं बेटा तो हमारे पास है। घर में रहकर रसपरित्यागपूर्ण भोजन करते और शास्त्रों का मनन-चिंतन करते उन्हें कई वर्ष व्यतीत हो जाते हैं। कुछ दिनों बाद रामसुख जी का स्वर्गवास हो जाता है। पितृवियोग के पश्चात् कुछ ही समय बाद माता भी स्वर्गस्थ हो गर्इं, अब हीरालाल के पास सबसे प्रबल संबल ज्ञान का था। बड़े भाई के पास रहते हुए अपनी मंजिल को निराबाध जानकर भी योग्य गुरु के अभाव में वे सन् १९१६ में औरंगाबाद के निकट कचनेर अतिशय क्षेत्र पर धार्मिक पाठशाला खोलकर वे बालकों को नि:शुल्क अध्ययन कराने लगे और गुरु जी के नाम से मशहूर हो गये। सात वर्षों तक अध्ययन करवाकर जनमानस में जैनधर्म का खूब प्रचार-प्रसार करने के बाद सन् १९२१ में उन्हें ज्ञात हुआ कि नांदगाँव में ऐलक पन्नालाल जी का चातुर्मास हो रहा है, वह दर्शन की तीव्र लालसा से वे वहाँ पहुँच जाते हैं।)
हीरालाल जी – (ऐलक पन्नालाल जी के पास पहुँचकर)-इच्छामि महाराज जी!
ऐलक जी – सद्धर्मवृद्धिरस्तु।
हीरालाल जी – हे पूज्यवर! आज आपके दर्शन करके मेरा मन कृतार्थ हो गया।
ऐलक जी – हे भव्यात्मन्! कौन हो तुम, कहाँ से आए हो, तुम निश्चित ही भव्य प्राणी हो। कहो! क्या कहना चाहते हो ?
हीरालाल जी – पूज्य श्री! मैं औरंगाबाद के श्रेष्ठी रामसुख जी का पुत्र हूँ, आत्मकल्याण की भावना से आपके पास आया हूँ। कृपया मुझे सप्तम प्रतिमा के व्रत देकर कृतार्थ करें।
ऐलक जी – (पिच्छी उठाकर मंत्र पढ़ते हुए) हे वत्स! आज आषाढ़ शुक्ला ग्यारस है। आज मैं तुम्हें श्रावक के व्रत प्रदान करते हुए सप्तम प्रतिमा देता हूँ।
हीरालाल – (साष्टांग प्रणाम कर) अहो! मैं धन्य हो गया गुरुवर, मेरा जीवन सफल हो गया। (वहाँ और भी श्रावक पास में बैठे हुए इनके वैराग्य की प्रशंसा कर रहे हैं। तभी एक श्रावक उनसे पूछता है)-
खुशालचंद – भाई! तुम्हारा ललाट तो खूब ही चमक रहा है, सचमुच वैराग्य का प्रभाव ही ऐसा है।
हीरालाल – हाँ भाई! जिसको यह अमृत मिल जाए, फिर उसके समक्ष सारे संसार के सुख फीके हैं।
खुशालचंद – अच्छा! क्या सचमुच इसमें इतना आनन्द है फिर तो मैं भी इसका रसास्वादन करना चाहूँगा।
हीरालाल – अवश्य मित्र! परन्तु आप अपने इष्ट-मित्रों से पूछ तो लें। क्या आप यही के निवासी हैं।
खुशालचंद – हाँ, हाँ बंधुवर! मैं यहीं का एक श्रावक खुशालचंद हूँ, आज मैं तुम्हारा अभिन्न मित्र हूँ। और देखो! मैं किसी से पूछने नहीं जाता, भला कोई वैराग्य में शीघ्रता से जाने देता है।
हीरालाल – तब तो मित्र! देर काहे की। तुम भी सप्तम प्रतिमा के व्रत ग्रहण कर लो। (दोनों ही सप्तम प्रतिमा के व्रत ग्रहण कर राम-लक्ष्मण की जोड़ी के सदृश रहकर अपने वैराग्य को वृद्धिंगत करते हुए रसपरित्याग, उपवास आदि करते थे और इसी अवस्था में ही दोनों ने घी, नमक, तेल और मीठा का जीवनपर्यंत के लिए त्याग कर दिया। बंधुओं! कहते हैं ना, सच्चे हृदय से भाई गई भावना अवश्य ही फलीभूत होती है। एक बार हीरालाल जी को ज्ञात हुआ कि दक्षिण के कोन्नूर ग्राम में चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज विराजमान हैं। बस फिर क्या था, दोनों मित्र चल पड़े। लेकिन वे थे परीक्षाप्रधानी, सो वे करने लगे महाराज श्री की परीक्षा, देखिए होता है क्या ?) दोनों ब्रह्मचारी वहाँ पहुँचते हैं, बहुत से श्रावकों के बीच महाराज जी बैठे हैं, वे दोनों बिना नमस्कार किए वहाँ जाकर बैठ जाते हैं। कहते हैं-
हीरालाल जी – महाराज! हम आपको सच्चा साधु नहीं मानते।
आचार्यश्री – अरे भइया! तुम मानो या ना मानो हमें कौन सा फर्व पड़ता है। हम ने जो आगम में पढ़ा, वैसी चर्या अपनाई है और वैसा ही वेश है। यह मुनि परम्परा तो पंचमकाल के अंत तक चलेगी।
हीरालाल – लेकिन हम कैसे माने कि इस पंचमकाल में भी सच्चे साधु हैं।
आचार्यश्री – भव्य प्राणी! वो सामने देखो, वह किस चीज का पेड़ है ?
खुशालचंद – महाराज! वह तो आम का पेड़ है।
महाराज श्री – लेकिन उसमें तो आम लगा नहीं, फिर तुमने वैâसे जाना कि वह आम का पेड़ है ?
हीरालाल – उसके पत्रादि को देखकर पता लग रहा है कि वह आम का पेड़ है, अभी आम का सीजन नहीं है, ना महाराज जी! इसलिए इसमें आम नहीं है।
महाराज श्री – बिल्कुल ठीक कहा वत्स तुमने! है तो वह आम का ही पेड़, लेकिन मौसम आने पर ही फल देगा, ठीक वैसे ही हमारी चर्या मुनियों की चर्या है, हमारा वेष दिगम्बर वेष है, फर्व मात्र इतना है कि पंचमकाल में मोक्ष नहीं है, लेकिन हम इसी वेष से आगे क्रम-क्रम से संसार परम्परा को समाप्त कर जब मोक्ष जाने का मौसम यानी काल आएगा, तभी मोक्ष जाएंगे। (दोनों ही आचार्यश्री के इस उत्तर से निरुत्तर हो एक-दूसरे का मुँह देखने लगते हैं और गुरुदेव के चरणों में साष्टांग लेट जाते हैं)
हीरालाल, खुशालचंद – हे संसारसिन्धुतारक गुरुवर! आज हमारे दर्शन कर हमारा मानव जीवन धन्य हो गया। आप सचमुच सच्चे साधु हैं। प्रभो! हमें भी मोक्षप्रदायिनी ऐसी परम पावन जैनी दीक्षा प्रदान करें।
आचार्यश्री – (उन दोनों के त्याग व वैराग्य को देखकर) हे भव्य प्राणियों! आप लोग निकट मोक्षगामी लगते हैं, मैं आपको दीक्षा अवश्य दूँगा परन्तु आप लोग एक बार घर जाकर परिवारजनों को संतुष्ट करके क्षमायाचनापूर्वक आज्ञा लेकर आवें।
दोनों ब्र.-अवश्य गुरुदेव अवश्य! आपकी आज्ञा शिरोधार्य है। हम शीघ्र ही घर जाकर आते हैं। नमोस्तु गुरुवर, नमोस्तु। (दोनों ब्र. शीघ्र ही अपने-अपने घर पहुँचकर क्षमायाचना आदि करते हैं। ब्र. हीरालाल जी जब बड़े भाई-भाभी से क्षमायाचना करते हें, तब उनका हृदय विह्वल हो उठता है। यद्यपि वह जानते थे कि यह घर का हीरा नहीं अपितु संसार को प्रकाशमान करने वाला हीरा है। फिर भी मोह के आवेश में अश्रुधारा बह उठती है और वे कहते हैं-)
गुलाबचंद – भाई! अब तुमने सप्तम प्रतिमा ले ही ली है, अत: अब घर में रहकर धर्माराधना करो, मैं कभी उसमें बाधक नहीं बनूँगा। लेकिन मेरे हीरा, मुझे अकेला छोड़कर मत जाओ।
भाभी – (हीरा के चरणों का स्पर्श करती हुई)-भैया! मुझ अभागन को तो सास-ससुर की सेवा, उनका प्यार-दुलार तो नसीब नहीं हुआ, अब आप भी चले जाओगे तो हमारा कौन रह जाएगा, आप हमें छोड़कर मत जाइए, हमें भी सेवा का कुछ मौका दीजिए।
हीरालाल – (भईया-भाभी को समझाते हुए) भैय्या, भाभी! आप तो मेरे माता-पिता के समान हैं। देखिए न! हम लोगों ने इस असार संसार में भटकते हुए न जाने कितने दु:ख उठाए हैं। बड़े पुण्य से मनुष्य जन्म पाकर त्याग के भाव बने हैं। इसलिए आप लोग मुझे न रोवें और खुशी-खुशी अनुमति प्रदान करें, मेरा प्रत्येक पल आत्म चितन में रमने को आतुर है। (दोनों एक क्षण तो स्तब्ध रह जाते हैं किन्तु उस आत्मपथ के पथिक को रोक नहीं पाते और उसे खूब-खूब आशीर्वाद प्रदान करते हैं। सम्पूर्ण मोह का त्यागकर हीरालाल खुशालचंद को लेकर आचार्यश्री के पास कुम्भोज पहुँचते हैं और उन्हें नमन कर पुन: दीक्षा की याचना करते हैं)-
दोनों ब्रह्मचारी – (आचार्यश्री को नमन करके) नमोस्तु आचार्यश्री। हम घर से आज्ञा लेकर आ गए हैं, हमारा वैराग्य उत्कृष्ट है हमें मुनिदीक्षा प्रदान करें।
आचार्यश्री – हे भव्ययुगल! तुम लोग खूब सोच विचार लो। इसे मात्र लेना नहीं अपितु निरतिचार पालना अति आवश्यक है, इसको लेना तलवार की धार पर चलने के समान है। यह दीक्षा कष्ट उपसर्ग आदि आने पर भी छोड़ी नहीं जाती। क्या तुम २८ मूलगुणों का पालन कर सकते हो। दोनों-अवश्य गुरुदेव! हम प्राणप्रण से इस बात के लिए कटिबद्ध है हम शरीर का त्याग कर देंगे, लेकिन दीक्षा लेकर इसमें कोई शिथिलता नहीं आने देंगे। – (पुन: एक बार दृढ़ता की परीक्षा करते हैं) शिष्यों! यदि तुम वास्तव में संसार से विरक्त होकर आए हो और इन कष्टों को सहने की क्षमता रखते हो, तो मैं तुम्हें अवश्य दीक्षा दूंगा।
दोनों-हे गुरुदेव! आप ही हमारे सर्वस्व हैं, आप अकारण बंधु हैं, जो हमें संसार समुद्र से पार लगा रहे हैं। हम अबोध बालक बस आपकी ही शरण में हैं। (आचार्य श्री उन्हें अपना शिष्य बनाकर उन्हें धार्मिक अध्ययन कराते हैं, श्रावक की चर्या, उनके कत्र्तव्य आदि बताकर ग्यारह प्रतिमाओं का स्वरूप बताते हैं और सन् १९२३ की फाल्गुन शुक्ला सप्तमी को सर्वप्रथम दोनों कोे क्षुल्लक दीक्षा प्रदान करते हैं, उस समय दीक्षा का समाचार सुनकर सारी जनता उमड़ पड़ती है और उनके वैराग्य की प्रशंसा करती है। आचार्यश्री दीक्षा के पश्चात् ब्र. हीरालाल को क्षुल्लक वीरसागर और ब्र. खुशालचंद को क्षुल्लक चन्द्रसागर नाम देते हैं, जिसका सभी जयकार के साथ स्वागत करते हैं। दोनों क्षुल्लक जी आचार्य श्री के दाएँ-बाएँ हाथ के समान पदविहार करते हुए धर्मप्रभावना करते हुए समडोली ग्राम में पहुँचते हैं। चूँकि क्षुल्लक वीरसार जी को अभी पूर्ण संतुष्टि नहीं थी अत: वे पुन: आचार्यश्री से निवेदन करते हैं)-
क्षुल्लक वीरसागर जी-गुरुदेव! मैं मुनिदीक्षा लेना चाहता हूँ। आप विश्वास करें, मैं आपके निर्देशानुसार प्रत्येक चर्या का निर्दोष रीति से पालन करूँगा।
आचार्यश्री – ठीक है वत्स! तुम्हारी तीव्र अभिलाषा को देखते हुए मैं तुम्हें मुनिदीक्षा अवश्य प्रदान करूँगा। (अब क्षुल्लक वीरसागर जी मुनि वीरसागर जी बन गए और आचार्यश्री के प्रथम शिष्य होने का गौरव प्राप्त किया। मुनिदीक्षा के पश्चात् गुरु के साथ दक्षिण से उत्तर तक पद विहार कर १२ चातुर्मास करते हुए गुरु की अनमोल शिक्षाओं को जीवन में गांठ बांधकर रखा। उस समय तक आचार्यश्री के १२ शिष्य बन चुके थे अत: आचार्यश्री ने सभी शिष्यों को धर्म प्रचार हेतु अलग-अलग विहार करने का आदेश दिया। गुरु को छोड़ने की कल्पना मात्र से दु:खी, किन्तु गुरु की आज्ञा शिरोधार्य कर सभी शिष्यगण यत्र-तत्र विहार कर धर्म की खूब प्रभावना करते हैं। आत्मकल्याण के साथ परकल्याण की भावना से गुरु ने अनेक मुनि, क्षुल्लक, ऐलक आदि बनाए, अनेक महिलाओं को आर्यिका, क्षुल्लिका के व्रत प्रदान कर मोक्षमार्ग में लगाया। सन् १९५५ में कुंथलगिरि में जब आचार्यश्री शांतिसागर महाराज की समाधि हुई, उस समय वीरसागर महाराज जयपुर-खानिया में थे। तब आचार्यश्री ने पत्र द्वारा अपना आचार्यपद त्यागकर उन्हें प्रथम पट्टाचार्य घोषित किया। बंधुओं! कौन जानता था कि गुरुभक्ति के फलस्वरूप एक छोटे से गाँव में जन्मा बालक सबका मार्गदर्शक आचार्य बन जाएगा। गुरु के द्वारा प्राप्त आचार्यपद का कुशलतापूर्वक संचालन करते हुए आचार्यश्री ने कई चातुर्मास यत्र-तत्र नगरों में किए। एक बार नागौर में आचार्यश्री चातुर्मास कर रहे थे, उनके पीठ में एक भयंकर फोड़ा हो गया)- अनेक श्रावक बैठे हैं, महाराज को पीठ में फोड़ा होने से तीव्र वेदना और भयंकर ज्वर है, फिर भी वह मुस्करा रहे हैं, श्रावकगण चिंतित हैं।
श्रावक (१) – (दूसरे से)-भइया, क्या इसका कोई इलाज नहीं है, इतना कष्टप्रद फोड़ा फिर भी महाराज मुस्करा रहे हैं, धन्य है इनका त्याग।
श्रावक (२) – हाँ भाई, जैनी चर्या बड़ी कठिन है। हम जैसे श्रावक तो अब तक न जाने कितने इंजेक्शन और दवाइयाँ ले चुके होते।
श्रावक (३) – हाँ भाई! महाराज जी तो शुद्ध प्रासुक औषधि ही लेते हैं, वह भी २४ घंटे में एक बार, क्या करें कुछ समझ में नहीं आता।
श्रावक (२) – क्यों न ऐसा करें कि डॉ. को बुलाकर एक बार निदान तो कर लें।
श्रावक (३) – यह बहुत ठीक कहा तुमने, मैं अभी डॉ. को बुलाकर लाता हूँ। (जाकर डॉ. को बुलाकर लाता है, डॉ. देखता है कि फोड़ा पूरा पक गया है लेकिन भय के मारे चुपचाप पीछे खड़ा है। महाराज शास्त्र-स्वाध्याय में निमग्न हैं। तब एक श्रावक कहता है-
श्रावक – (महाराज जी से हाथ जोड़कर)-महाराज जी! डॉ. आ गए हैं, उनका कहना है कि फोड़े का आपरेशन करना होगा।
आचार्यश्री – (एक नजर डॉ. पर डालकर पुन:)-भाई! तुम मुझे यह बता दो कि इस आपरेशन में कितना टाइम लगेगा, मैं इंजेक्शन तो लगवाऊँगा नहीं।
डॉ.- गुरुदेव! आपके इतने बड़े फोड़े का आपरेशन बिना बेहोशी के हो पाना असंभव है, आप इस असह्य वेदना को सहन नहीं कर सकते।
आचार्यश्री – भैय्या! हम तो अनादिकाल से जन्म-मरण के दुख सहन कर रहे हैं फिर यह कौन सा कष्ट है ? तुम अपना काम शुरू करो, बस मुझे समय बता दो। (महाराज की दृढ़ता देख डॉ. ने काँपते हाथों से औजार निकाला और महाराज को एक घंटे का समय दिया। उसने सोचा इतने पैने औजार लगते ही चीत्कार कर उठेंगे परन्तु डॉ. भी यह देखकर दंग रह गया कि वे तपस्वी अपने चिंतन में मग्न हैं और उनने उफ तक नहीं की है। वह कहता है-)
डॉ.- मुनिवर! मैंने आपरेशन कर दिया है। आप महान हैं जो इतनी पीड़ा को सहज रूप में सहन कर लिया। केसे जीता इस पीड़ा को आपने।
आचार्यश्री – भाई! हमारे जैनधर्म में गोम्मटसार कर्मकाण्ड नाम का एक ग्रंथ है उसमें कर्मप्रकृतियों का वर्णन है, मैं इसी का चिंतन कर रहा था कि यह जीव संसार में केसे कौन से कर्म का बंध करता है आदि।
डॉ.- हे स्वामी! मैं आपके धैर्य को बार-बार नमस्कार करता हूँ। (बारम्बार नमस्कार कर चला जाता है) बंधुओं! आचार्यश्री शांत, गंभीर, महापुरुष थे, उनके आगे पशु भी अपनी क्रूरता छोड़ देते थे, हिंसा प्रेमी अहिंसक हो जाते थे। गाँव-गाँव विहार करते हुए उन्होंने अनेक स्थानों पर सदियों से चली आ रही बलिप्रभा को अपने उपदेशों से बंद कराया। उनकी तपस्या के एक नहीं अनेकों चमत्कार उनके जीवन को पढ़ने पर ज्ञात होते हैं। ऐसे महामना गुरुवर ने एक और महान कार्य किया। बीसवीं शताब्दी के प्रथमाचार्य चारित्रचक्रवर्ती शांतिसागर महाराज के प्रथम पट्टाचार्य ने इस वसुधा को प्रथम बाल ब्रह्मचारिणी आर्यिका माता प्रदान कीं, जिन्होंने गुरु की आज्ञा शिरोधार्य कर इस भूतल को अनमोल निधियाँ प्रदान की, जिसे युगों-युगों तक स्मरण किया जाता रहेगा। सन् १९५६ में वैशाख कृष्णा दूज, माधोराजपुरा में चारित्रचक्री गुरुवर की आज्ञा से क्षुल्लिका श्री वीरमती माताजी की आर्यिका दीक्षा हो रही थी, विशाल पाण्डाल लगा था, अचानक चमत्कार सा हुआ, जो सबको आश्चर्यचकित कर गया।) आचार्यश्री वीरसागर महाराज आर्यिका दीक्षा के संस्कार करने से पूर्व सभी को उपदेश प्रदान कर रहे हैं, तभी शोर मचता है-
सामूहिक स्वर-अरे! हटो, हटो, भागो, भागो। सांड आ गया, यह सबको मार गिराएगा।
एक व्यक्ति – हे भगवान्! यह क्या हो रहा है, यह सांड कहीं साधुओं का अहित न कर दे।
तीसरा – अरे, अपनी छोड़ो भइया, गुरुवर की रक्षा करो। (तभी महाराज का शांत स्वर सुनाई पड़ता है)
आचार्यश्री – हे भव्यात्माओं! आप लोग बिल्कुल मत घबराइए, शांत हो जाएग। यह तो बेचारा मूक प्राणी है, किसी को कोई अहित नहीं पहुँचाएगा।
एक व्यक्ति – महाराज जी, वह आपकी ही तरफ आ रहा है, मेरा तो पूरा शरीर कांप रहा है, अरे कोई तो महाराज जी को बचाओ।
महाराज – भव्यात्मन्! डरो मत, कुछ नहीं होगा। (तभी सचमुच चमत्कार होता है, सांड भीड़ को चीरता हुआ महाराज और पूज्य माताजी जिस मंच पर विराजमान थे, वहाँ बने चौक के सामने सिर टेककर पाँच मिनट मानो वंदना मुद्रा में ही खड़ा रह जाता है। तभी जनता आश्चर्यचकित हो ‘वीरसागर महाराज की जय, ज्ञानमती माताजी की जयजयकारों से पाण्डाल को गुंजायमान कर देती है। आचार्यश्री उसे आशीर्वाद देते हैं और जनता उसे स्वादिष्ट मिष्टान्न खिलाती है, ऐसा आचार्यश्री के तप का चमत्कार था। सभी शिष्य प्रतिदिन उनके पास आकर उनसे अमूल्य शिक्षाएँ ग्रहण करते थे और उनका वात्सल्य प्राप्त कर धन्य हो जाते थे। शिष्यगण आचार्यश्री के पास बैठे उनसे शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं, आचार्यश्री उनसे कुशल क्षेम पूछ रहे हैं-
आचार्यश्री – कहिए शिष्यगण! आप सभी का रत्नत्रय एवं स्वास्थ्य सकुशल तो है ? (समवेत स्वर)
शिष्यगण-जी गुरुदेव! आपकी कृपा प्रसाद से हम सकुशल हैं, हे पूज्यवर! आपका रत्नत्रय सकुशल है ?
आचार्यश्री – देखो! मुझे तो दो रोगों ने बहुत परेशान कर रखा है। (सभी चिंतित हो जाते हैं)
एक शिष्य (मुनि)-महाराज श्री! क्या हुआ आपको, आपने हमें कुछ भी नहीं बताया कि कौन से दो रोग प्रतिदिन आपको परेशान करते हैं।
आचार्यश्री – भई, मुझे एक तो भूख लगती है, दूसरे नींद आती है। (सुनकर सभी हँस पड़ते हैं)
मुनि (२) – पूज्यश्री! हमें जीवन निर्माण हेतु एक शिक्षा प्रदान कीजिए ?
आचार्यश्री – देखो! तुम शिष्यगण मेरे अनुशासन में रहकर एकता के सूत्र में बंधे हो, इसीलिए मेरे आचार्यपद की गरिमा है, क्योंकि गुरु से शिष्यों की और शिष्यों से गुरु की शोभा रहती है। आप सब प्रत्येक श्रावक को एक ही शिक्षा दें कि-सुई का काम करो, केची का नहीं।
ज्ञानमती माताजी – हे संसार तारक गुरुवर! सम्यक्त्व की दृढ़ता हेतु क्या करना उचित है ?
आचार्यश्री – कभी तृण मत बनो, पत्थर बनो अर्थात् सदा आगममार्ग में अचल रहो। (पुन:)-ज्ञानमती! तुम सब प्रकार से योग्य हो, संघ संचालन, अनुशासन, ज्ञान आदि में बहुमुखी प्रतिभा की धनी हो, इसलिए मैं चाहता हूँ कि अपना संघ बनाकर पृथक् विहार करो।
माताजी – आपकी आज्ञा शिरोधार्य है गुरुवर! परन्तु मैं गुरु की छत्रछाया से वंचित नहीं होना चाहती हूँ।
आचार्यश्री – मुझे ज्ञात है किन्तु कुछ दिन विहार कर पुन: वापस आ जाना।
माताजी – जैसी आपकी आज्ञा! मेरे लिए कोई शिक्षा गुरुदेव।
आचार्यश्री – ज्ञानमती! तुम्हारे लिए मेरी एकमात्र यही शिक्षा है कि सदैव अपने नाम का ध्यान रखना।
एक अन्य माताजी – (दूसरी से) अरे! आचार्यश्री ने माताजी को केवल एक ही शिक्षा दी, जबकि अन्य शिष्यों को वे कितनी-कितनी शिक्षा देते हैं।
दूसरी माताजी – माताजी! गुरुदेव सदा शिष्य का कुशल जौहरी की भांति परीक्षण कर शिक्षा देते हैं। ज्ञानमती माताजी तो वैसे ही अनमोल हीरा के समान गुणों से भरपूर हैं। (और सचमुच ही गुरु से प्रदत्त उस एकमात्र शिक्षा को आपने अपने जीवन में अंगीकार करके ज्ञानमती माताजी ने अपने नाम को सार्थक कर दिखाया। बंधुओं! आचार्यश्री सचमुच रत्नपारखी थे, उन आचार्यश्री वीरसागर महाराज ने अपने ३४ वर्षों के दीक्षित जीवन में जिनधर्म की पताका को दिग्दिगन्तव्यापी फहराया। सन् १९५७ में उन्होंने जयपुर-खानिया में चातुर्मास किया। उस मध्य उनका शारीरिक स्वास्थ्य अत्यन्त क्षीण हो गया और आश्विन कृष्णा अमावस्या के दिन महामंत्र का स्मरण करते हुए उन्होंने इस नश्वर शरीर का त्याग कर दिया। आज भले ही आचार्यश्री भौतिक शरीर से हमारे बीच में नहीं है किन्तु उनकी अमूल्य शिक्षाएँ आज भी विद्यमान हैं, जिन्हें निज जीवन में उतारकर हम अपने जीवन को कुन्दन बना सकते हैं। आज उन गुरु की महान शिष्या परमपूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी के दर्शन कर, उनकी चर्या को देखकर हम उन महान गुरु की महानता का परिज्ञान कर सकते हैं तो आइए उन गुरु को शत-शत नमन कर हम उनके गुणों को, उनकी शिक्षाओं को अपने जीवन में उतारने का प्रयास करें। ‘जय बोलिए वीरसागर महाराज की जय।’