आधुनिक पीढ़ी दिखे, सुन्दर, सभ्य, विशिष्ट, खान-पान भी शुद्ध हो, धर्म-समाज अभिष्ट ।
किन्तु विडम्बना आज की, रहा न हृदय विवेक, भक्ष्याभक्ष्य अज्ञात सब, आमिष-मिष हैं एक ।
जन्मत ‘मधु’ दिया मात ने, मदिरा दयी चटाय, माँ उरोज नहीं दूध था, डिब्बा दूध पिलाय ।
मैगी, पिज्जा, केक खा, ब्रेड-बटर, फास्टफूड, कोका-कोला, कोल्डड्रिंक, बीयर पी भये श्रूड ।
होटल खाना खा रहे, दम्पत्ति बच्चों संग, फैशन के इस दौर में, सभी विदेशी रंग ।
इधर गरीबों के लिए, ‘मिड-डे-मील’ तैयार, भक्ष्याभक्ष्य चले सभी, खायें शिशु नर नारि ।
नव पीढ़ी अपसंस्कृति, वहकी हुई अशुद्ध, शासन-सत्ता लक्ष्य है, हो जाओ सब गिद्ध ।
रोटी-बेटी शुचिरता, पोंगा-पन्थी होय, कुल मर्यादा-धर्म की, बात न माने कोय ।
धर्म-समाज अरु शिष्ट जन, देखें मुख लटकाय, अब पुरुषारथ चाहिए, भव्य बढ़े सत्कार्य ।
डिब्बे और बाजार का, खाना सभी अभक्ष्य, जैनी हो, टल जा अभी, यहाँ नहीं कुछ भक्ष्य ।
जैसा खाता अन्न है, वैसी चर्या, मन्न, तामस खान रु पान से, मानवता चढ़ा जिन्न ।
आधुनिक पीढ़ी को यदि, परिजन दें संस्कार, शिक्षक और समाज मिल, शुचि चर्या-व्यापार ।
नारी माँ, संस्कार युत, खाये और खिलाय, शुचि आहार-विहार से, बचपन देय सजाय ।
शुद्ध क्षेत्र द्रव्य, काल में, भोजन बने विशुद्ध, घर की नारी दे खिला, प्यार अरु प्रीति शुद्ध ।
स्वस्थ-बलिष्ट शरीर हो, चारित्र-भाव विशुद्ध, पाप-व्यसन अरु भ्रष्टता, मानव बने न गिद्ध ।
दिन खाना, पानी छना, जिन दर्शन हो नित्य, ‘विमल’ नई पीढ़ी रहे, खिले धर्म आदित्य ।