आर्यिका चंदनामती
श्री देवशास्त्र गुरु वन्दन कर, पूर्वाचार्यों को नमन करूँ।
श्री कुन्दकुन्द की परम्परा में, शान्ति सिन्धु को नमन करूँ।।
उन प्रथम शिष्य पट्टाधिपती, आचार्य वीरसागर जी थे।
प्रभु महावीर के लघुनन्दन, छत्तिस गुण रत्नाकर ही थे।।१।।
गुरु चरणों में नमन कर, करूँ सदा गुणगान।
चालीसा का पठन कर, लहूँ आत्मविज्ञान।।२।।
जय हो नग्न दिगम्बर मुनिवर, सत्यपंथ के धारक गुरुवर।।१।।
बिन बोले शिवपथ बतलाते, काया से जिनमत दर्शाते।।२।।
ब्रह्मचर्य की महिमा न्यारी, शिशु सम जात रूप अविकारी।।३।।
महाराष्ट्र के ‘‘ईर’’ ग्राम में, सेठ रामसुख के सुधाम में।।४।।
भाग्यवती का भाग्य खुल गया, नगरी का सौभाग्य खिल गया।।५।।
थी आषाढ़ शुक्ल की पूनम, गुरू पूर्णिमा कहें जिसे हम।।६।।
अट्ठारह सौ छियत्तर सन् में, हीरालाल नाम बचपन में।।७।।
हीरा और लाल बन चमके, मणियों की आभा सम दमके।।८।।
यौवन में नहिं ब्याह रचाया, ब्रह्मचर्य व्रत को अपनाया।।९।।
समन्तभद्राचार्य सदृश थे, गुरु परीक्षा में वे प्रमुख थे।।१०।।
शान्तिसिन्धु के सन्निध जाकर, मस्तक नहीं झुकाया वहाँ पर।।११।।
चर्चा करने बैठे उनसे, बोले तुम मुनि नहिं पहले से।।१२।।
गुरु ने पूछा प्रश्न उन्हीं से, कहो सामने वृक्ष कौन है?।।१३।।
बोले आम्रवृक्ष कहलाता, मौसम में यह फल है लाता।।१४।।
शान्तिसिन्धु ने वचन उचारे, ऐसे ही हम मुनिवर प्यारे।।१५।।
मोक्ष का जब मौसम आयेगा, यही रूप तब फल लायेगा।।१६।।
यह उत्तर सुन शिष्य प्रवर ने, कहा प्रभो! अब जाना मैंने।।१७।।
आज मोक्ष नहिं तो भी मार्ग है, खुला मोक्ष का क्रमिक द्वार है।।१८।।
हे गुरुदेव! समर्पित हूँ अब, शिष्य बना लो मुझे आप अब।।१९।।
सन् उन्निस सौ चौबीस में फिर, गुरु से ले ली दीक्षा मुनिवर।।२०।।
दस वर्षों तक गुरु सन्निध में, रत्नत्रय पाला चउसंघ में।।२१।।
पुनः मिली आज्ञा विहार की, जैन धर्म के शुभ प्रचार की।।२२।।
मिलते रहते थे आपस में, शिष्य गुरू सम्बन्ध प्रबल थे।।२३।।
संघ चतुर्विध बना तुम्हारा, भारत भर में था जो प्यारा।।२४।।
तत्वज्ञान था भरा हृदय में, रहते नित स्वाध्याय मगन थे।।२५।।
हुआ बड़ा फोड़ा अदीठ का, सभी संघ का मन कम्पा था।।२६।।
कैसे सहन वेदना करते, भक्त सभी रो रो कर कहते।।२७।।
डाक्टर ने आप्रेशन करके, देखी दृढ़ता वे भी चकित थे।।२८।।
समयसार का दृश्य दिखाया, शुद्धात्मा का सार बताया।।२९।।
शिष्यों का दुख दर्द पूछते, वत्सलता से उन्हें देखते।।३०।।
सन् पचपन में गुरुवर का पद, पाया तब आचार्य कहें सब।।३१।।
सन् छप्पन में एक परीक्षा, लेकर दी थी इक शुभ दीक्षा।।२।।
पहली क्वांरी कन्या आई, तुमसे आर्यिका दीक्षा पाई।।३३।।
ज्ञानमती यह नाम उचारा, बालसती का पथ विस्तारा।।३४।।
जयपुर में सन् सत्तावन का, चातुर्मास हुआ गुरुवर का।।३५।।
आश्विन कृष्ण अमावस आई, सूरिप्रवर की हुई विदाई।।३६।।
तन से आत्मा पृथव् हो गई, मुख्य लक्ष्य की सिद्धि हो गई।।३७।।
जयपुर खान्या में प्रतीक है, चरण चिन्ह जहाँ पर निर्मित है।।३८।।
प्रथम पट्टसूरी के पद में, मेरी शब्दांजलि अर्पित है।।३९।।
परम्परा से मुक्ति मिलेगी, इस भव में गुरुभक्ति मिलेगी।।४०।।
वीरसिन्धु आचार्य का, यह चालीसा पाठ।
पढ़ते जो श्रद्धा सहित, वे पाते निज ठाठ।।१।।
वीर संवत् पच्चीस सौ, बाइस शुभ तिथि जान।
भादों सुदि दुतिया तिथि, लेते सब गुरुनाम।।२।।
ज्ञानमती गणिनी प्रमुख, की शिष्या अज्ञान।
रचा ‘‘चन्दनामति’’ सुखद, यह गुरुवर गुणगान।।३।।