— डॉ.राजीव प्रचण्डिया
नगर में घनदत्त नाम के एक सेठ थे। अपनी मेहनत और लगन से व्यापार में उन्होंने खूब पैसा कमाया। उनका यह पैसा अधिकांशत: प्याऊ लगवाने सड़कों के इर्द—गिर्द छायादार वृक्ष लगवाने धर्मशालाएँ खुलवाने तथा कूप—वावड़ियों के निर्माण आदि में ही खर्च होता। कुछ ही वर्षो में नगर में उन्होंने अपनी विशेष पहचान बना ली थी। पौ फटते ही उनकी हवेली के बाहर भिखारियों की लम्बी कतारें लग जाती थीं। इन बेचारों के लिए सेठजी एक प्रकार से अन्नदाता थे। जब ये लोग सेठजी को दुआएँ देते तो सेठजी के नेत्र सजल हो उठते। सेठजी तो बड़े दयालु तभा भावुक थे। वे छोटे लोगों तक की कद्र करते थे। गरीब और बेसहारा लोगों की मदद करने में उन्हें बड़ा सुवून मिलता था। पर सेठानी का स्वभाव तो बिल्कुल विपरीत था। यद्यपि वह धर्म—कर्म पूजा—पाठ तो सेठजी से भी ज्यादा करती, पर उसके व्यवहार से सेठानीपन का दम्भ अवश्य टपकता था। वह अपने आगे किसी को समझती नहीं थी इसलिए लोगों में वह सदैव आलोचना का केन्द्र बनी रहती। सेठजी, सेठानी को बहुत समझाते पर उसके सामने वे बेचारे लाचार हो जाते। एक दिन सेठानी बड़बड़ाती हुई सेठजी के पास आकर बोली क्योंजी, आप अपनी कमाई को यूँ ही लुटाते रहेंगे या फिर मेरे लिए एक मंदिर बनवाएँगे। पास में पड़ी हमारी जमीन पर यदि मंदिर बन जाए तो रोज—रोज इतने दूर के चक्कर से तो बचा जा सकता है फिर मुझे अपने मंदिर में ही अपने ठाकुर जी की खूब सेवा करने का मौका मिलेगा, सो अलग। पर एक बात कह देती हूँ कि मेरे इस मंदिर में एक खास वेदी होगी और उसी के सामने चाँदी की एक चौकी होगी जिस पर मेरे सिवाय और कोई पूजा—पाठ नहीं करेगा। सेठजी मन ही मन उसकी इस अज्ञानता पर मुस्कराते रहे। मंदिर बना और वह भी बड़े भव्य रूप में। नगर में अपनी तरह का यह एक ही मंदिर था। दूर—दूर से लोग इस मंदिर में दर्शन करने आने लगे। देवयोग से भक्तों की मुरादें भी इस मंदिर में पूजा करने से पूरी होने लगीं। अत: यहाँ बड़ी भीड़ रहने लगी। सेठानी मंदिर आती तो उसकी चाल में ठसक रहती। वह लोगों से कहती कि देखो, यह मंदिर मेरा है। मैंने इसे बनवाया है। मेरी वजह से लोगों की मन्नतें भी पूरी होती हैं। लोगों को मेरा उपकार मानना चाहिए। और एक अहंकारी अकड़ मुद्रा में वह मंदिर में प्रवेश कर अपनी विशेष चौकी पर विशेष स्थान पर चाँदी के पुष्पों से पूजा–पाठ करती। किन्तु इस सब से उसका पूजा—पाठ तो कम, दिखावा और दूसरों को जलाना अधिक झलकता था। सेठानी मंदिर आए या न आए उसकी चौकी सदा खाली पड़ी रहती किसी की भी उस पर पूजा करने की हिम्मत नहीं होती थी। चतुर्दशी के दिन सेठानी की चौकी पर अपरिचित भक्तिन पूजा करने लगी, क्योंकि इससे उत्तम उसे कोई उपयुक्त स्थान दिखाई न दिया। स्थापनादि कर लेने के उपरान्त ज्यों ही वह पूजा के मन्त्र उच्चारने लगी तभी सेठानी चमक—दमक के साथ मंदिर में प्रवेश हुई, आराध्य के दर्शन तो बाद में पहले उसने अपनी चौकी निहारी। चौकी पर पूजा करते अपरिचिता को देखा तो वह आगबबूला हो गयी। बड़े जोर से झल्ला पड़ी उस बेचारी पर। तुझे किसी ने नहीं बताया कि यह मंदिर मेरा है और यह चौकी भी मेरी है। इस पर मैं ही पूजा कर सकती हूँ और कोई नहीं। व्रती अपरिचिता बीच में से ही उठकर शान्त भाव से यह कहते चली गई कि बाई जी मुझे इस बात का तनिक भी पता न था। मेरी वजह से आपको बेहद कष्ट हुआ। क्षमा करें। सेठानी के अवचेतन में उसका यह व्यवहार गहरा असर कर गया। सेठानी नित्य की भाँति पूजा—पाठ कर अड़तालीस मिनट का णमोकार महामन्त्र का सस्वर पाठ जप कर रही थी तभी यकायक उसे अपने किए व्यवहार पर एकदम ग्लानि हुई। यह मैंने उस बेचारी से क्या कह दिया। सेठानी में विवेक जगा।
भेद—विज्ञान की किरण जब उसमें फूटने लगी तो उसे यह एहसास हुआ कि मंदिर—वेदी और चौकी—ये सब काहे के मेरे हैं। मेरा तो अपना शरीर भी नहीं है। सेठानी में जब यह बोध हुआ तो उसे समस्त संसार और उसका वैभव नश्वर प्रतीत होने लगा। कल तक जिसमें आसक्ति थी आज वह सब विरक्ति का रूप ले रहा था। सच है, णमोकार महामन्त्र का प्रगाढ़ भावना के साथ एकाग्रता लिए सतत चिंतवन एक न एक दिन मोही को निर्मोही बना देता है। और अन्ततोगत्वा उसमें आत्मज्योति प्रज्जवलित हो उठती है।