दंसणविसुज्झदाए विणयसंपण्णदाए सीलव्वदेसु णिरदिचारदाए आवासएसु अपरिहीणदाए खणलवपडि-
बुज्झणदाए लद्धिसंवेगसंपण्णदाए यधाथामे तधातवे साहूणं पासुअपरिचागदाए साहूणं समाहिसंधारणाए साहूणं वेज्जावच्चजोगजुत्तदाए अरहंतभत्तीए बहुसुदभत्तीए पवयण-
भत्तीए पवयणवच्छलदाए पवयणप्पभावणदाए अभिक्खणं अभिक्खणं णाणोवजोगजुत्तदाए इच्चेदेहि सोलसेहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामगोदं कम्मं बंधंति।।४१।।
सूत्रार्थ- # दर्शनविशुद्धता # विनयसम्पन्नता # शील व्रतों में निरतिचारता # छह आवश्यकों में अपरिहीनता # क्षणलव-प्रतिबोधनता # लब्धिसंवेगसम्पन्नता # यथाशक्तितप # साधुओं को प्रासुक-परित्यागता # साधुओं की समाधिसंधारणता # साधुओं की वैयावृत्ययोगयुक्तता # अरहंत भक्ति # बहुश्रुतभक्ति # प्रवचन भक्ति # प्रवचनवत्सलता # प्रवचनप्रभावनता # अभीक्ष्ण-अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगयुक्तता इन सोलह कारणों से जीव तीर्थंकर नाम गोत्र को बांधते हैं।।४१।।
अब यहाँ संक्षेप से इन सोलह कारणों के नाम और लक्षण कहते हैं-
१. दर्शनविशुद्धता भावना-शंका आदि आठ मलदोष और तीन मूढ़ता से रहित जो सम्यग्दर्शन होता है, वही दर्शनविशुद्धता है। यह प्रथम भावना है।
२. विनयसम्पन्नता-ज्ञान, दर्शन और चारित्र के भेद से विनय तीन प्रकार का है, उससे सहित विनयसम्पन्नता है। यह द्वितीय भावना है।
३. शीलव्रतेषु निरतिचारता-सम्यक्त्व सहित पाँच व्रतों में और व्रतों के रक्षण लक्षण वाले शीलों में अथवा गुणव्रत-शिक्षाव्रत आदि सात व्रतों-शीलों में अतिचाररहितपना नाम की यह तृतीय भावना है।
४. आवश्यकों में अपरिहीनता-समता, स्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग इन छह आवश्यक क्रियाओं में हीनता नहीं करना अर्थात् यथासमय आवश्यक क्रियाओं को करना, यह चतुर्थ भावना है।
५. क्षणलवप्रतिबुद्धता-क्षण और लव ये कालविशेष के वाची हैं। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, व्रत, शील, और गुण इनको उज्ज्वल करना, इनके कलंक-दोषों को प्रक्षालित करना अथवा इनके-दोषों को जला देना। प्रत्येक क्षणों में-लवों में सम्यग्दर्शन आदि गुणों को उज्ज्वल करना यह अभिप्राय है। यह पंचम भावना है।
६. लब्धिसंवेग सम्पन्नता-सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र में जीव का समागम लब्धि है और संवेग का अर्थ हर्ष है। लब्धिसंवेग की संप्राप्ति नाम वाली यह छठी भावना है। ७. यथाथाम तथातप-यथाशक्ति बारह प्रकार के तपों में प्रवृत्ति करना चाहिए। यह सातवीं भावना है।
८. साधुप्रासुकपरित्यागता-साधुओं को दर्शन, ज्ञान, चारित्र का दान देना। यह भावना साधुओं में ही संभव है। यह आठवीं भावना है।
९. साधुसमाधि संधारणता-साधुओं को रत्नत्रय में सम्यक् प्रकार से अवस्थित करना। यह नवमीं भावना है।
१०. साधुवैयावृत्ययोगयुक्तता-साधुओं की वैयावृत्ति में-सेवा में योगयुक्त होना, यह दसवीं भावना होती है।
११. अर्हद्भक्ति-घातिया कर्मों से रहित अर्हंतों की और सिद्धों की भक्ति, ऐसी अर्हद्भक्ति नाम की यह ग्यारहवीं भावना है।
१२. बहुश्रुतभक्ति-द्वादशांग के ज्ञानी-उपाध्याय गुरुओं की भक्ति करना, ऐसी यह बारहवीं भावना है।
१३. प्रवचनभक्ति-सिद्धान्त को प्रवचन कहते हैं, उसकी भक्ति नाम से यह तेरहवीं भावना है।
१४. प्रवचनवत्सलता-प्रवचन अर्थात् सिद्धान्त, उसमें होने वाले-उसमें रत हुए ऐसे देशव्रती, महाव्रती और असंयतसम्यग्दृष्टी हैं। उनमें अनुराग होना, ये मेरे हैं ऐसा भाव होना प्रवचनवत्सलता है। यह चौदहवीं भावना है।
१५. प्रवचनप्रभावनता-आगम का अर्थ प्रवचन है, उसकी वृद्धि करना प्रवचनप्रभावना नाम की पंद्रहवीं भावना है।
१६. अभीक्ष्ण-अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगयुक्तता-नित्य ही ज्ञानोपयोग में युक्तपना-तन्मयता का होना यह सोलहवीं भावना है। यहां तक इस सूत्र द्वारा कथित सोलह कारण भावनाओं को कहा गया है। श्री भूतबलि आचार्यवर्य ने इन उपर्युक्त सोलह कारणों को कहा है। धवला टीका में इसी क्रम से इन्हें प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पंचम आदि कहा है।
वर्तमानकाल में ‘‘तत्त्वार्थसूत्र’’ ग्रंथ में कथित जो तीर्थंकर नामकर्म के आस्रव के कारणभूत सोलहकारण भावनाएं हैं, उनके क्रमों में और इनके क्रमों में अन्तर है।
उसे ही दिखाते हैं- (तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथ के आधार से) # दर्शनविशुद्धि # विनयसम्पन्नता # शील व्रतों में अनतिचार # अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग # संवेग # शक्तितस्त्याग # शक्तितस्तप # साधुसमाधि # वैयावृत्यकरण # अर्हद्भक्ति # आचार्यभक्ति # बहुश्रुतभक्ति # प्रवचनभक्ति # आवश्यक अपरिहाणि # मार्गप्रभावना # प्रवचनवत्सलत्व ये तीर्थंकर प्रकृति के आस्रव हैं।।२४।।
ये सोलह कारण सम्यक् प्रकार से भावित किये गये कतिपय हों या संपूर्ण हों, ये तीर्थंकर नामकर्म के आस्रव के कारण हैं ऐसा श्रद्धान करना चाहिए। पूर्वोक्त षट्खण्डागम सूत्र में कथित भावनाओं में और तत्त्वार्थसूत्र में कथित भावनाओं में पंद्रह भावनाएँ तो आगे-पीछे होकर भी समान ही हैं, अर्थात् क्रम में अन्तर है। फिर भी षट्खण्डागम में ‘‘क्षणलवप्रतिबुद्धता’’ नाम की एक भावना है और तत्त्वार्थसूत्र में आचार्यभक्ति नाम की भावना है। दोनों के लक्षण में भी अन्तर है। षट्खण्डागम ग्रंथराज एवं तत्त्वार्थसूत्र में कथित सोलहकारण भावनाओं में अन्तर
# दर्शनविशुद्धता # विनयसम्पन्नता # शीलव्रतों में निरतिचारता # छह आवश्यकों में अपरिहीनता # क्षणलवप्रतिबोधनता # लब्धिसंवेगसम्पन्नता # यथाशक्तितप # साधुओं को प्रासुकपरित्याग # साधुओं की समाधिसंधारणता # साधुओं की वैयावृत्तियोगयुक्ता # अरिहंतभक्ति # बहुश्रुतभक्ति # प्रवचनभक्ति # प्रवचनवत्सलता # प्रवचनप्रभावनता # अभीक्ष्ण-अभीक्ष्णज्ञानोपयोगयुक्तता
इन दोनों प्रकार की भावनाओं को पढ़कर हम सभी साधुगण-आचार्य, उपाध्याय और मुनिगण का तथा गणिनी माताजी एवं आर्यिकाओं का तथा सभी विद्वानों एवं श्रावक-श्राविकाओं का यह कर्तव्य है कि इन दोनों में से किसी एक का आधार लेकर सोलहकारण पर्व में उनका वाचन एवं जाप्य आदि करें। वर्तमान में तत्त्वार्थसूत्र के आधार से ही सारे भारत में जैन समाज में सोलहकारण भावनाओं की वाचना, पूजा एवं मंत्रों के जाप्य की परम्परा चली आ रही है। कोई बाधा नहीं है। हमें दोनों ही प्रकार की भावनाएं मान्य हैं। हाँ, इतना अवश्य है कि आप सभी को इनमें से किसी भी भावनाओं के न तो क्रम बदलने चाहिए और न कोई परिवर्तन, परिवर्धन व संशोधन ही करना चाहिए। आज वर्तमान में प्राय: कतिपय विद्वान् महान गणधरदेव श्री गौतम स्वामी की रचना में, उनके पाक्षिक प्रतिक्रमण आदि में नव पदार्थ व बारहतपों आदि में क्रम बदलने लगे हैं। जिसे देखकर बहुत ही आश्चर्य एवं कष्ट होता है। हम और आप सभी का यही कर्तव्य है कि दोनों महान् श्रेष्ठ आचार्यों को प्रमाणभूत मानकर दोनों के द्वारा रचित सूत्रों को एवं टीकाकारों के द्वारा रचित भाष्य को स्वीकार करके यही शिक्षा लेनी चाहिए कि इन ग्रंथों के सूत्रों के टीकाकारों ने उन्हीं-उन्हीं ग्रंथों के अनुसार टीकाएँ रची हैं। क्या उनके सामने ये दो प्रकार के सूत्र नहीं थे ? अवश्य थे। किन्तु उन्होंने कोई परिवर्तन व संशोधन न करके अपने-अपने ग्रंथकर्ता के सूत्रों के अनुसार ही अर्थ किया है। ऐसा ही हमारा व आपका भी कर्तव्य है।