

श्री तीर्थंकर धर्मनाथ ने, रत्नपुरी में जन्म लिया। 
शीतल झरनों का जल पीकर, तत्काल प्यास कुछ शांत हुई।
चंदन घिस लेपन करने से भी, दाह न मेरी शान्त हुई।
प्रतिक्षण क्षय होती काया में, अक्षय इक आत्मतत्व ही है।
इन्द्रियविषयों को भोग भोग कर, बहुत बार छोड़ा मैंने।
इच्छित पकवानों को खाकर, तन की तो क्षुधा कुछ शांत हुई। 


केवल सुगंधि के लिए प्रभो! मैंने बहु धूप जलाई है। 
हर मौसम के फल खाकर मैंने, तन मन को कुछ तृप्त किया। 


पन्द्रहवें जिनवर धर्मनाथ के, जहाँ चार कल्याण हुए।


श्रीरत्नपुरी तीर्थ की मैं वन्दना करूँ। 