मूलाचार ग्रन्थ में टीका में ‘‘नमोऽस्तूनां शासने’’ पद आया है । उसका अर्थ मैंने ऐसा किया है— तित्थस्स—तीर्थस्य शासनस्य । मइलणा—मलिनत्वं नमोस्तूनां शासने एवंभूता: सर्वेऽपीति मिथ्यादृष्ट्यो वदन्ति । ‘‘तीर्थ का अर्थ शासन है । जिनेन्द्रदेव के शासन को ‘नमोऽस्तु शासन’ कहते हैं अर्थात् इसी दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में मुनियों को ‘नमोऽस्तु’ शब्द से नमस्कार किया जाता है । इस नमोऽस्तु शासन में—जैन शासन में सभी मुनि ऐसे ही (स्वच्छन्द) होते हैं ऐसा मिथ्यादृष्टि लोग कहने लगते हैं ।
१. यहाँ मूलाचार में यह नहीं लिखा है कि ‘‘जैनं जयतु शासनम्’’ को छोड़कर ‘नमोऽस्तु शासनम्’ की जय बुलवाना या प्रचारित करना ।
२. षट्दर्शन के नामों में जैन एक दर्शन माना है । यथा— जैना मीमांसका बौद्धा: शैवा वैशेषिका अपि । नैयायिकाश्च मुख्यानि, दर्शनानीह सन्ति षट् ।। जैन, मीमांसक, बौद्ध, शैव, वैशेषिक और नैयायिक ये छह प्रमुख दर्शन इस देश में हैं । यदि जैन शासन शब्द के स्थान पर नमोस्तु शासन प्रचारित किया जावेगा तो एक दर्शन ही नहीं रहेगा । हम जैनों का अस्तित्त्व खतरे में पड़ जायेगा। इसलिये जैनधर्म व जैन धर्मानुयायियों की रक्षा के लिये ‘जैन शासन’ की जय बोलना, प्रचार—प्रसार करना अति आवश्यक है ।
३. तीसरी बात यह है कि जैन मुनियों के लिये समयसार, प्रवचनसार आदि ग्रन्थों में ‘श्रमण’ शब्द आया है । तथा र्आियकाओं को ‘श्रमणी’ कहा व लिखा जाने लगा था। किन्तु आज श्वेताम्बर—परम्परा में ब्रह्मचारी—ब्रह्मचारिणी वेष में रहने वालों के लिये ‘श्रमण, श्रमणी’ शब्द का प्रयोग हो गया है । अत: हम आर्यिकाओं को ‘श्रमणी’ शब्द का प्रयोग न करके ‘जैन साध्वी’ ‘आर्यिका’ शब्द का प्रयोग ही उचित हो गया है ।
४. चौथी बात यह है कि—धनंजय नाममाला में आया है— ऋषि—र्यति—र्मुनि—र्भिक्षु—स्तापस: संयतो व्रती । तपस्वी संयमी योगी, वर्णी साधुश्च पातु व: ।।१३।। यहाँ मुनि, भिक्षु, तापस व वर्णी शब्द भी मुनि के पर्यायवाची हैं किन्तु वर्तमान में भिक्षु का प्रयोग बौद्ध साधुओं के लिये प्रचलित है । ‘तापस’ शब्द का प्रयोग हिन्दू तापसी साधुओं के लिये प्रसिद्ध है तथा ‘वर्णी’ शब्द का प्रयोग अपने ही दिगम्बर जैन परम्परा में ‘क्षुल्लक’ के लिये ‘‘श्री गणेशप्रसाद वर्णी’ ‘श्री मनोहरलाल वर्णी’ के प्रयोग में प्रसिद्ध रहा है । अत: वर्तमान में दिगम्बर मुनि, आचार्य या उपाध्याय के लिये भिक्षु, तापस और वर्णी शब्दों के प्रयोग उचित नहीं हैं ।
५. आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज कहा करते थे कि— दिगम्बर जैन ग्रन्थों के सिवाय कहीं भी किन्हीं के भी ग्रन्थों में ‘नमोऽस्तु’ शब्द नहीं है । किन्तु ‘नमस्ते’ नमस्तुभ्यं’ आदि हैं । फिर भी वर्तमान में अन्यमतावलंबियों के देवियों के मंत्रों में भी नमोऽस्तु शब्द सुनने में आ रहा है । यथा—‘‘कात्यायनि! नमोऽस्तु ते ।’’ इत्यादि।
इन्हीं अनेक विचारणीय बिन्दुओं से भले ही ‘जैनशासन’ को नमोऽस्तु शासन लिखा है किन्तु जैनधर्म की विशिष्ट व पृथक् पहचान के लिये ‘‘जैनशासन’’ का प्रयोग ही उचित है न कि नमोऽस्तु शासन का प्रयोग। क्योंकि ‘‘जैन शासन’’ व्यापक है और यह नमोऽस्तु शासन उसी के अंतर्गत है ।