शाश्वत श्रमण संस्कृति ने अपने प्रवाह में अनेक उतार—चढ़ाव का अनुभव किया। भगवान महावीर के मोक्ष गमन के बाद अनेक जैनाचार्यों, श्रमणों ने इसे आगे बढ़ाया। बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में तात्कालिक परिस्थितियों एवं धार्मिक सत्तावरोध के कारण दिगम्बर जैन श्रमणों की संख्या में अत्यन्त कमी हुई। कतिपय श्रमण सीमित क्षेत्र में रहकर आत्म साधना करते रहे। श्रमण चर्या शिथिलाचार से युक्त हो गई थी, ऐसे समय में दक्षिण भारत की माटी ने सिंहवृत्ति वाले ऐसे श्रमण को जन्म दिया, जिन्हें सभी चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागरजी महाराज के नाम से जानते हैं, उनके चरणों में नतमस्तक होते हैं। सन् १८७२ में महाराष्ट्र प्रान्त के येलगुल ग्राम में जन्मे बालक सातगौड़ा ने सन् १९२० में दिगम्बरत्व का बाना धारण किया एवं कठोर मुनिचर्या का निर्दोष रीति से पालन करते हुए सम्पूर्ण भारत में कदम—कदम विहार किया।
आचार्यश्री की प्रभावना यात्रा से देशवासियों एवं जैन धर्मावलम्बियों में सत्य—अहिंसा के प्रति आस्था एवं सामाजिक चेतना का विकास हुआ। आपने अपने ३५ वर्षीय मुनि जीवन में सिंहनिष्क्रीड़ित आदि कठोर व्रतों को धारण करते हुए लगभग १०,००० निर्जल उपवास किए तथा आत्म साधना के विकास हेतु लगातार १६—१६ दिन के उपवास भी तीन बार किए थे। जैन मंदिरों एवं संस्कृति की पवित्रता को अक्षुण्ण बनाये रखने हेतु ११०५ दिन तक अन्न का त्याग किया था। ताड़पत्रों में उत्कीर्ण ग्रंथों को दीर्घकालीन सुरक्षा मिले, इस उद्देश्य को लेकर आपकी प्रेरणा से षट्खण्डागम आदि सिद्धान्त ग्रंथों का ताम्रपत्रों में उत्कीर्णन करवाया गया। कोल्हापुर के नरेश ने आपके वचनों का आदर करते हुए बाल विवाह प्रतिबंधक कानून बनाया। नेत्रज्योति कमजोर होने पर आपने रत्नत्रय धर्म की रक्षा हेतु सल्लेखना व्रत धारण कर ३६ दिनों में इस नश्वर देह का विसर्जन सन् १९५५ में कुंथलगिरि सिद्धक्षेत्र पर किया।