गुजरात प्रांत के जूनागढ़ जिले में, अहमदाबाद से ३२७ किलोमीटर की दूरी पर श्री गिरनारजी सिद्धक्षेत्र में २२ वें तीर्थंकर नेमिनाथ भगवान् के दीक्षा, ज्ञान एवं मोक्ष कल्याणक हुए हैं। गिरनार पर्वत का प्राचीन नाम ऊर्जयन्त तथा रैवतक गिरि है। जूनागढ़ से इस पर्वत की ओर जाने वाले मार्ग पर ही वह इतिहास—प्रसिद्ध विशाल शिला मिलती है, जिस पर अशोक, रुद्रदमन और स्कन्धगुप्त सम्राटों के शिलालेख खुदे हुए हैं तथा लगभग १००० वर्ष का इतिहास लिखा हुआ है। यह स्थान ऐतिहासिक व धार्मिक दोनों दृष्टियों से अतिप्राचीन व महत्त्वपूर्ण सिद्ध होता है। इस तीर्थ का सर्वप्राचीन उल्लेख आचार्य कुन्दकुन्द रचित निर्वाणभक्ति (प्रथम शता.) में मिलता है।
अट्ठावयम्मि उसहो, चंपाए वासुपुज्जजिणणाहो।
उज्जंते णेमिजिणो, पावाए णिव्वुदो महावीरो।।१।।
यहीं पर श्री धरसेनाचार्य ने पुष्पदन्त एवं भूतबलि को अंगज्ञान का बोध कराया। भगवान् कुंदकुन्दाचार्य, उमास्वामी, समन्तभद्र, वीरसेनाचार्य आदि बड़े बड़े दिगम्बर जैनाचार्य गिरनार पर आकर रहे। दिगम्बर जैन शास्त्र कहते हैं कि—आचार्य कुन्दकुन्द ने गिरनार पर्वत पर स्थित सरस्वती देवी की मूर्ति से यह घोषणा कराई थी कि दिगम्बर मुद्रा आर्ष और प्राचीन है। चन्द्रगुप्त मौर्य के पश्चात् मौर्य सम्राटों में अशोक, सम्प्रति और सालिसूक गिरनार को भुला न सके। उन्होंने अहिंसा धर्म का प्रचार किया। सम्प्रति ने भगवान् नेमिनाथ का नयनाभिराम मंदिर बनवाया था। ऊपर तक पहुँचने के लिए पत्थरों से तराशी गई १०,.००० सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं। यह वह पावन स्थली है, जिसमें नेमि—राजुल के प्रेम, विरह, वैराग्य तथा नेमिनाथ के दीक्षा , कैवल्य और निर्वाण की अत्यन्त लोमहर्षक गाथायें जुड़ी हैं। सभी श्रद्धालु इस तीर्थ की पवित्र माटी को अपने शीश पर चढ़ाने के लिए आते हैं।