शिलान्यास : ३ जनवरी, १९९७, पञ्च कल्याणक: २९ जनवरी, २००७
मेवाड़ की ऐतिहासिक नगरी उदयपुर के सुरम्य नैसर्गिक परिवेश में उदयपुर-अहमदाबाद राजमार्ग के पाँचवें किलोमीटर पर नैसर्गिक झील गोवर्धनसागर के किनारे छोटी पहाड़ी को कलात्मक रूप से सुसज्जित करके मुक्ताकाश समवसरण तीर्थ का निर्माण किया गया है। यह अनुकृति कृत्रिम और नैसर्गिक रचना कौशल का अनुपम उदाहरण है। अभी तक देश में ऐसी दूसरी संरचना अन्यत्र नहीं है।
शास्त्रों के वर्णन के अनुरूप खुले आसमान के नीचे बनाया गया यह समवसरण तीर्थ वलयाकृत, कोट पगार-परिखा आदि से परिवेष्टित है। चारों ओर से प्रवेश करते ही श्वेत संगमरमर से निर्मित ऊँ मानस्तम्भ और गुलाबी पाषाण से निर्मित भव्य जिनालयों तथा देव-भवनों का दर्शन, धर्म लाभ के सा पुण्यार्जन कराता है, नाट्यशालाएँ, वापिकाएँ और जलवृक्ष (फव्वारे) आदि की रचना तीर्थ की सुन्दर में वृद्धि करती है। बीच-बीच में चौबीस तीर्थंकर भगवन्तों के दीक्षा-वृक्षों का आरोपण और परिक्रम में श्वेत शिला-फलकों को उकेरेगये उनके जीवन-वृत्त दर्शक की दृष्टि को बाँध लेते हैं ।
समवसरण के मध्य में अशोक वृक्ष के नीचे आठवें तीर्थंकर चन्द्रनाथ स्वामी की चार समान अवगाहना वाली विशाल पद्मासन प्रतिमाएँ चारों ओर मुख करके विराजमान की गई हैं। इससे भगवान क हितकारी, सर्वतोभद्र रूप नयन-पथगामी बन जाता है। बारह सभाएँ प्राणी मात्र को समानता का आश्वासन देती हैं। भगवान का प्रभावक प्रभामण्डल भव्यजनों को मंगल की प्रेरणा देता है और छायादार अशोक वृक्ष समस्त शोक और भय दूर करके उन्हें अभय प्रदान करता है। सम्पूर्ण रचना नयनाभिराम बन पड़ी है। नव निर्मित समवसरण तीर्थ अर्हन्त भगवान की उस धर्मसभा का सही प्रतिनिधित्व करता है जिसके माध्यम से जिन धर्म की परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है।
मुक्ताकाश समवसरण तीर्थ के स्वप्न शिल्पी स्व. श्री मोतीलाल एवं श्रीमती गुलाबबाई मिण्डा की कल्पना को साकार करने में उनके उत्तराधिकारी श्री महावीर मिण्डा आदि ने उदारता पूर्वक अपनी सम्पत्ति का सदुपयोग करके अनुकरणीय और सराहनीय कार्य किया है।