पट्टमहादेवी शान्तला होय्यसल वंश के परम प्रतापी, पराक्रमी शासक विष्णुवर्द्धन की रानी थी। इनके पिता का नाम सारसिङ्गय्य हेग्गड़े तथा माता का नाम मानिकव्वे था ।
आपका जन्म कर्नाटक के बेलम्भव ग्राम में शक सं. १०१२ के आस-पास अनुमानित किया जाता है।
शान्तलादेवी ने अपनी माता के पूर्ण संस्कार लिए थे, फलतः वह जिनशासन की परम भक्त थी ।
शान्तलादेवी जब सात-आठ वर्ष की बालिका ही थी तभी उनके क्रिया-कलापों, विचारों तथा व्यवहार से प्रभावित हो, गुरु वोकिमय्य ने भविष्यवाणी की थी कि वह जगत-मानिनी बनकर सारे विश्व में गरिमायुक्त गौरव के साथ पूजी जाने वाली होगी। सचमुच ही जैसे ही शान्तला ने यौवनावस्था में पदार्पण किया तथा होय्यसल वंश के विष्णुवर्द्धन की प्राणवल्लभा बनकर साम्राज्ञी पद को सुशोभित किया तो गुरु की भविष्यवाणी की सफलता के साक्षात् दर्शन हुए और वह लगभग ७०-७५ विशेषणों से अलंकृत हो जगत् मानिनी कहलायी ।
साम्राज्ञी शान्तलादेवी ने श्री धवल आदि ग्रन्थ ताड़-पत्रों पर उत्कीर्ण कराये थे । इन पत्रों पर शान्तलादेवी और विष्णुवर्द्धन के चित्र अंकित हैं।
शान्तलादेवी राजशासन, कला, संगीत तथा धार्मिक, समाज-सेवा आदि कार्यों में निष्णात थी, उनके वैयक्तिक गुणों एवं शासकीय कुशलता के फलस्वरूप तत्कालीन प्रजाजनों ने उन्हें इतने अधिक विशेषणों से अलंकृत किया था कि शायद ही संसार की कोई भी साम्राज्ञी या सम्राट् इतने अधिक अलंकारों से अलंकृत हुआ हो।
शान्तलादेवी ने वेल्गुल के चन्द्रगिरि पर्वत पर गन्धवारण वसदि का निर्माण कराकर शान्तिनाथ भगवान् की पाँच फुट ऊँची कलापूर्ण मनोज्ञ प्रतिमा प्रतिष्ठापित कराई थी।
शान्तलादेवी ने गन्धवारण वसदि के निर्माण के पश्चात् उसके पूजन-प्रक्षाल एवं अभिषेक हेतु वहीं पर एक गंग समुद्र नामक श्रेष्ठ सरोवर का निर्माण कराया तथा वसदि की सुरक्षा एवं दैनिक कार्यकलापों के लिए एक ग्राम भी दान किया।
इनका जीवन पारिवारिक एवं राजनैतिक संघर्षों से भरा हुआ था। राजा द्वारा जैनेतर धर्म को स्वीकार करने पर भी आपने जैनधर्म को नहीं छोड़ा।
शान्तलादेवी ने जैनधर्म की कीर्तिध्वजा को फहराते हुए ४० वर्ष की अल्पायु में ही देह का त्याग किया। उनकी यश-पताका आज भी लगभग नौ सौ वर्ष के इतिहास में निष्कलुष और अक्षुण्ण बनी हुई है। ‘पट्टमहादेवी शान्तला’ नामक पुस्तक चार भागों में प्रत्येक श्रावक-श्राविकाओं को इनका जीवन दर्शन पठनीय है।