हमारी विरासत का एक महत्त्वपूर्ण अंश पाण्डुलिपियाँ हैं, जो जीवन की शैली, धार्मिक भावना सांस्कृतिक सभ्यता और ऐतिहासिक शृंखला का परिचय देती हैं। पाण्डुलिपियों में भारतीय संस्कृति की जानकारी ही नहीं अपितु विश्व के सर्वश्रेष्ठ ज्ञान-विज्ञान, कर्मसिद्धान्त, अध्यात्म, सिद्धान्त, आयुर्वेद, ज्योतिष आदि विषयक जानकारी प्राप्त होती है। ग्रन्थों के सम्पादन एवं पाठ भेदों के मिलान करने में पाण्डुलिपियों की महती भूमिका है।
ग्रन्थों के अंत में जो प्रशस्तियाँ हैं, उनसे तत्कालीन शासकों की परम्परा, आचार्य परम्परा, तत्कालीन रीति-रिवाज, समाज की व्यवस्था आदि से सम्बन्धित जानकारी उपलब्ध होती है। अतः समाज के इतिहास को तैयार करने में प्रशस्तियाँ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
विगत शताब्दियों में साम्प्रदायिक विद्वेष एवं जातीय उन्माद के कारण लाखों पाण्डुलिपियों की होलियाँ जलायीं गईं। हजारों-लाखों पाण्डुलिपियाँ आज भी विदेशी पुस्तकालयों में उपलब्ध हैं।
इन सबके बाद भी हजारों नहीं लाखों की संख्या में जैन पाण्डुलिपियाँ भारत वर्ष के जैन शास्त्र भण्डारों, जिनालयों एवं व्यक्तिगत पुस्तकालयों में मौजूद हैं।
एक ही पाण्डुलिपि की कई प्रतिलिपियाँ करवाकर विद्वानों एवं स्वाध्यायियों को अध्ययनार्थ उपलब्ध कराई जाती थीं। इस तरह एक ही पाण्डुलिपि की प्रतियाँ विभिन्न स्थानों पर प्राप्त हो जाती हैं। विभिन्न पाण्डुलिपि संग्रहालय इसी प्रवृत्ति के परिणाम हैं।
हमें गौरव है कि हमारे पूर्वजों ने इन संग्रहालयों की सुरक्षा करके संस्कृति के संरक्षण में जो योगदान दिया है, वह अपूर्व है और भावी पीढ़ी के लिए एक उदाहरण है। इन संग्रहालयों में प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत, राजस्थानी, हिन्दी, मराठी, कन्नड़ी आदि विभिन्न भाषाओं में लिखित विभिन्न विषयों की पाण्डुलिपियाँ संगृहीत हैं।
भारत तथा विदेशों में उपलब्ध कुल पाण्डुलिपियों में से ४० प्रतिशत पाण्डुलिपियाँ जैन परम्परा एवं प्राकृत भाषा से सम्बन्धित हैं। इनमें भी गुजरात तथा राजस्थान में सर्वाधिक पाण्डुलिपियाँ हैं ।