दिग्व्रतमनर्थदण्ड, व्रतं च भोगोपभोग-परिमाणं।
अनुवृंहणाद् गुणाना-माख्यान्ति गुणव्रतान्यार्या:।।६७।।
इन आठ गुणों में वृद्धि के हेतु त्रय गुणव्रत होते हैं।
पहले व्रत को कहते दिग्व्रत दूजा अनर्थदण्डव्रत है।।
भोगोपभोग परिमाण रूप व्रत कहा तीसरा हितकारी।
ये कहें केवली मुनियों ने अतएव बहुत हैं उपकारी।।
जो मूलगुणों की वृद्धि करते हैं और दृढ़ करते हैं श्री गणधरदेव उन्हें गुणव्रत कहते हैं। उसके दिग्व्रत अनर्थदण्डव्रत और भोगोपभोग परिमाणव्रत भेद हैं। इन तीनों का जो पालन करते हैं वे जगत में अनुपम सुख को प्राप्त करते हैं।।६७।।
दिग्वलयं परिगणितं, कृत्वातोऽहं बहिर्न यास्यामि।
इति सज्र्ल्पो दिग्व्रत-मामृत्यणुपापविनिवृत्त्यै।।६८।।
जो सूक्ष्म पाप से मुक्ती को पाने की इच्छा करता है।
वह दशों दिशाएं सीमित कर निज आवागमन रोकता है।।
आमरण नहीं मैं जाऊँगा सीमित स्थानों के आगे।
ऐसा जो जन संकल्प करे उसके सब कर्मशत्रु भागे।।
दशों दिशाओं की सीमा करके जीवन भर उसके बाहर नहीं जाना। मैं जीवन भर इस मर्यादा के बाहर नहीं जाऊँगा। ऐसी प्रतिज्ञा कर लेना दिग्व्रत है। वह दिग्व्रती मर्यादा के बाहर में सूक्ष्म पाप से भी बच जाता है। अत: घर में रहते हुए भी शान्ति लाभ करता है।।६८।।
मकराकरसरिदटवी-गिरिजनपदयोजनानि मर्यादा:।
प्राहुर्दिशां दशानां, प्रतिसंहारे प्रसिद्धानि।।६९।।
दिग्व्रत में दशों दिशाओं में जो ख्याति प्राप्त स्थान कहें।
वह हैं समुद्र नदियां अठवी पर्वत आदिक कुछ क्षेत्र कहें।।
मैं अमुक शहर अथवा योजन के आगे कभी न जाऊँगा।
ये हैं मर्यादा के प्रकार इनसे निज कर्म नशाऊँगा।।
समुद्र नदी वन पर्वत शहर या ग्राम आदि स्थानों द्वारा, भोजन या कोश प्रमाण से मर्यादा कर लेना। चार दिशा, चार विदिश, ऊपर और नीचे सुरंग आदि में कुछ सीमा निर्धारित कर लेना यह दिग्व्रत है।।६९।।
अवधे-र्बहिरणुपाप-प्रतिविरतेर्दिग्व्रतानि धारयतां।
पञ्च महाव्रतपरिणति-मणुव्रतानि प्रपद्यन्ते।।७०।।
दिग्व्रत के धारक होते हैं स्थूल रूप से महाव्रती।
अवधी के बाहर सूक्ष्म और स्थूल पाप से हो विरती।।
पर प्रत्याख्यानावरण कर्म की अन्तर में सत्ता रहती।
इससे नहिं महाव्रती बनता बस व्रत में सदृशता रहती।।
दिग्व्रती श्रावक के इस मर्यादा के बाहर अणुमात्र भी पाप नहीं होता है। इसलिये उसके पांचों अणुव्रत सीमा के बाहर में पांच महाव्रतरूप से परिणत हो जाते हैं।।७०।।
प्रत्याख्यानतनुत्वान्, मन्दतराश्चरणमोहपरिणामा:।
सत्त्वेन दुरवधारा, महाव्रताय प्रकल्प्यन्ते।।७१।।
प्रत्याख्यानावरणी कषाय अत्यंतमंद हो जाने से।
नहिं होता है अस्तित्व विदित लेकिन सत्ता में रहने से।।
चारित्रमोह के तीव्र उदय से वह चारित्र न धर सकता।
लेकिन अणुव्रत में महाव्रतों की मात्र कल्पना कर सकता।।
प्रत्याख्यानावरण कषाय के मंद हो जाने से चारित्रमोह के परिणाम भी मंदमंद हो जाते हैं। यद्यपि उस दिग्व्रती की ये कषायें विद्यमान हैं इनका अस्तित्व मौजूद है फिर भी मर्यादा के बाहर पाप का लेश न होने से वह अणुव्रत महाव्रत सदृश हो जाते हैं। यह कथन उपचार से माना गया है।।७१।।
पञ्चानां पापानां, हिंसादीनां मनोवच: कायै:।
कृतकारितानुमोदै-स्त्यागस्तु महाव्रतं महताम्।।७२।।
हिंसादिक पाँचों पापों को मन वचन काय से त्याग करे।
कृतकारित अनुमोदन से भी नहिं पापों में जों रुचि रखे।।
छट्ठे आदिक गुणठाणों से उस महाव्रती का नाता है।
वह महापुरुष व्रत संयुत हो तब महाव्रती कहलाता है।।
हिंसा झूठ चोरी मैथुन और परिग्रह इन पांचों पापों का मन वचन काय और कृतकारित अनुमोदना रूप नवकोटि से सम्पूर्णतया त्याग कर देना महाव्रत है इन्हें महापुरुष ही धारण करते हैं।।७२।।
ऊध्र्वाधस्तात्तिर्यग्-व्यतिपाता: क्षेत्रवृद्धिरवधीनाम्।
विस्मरणं दिग्विरते-रत्याशा: पञ्च मन्यन्ते।।७३।।
हैं कुछ प्राणी ऐसे जग में जो दिग्व्रत में अतिचार करे।
ऊपर नीचे विदिशाओं की मर्यादा को वह लांघ रहे।।
क्षेत्रों की जो सीमा की थी उसमें भी वृद्धि कर लेते।
अज्ञान आदि के वश होकर अवधी को भी विस्मृत करते।।
ऊध्र्वभाग की मर्यादा का उलंघन कर देना, अधोभाग की मर्यादा उलंघन करना तिर्यकभाग की मर्यादा का उलंघन करना, क्षेत्रों की सीमा बढ़ा लेना, और की हुई मर्यादा को भूल जाना, ये पांच अतिचार दिग्व्रत के माने गये हैं।।७३।।
अभ्यन्तरं दिग्वधे-रपार्थिकेभ्य: सपापयोगेभ्य:।
विरमणमनर्थदण्डव्रतं, विदु-व्र्रंतधराग्रण्य:।।७४।।
जो दिग्षधन के भीतर भी नहिं बिना प्रयोजन गमन करें।
मन वचन काय की प्रवृत्ति रोक निष्फल पापों से बचा करें।।
इन पापों से विरक्त होना ही अनर्थदण्ड व्रत कहलाता।।
व्रतियों में अग्रेसर प्रभु हैं इस व्रत के सच्चे व्याख्याता।।
दशों दिशाओं में जो मर्यादा की है उसके भीतर—भीतर में बिना प्रयोजन ही मन वचन काय से जो पाप होते रहते हैं उन्हें अनर्थदण्ड कहते हैं। उनका जो रुचि से त्याग करते हैं गणधरदेव उसे अनर्थदण्डव्रत कहते हैं।।७४।।
पापोपदेशहिंसा – दानापध्यान – दु:श्रुती: पञ्च:।
प्राहु: प्रमादचर्या – मनर्थदण्डानदण्डधरा:।।७५।।
इन अनर्थदण्ड के पांच भेद गणधरआदिक ने बतलाये।
पापोपदेश हिंसादानामध्यान दु:श्रुति कहलाये।।
पंचम प्रमादचर्या नामक ये पांचों दण्ड कहाते हैं।
ये बिना प्रयोजन होते हैं अतएव अनर्थ कहाते हैं।।
पापोंदेश, हिंसादान, अपध्यान, दु:श्रुति और प्रमादचर्या ये पांच अनर्थ दण्ड हैं। इनसे सदा पाप का ही आस्रव होता रहता है। तीनों योगों को वश में करने वाले श्री गणधर आदि साधुओं ने ऐसा कहा है।।७५।।
तिर्यक्क्लेशवणिज्या – हिंसारम्भप्रलम्भनादीनाम्।
प्रसव: कथाप्रसङ्ग: स्मर्तव्य:, पाप उपदेश:।।७६।।
पशुओं को वहां बेचने से तुमको धन लाभ बहुत होगा।
दासी आदिक के विक्रय से तुमको महान लाभ होगा।।
हिंसा आरम्भ तथा छल की उत्पादक कथा कहा करते।
ऐसे नर ही पापोपदेश नामक अनर्थ में रत रहते।।
तिर्यक्वणिज्या—तर्यचों के व्यापार का उपदेश देना, क्लेशवणिज्या—दास—दासी आदि के क्लेशकारी व्यापार का उपदेश देना, हिंसोपदेश—हंसा के कारणों का उपदेश देना, आरंभोपदेश—बाग लगाने अग्नि जलाने आदि आरम्भ कार्यों का उपदेश देना, प्रलभोपदेश—ठग विद्या, इन्द्रजाल आदि कार्यों का उपदेश देना। ये सब पापोदेश अनर्थदण्ड हैं।।७६।।
परशुकृपाणखनिन्न-ज्वलनायुधशृङ्गशृङ्खलादीनाम्।
बधहेतूनां दानं, हिंसादानं ब्रुवन्ति बुधा:।।७७।।
फरसा तलवार कुदाली अरू अग्नी कटार सांकल आदिक।
हिंसा के हेतु वस्तुओं को जो देवे बांधे पाप अधिक।।
यह हिंसादान कहा दूजा सब व्यवहारिक परिभाषा है।
यह आत्मा तो है दण्डरहित इसको अनर्थ नहिं भाता है।।
हिंसा के कारणभूत फरसा, तलवार, कुदाली, अग्नि, अनेक प्रकार के शस्त्र, सींगी, विष, सांकल आदि वस्तुओं का देना हिंसादान नामक अनर्थदण्ड कहलाता है।।७७।।
वधबन्धच्छेदादे – द्र्वेषाद्रागाच्च परकलत्रादे:।
आध्यानमपध्यानं, शासति जिनशासने विशदा:।।७८।।
जो रागद्वेष के वश होकर परकी स्त्री धन आदिक का।
कैसे बधबंधन छेदन हो दिन रात विचार करे इसका।।
जिन शासन में प्रवीण जन ने अपध्यान अनर्थ कहा इसको।
जो बुरा सोचते हैं पर का पहले दु:ख मिलता है उसको।।
पर के स्त्री, पुत्र, मित्र आदि का अनिष्ट हो जावे, वे मर जावें, इनको कोई बांध दे, मार दे, काट दे, इनकी हार हो जावे, इत्यादि प्रकार से राग या द्वेष की भावनावश अन्य के प्रति ऐसा चिंतन करना अपध्यान नाम का अनर्थदण्ड है, ऐसा जिन शासन में कुशल जनों ने कहा है।।७८।।
आरम्भसङ्गसाहस – मिथ्यात्वद्वेषरागमदमदनै:।
चेत: कलुषयतां श्रुति-रवधीनां दु:श्रुतिर्भवति।।७९।।
आरम्भ परिग्रह साहस से मिथ्यात्व द्वेष रागमद से।
जो शुद्धात्मा का मलिन करे ऐसे शास्त्रों को सुनने से।।
दु:श्रुतिअनर्थदण्ड नामक यह चौथा दण्ड कहाता है।
जो विषयों में ही लिप्त रहे वह निज संसार बढ़ाता है।।
आरंभ, परिग्रह, साहस, मिथ्यात्व, राग, द्वेष, मद और कामभोग लोभ आदि से मन को मलिन करने वाले ऐसे शास्त्रों का—पुस्तकों का सुनना या पढ़ना अथवा पढ़ाना यह सब दु:श्रुति नाम का अनर्थदण्ड है।।७९।।
क्षितिसलिलदहनपवना-रम्भं विफलं वनस्पतिच्छेदम्।
सरणं सारणमपि च, प्रमादचय्र्यां प्रभाषन्ते।।८०।।
जो प्राणी बिना प्रयोजन के जलगालन भूमि खनन करते।
अग्नी को व्यर्थ जलाते हैं अरू हवा व्यर्थ में हैं करते।।
बिन कारण पूâलपत्तियों को तोड़े अरू व्यर्थ घूमते हैं।
है प्रमादचर्या दण्ड यही जो पर को व्यर्थ घुमाते हैं।।
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु का बिना कारण ही आरम्भ करना अर्थात् बिना प्रयोजन ही भूमि खोदना, जल गिराना, अग्नि जलाना, हवा करना, व्यर्थ ही वनस्पति, अंकुर, वृक्ष आदि को छेदन भेदन करना, व्यर्थ ही इधर उधर घूमना या अन्य का घुमाना ये सब प्रमादचर्या नामक अनर्थदण्ड है।।८०।।
कन्दर्पं-कौत्तकुच्यं, मौखर्य-मतिप्रसाधनं पञ्च।
असमीक्ष्याधिकरणं, व्यतीतयोऽनर्थदण्डकृद्विरते:।।८१।।
इस व्रत में जो अतिचार कहे उनका अब वर्णन करते हैं।
जो हँसी प्रलापों में कुछ भी दुर्वचन बोलते रहते हैं।।
शारीरिक चेष्टा बुरी करें अरू व्यर्थ बहुत बकवास करें।
वे भोग वस्तुओं का संग्रह अति करे, वृथा के कार्य करें।।
हास्य मिश्रित अश्लील वचन बोलना, काय की कुचेष्टा करते हुये अश्लील वचन बोलना, धृष्टता सहित बकवास करना—व्यर्थ ही बहुत बोलना, आवश्यकता से अधिक भोगोपभोग वस्तुओं का संग्रह करना, और बिना विचारे कार्य करना ये वंदर्प, कौत्कुच्च, मौखर्य, अतिप्रसाधन और असमीक्ष्याधिकरण नाम के पाँच अतिचार अनर्थ दण्डव्रत के माने गये हैं।।८१।।
अक्षार्थानां परिसंख्यानं, भोगोपभोगपरिमाणम्।
अर्थवतामप्यवधौ, रागरतीनां तनूकृतये।।८२।।
गुणव्रत का जो तीसरा भेद भोगोपभोग परिमाण कहा।
उसका अब वर्णन करते हैं इस व्रत से मिलता सुख महा।।
जो परिग्रह की मर्यादा थी उसमें भी अधिक प्रमाण करे।
इन्द्रिय विषयों को सीमित कर वह रागरती को कृशित करे।।
परिग्रह परिमाण व्रत में जीवन भर के लिए जो नियम किया था, राग आसक्ति को घटाने के लिए उसी के भीतर भी पंचेन्द्रियों के विषयभूत वस्तुओं का नियम करते रहना भोगोपभोग परिमाण व्रत है। इस व्रत के प्रयोजन से अतिरिक्त वस्तुओं का त्याग हो जाता है।।८२।।
भुक्त्वा परिहातव्यो, भोगो भुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्य:।
उपभोगोऽशनवसन-प्रभृति: पाञ्चेन्द्रियो विषय:।।८३।।
जो वस्तु भोगकर एक बार नहि पुन: भोगने में आती।
उसको ज्ञानीजन भोग कहे जैसे भोजन माला आदी।।
उपभोग वस्तुएँ वस्त्र और वर्तन आदिक कहलाती है।
ये बार—बार भोगी जाती इससे उपभोग कहाती है।।
जो एक बार भोगकर छोड़ दी जाती है वह भोग कहलाती है और भोगकर पुन: भोगने में आती है वह उपभोग है। जैसे, भोजन, गंध आदि भोग हैं और वस्त्र, आभूषण आदि उपभोग हैं।।८३।।
त्रसहतिपरिहरणार्थं, क्षौद्रं पिशितं प्रमादपरिहृतये।
मद्यं च वर्जनीयं, जिनचरणौ शरणमुपयातै:।।८४।।
त्रसहिंसा के सर्वथा त्याग करने के लिए प्राणियों को।
मधु मांस दूर से त्याग करे नहिं पास फटकने दे इनको।।
अरु मोह प्रमाद दूर करने के लिए मद्य का त्याग करे।
जिन चरण शरण को प्राप्त हुआ इन तीनों को नहिं ग्रहण करे।
त्रस जीवों की हिंसा के परिहार हेतु मधु और मांस का सदा के लिए त्याग कर देना चाहिए। तथा त्रसहिंसा और प्रमाद के दूर करने के लिए मदिरा को छोड़ देना चाहिए। जिसने जिनेन्द्रदेव के चरणों की शरण ली है उस श्रावक को जिनेन्द्रदेव की आज्ञा के अनुसार इन तीनों मकारों का त्याग जीवन भर के लिए कर देना चाहिये।।८४।।
अल्पफलबहुविघाता-न्मूलकमाद्र्राणि शृङ्गवेराणि।
नवनीतनिम्बकुसुमं, वतकमित्येवमवहेयम्।।८५।।
जिसके भक्षण से फल थोड़ा अरू पाप अधिक हो जाता है।
ऐसे सचित अदरक मूली मक्खन को छोड़ा जाता है।।
इस व्रत का धारक निम्ब केतकी कुसुम सर्वथा त्याग करे।
स्थावरहिंसा का त्यागी नहिं इन सबमें परिमाण करे।।
जिसके खाने में फल थोड़ा है और स्थावर हिंसा बहुत होती है ऐसी मूली आलू आदिक वंâदमूल, गीली अदरक, मक्खन, नीम के पुष्प केवड़ा के पुष्प आदि को छोड़ देना चाहिए। क्योंकि इनके भक्षण में पाप अधिक होने से व्रतिक जन इनको नहीं लेते।।८५।।
यदनिष्टं तद् व्रतये-द्यच्चानुपसेव्यमेतदपि जह्यात्।
अभिसन्धिकृता विरति-र्विषयाद्योग्याद्व्रतं भवति।।८६।।
इस व्रत में जो अनिष्ट कारक उसका पहले ही त्याग करे।
सत्पुरुषों के सेवन अयोग्य उस अनुपसेव्य का त्याग करे।।
उत्तमपुरुषों से सेवनीय जो पंचेन्द्रिय के विषय कहें।
उनको विधिपूर्वक जो छोड़े उसको ही ज्ञानीव्रती कहें।
।जो वस्तुयें अनिष्ट हैं—हितक और पथ्य नहीं हैं, जो अनुपसेव्य—सज्जन पुरुषों के सेवन योग्य नहीं हैं, इन दोनों को भी छोड़ देना चाहिए। क्योंकि योग्य विषयों में भी प्रतिज्ञापूर्वक किया गया त्याग व्रत कहलाता है।।८६।।
नियमो यमश्च विहितौ, द्वेधा भोगोपभोगसंहारे।
नियम: परिमितकालो यावज्जीवं यमो ध्रियते।।८७।।
यम और नियम के भेदों से यह व्रत दो रूप कहा जाता।
है नियमकाल की मर्यादापूर्वक जो त्याग किया जाता।।
भोगोपभोग परिमाणव्रती का नियम त्याग यह कहलाता।
जीवनपर्यंत त्याग करने को ही यमत्याग कहा जाता।।
भोगापभोग के विषयों के त्याग में नियम और यम ऐसे दो भेद होते हैं। किसी भी वस्तु का कुछ काल के लिए त्याग करना नियम है और जीवन भर के लिए त्याग कर देना यम कहलाता है।।८७।।
भोजन-वाहन-शयन-स्नान-पवित्राङ्गरागकुसुमेषु।
ताम्बूलवसनभूषण – मन्मथसङ्गीत – गीतेषु।।८८।।
भोगोपभोग व्रत का धारक भोजन वाहन अरू शय्या में।
स्नान तथा पुष्पादिक जो धारण करता अपने तन में।।
ताम्बूल वस्त्र अरू अलंकार औ काम भोग की क्रीड़ा में।
जो निज रूचि को कम करता है संगीत गीत नृत्यादिक में।।
अद्य दिवा रजनी वा, पक्षो मासस्तथर्तुरयनं वा।
इति कालपरिच्छित्या, प्रत्याख्यानं भवेन्नियम:।।८९।।
इक घड़ी प्रहर अरू दिन रात्री पन्द्रह दिन अथवा एक मास।
जो कालविभागों के द्वारा है त्याग करे इनका दो मास।।
छह मास आदि का त्याग करे वह त्याग नियम कहलाता है।
व्रत को धरने से निश्चय से मानव सुरगति को पाता है।।
भोजन, वाहन, शय्या, स्नान, पवित्र अंग में सुगन्धित गंध माला आदि, तथा तांबूल—पान, वस्त्र, आभूषण, कामभोग, संगीतश्रवण, गीत नाटक आदि ये सभी भोगोपभोग सामग्री हैं। इनमें से सभी का, किसी एक दो आदि विषयों का, कुछ दिन की मर्यादा से नियम करना। जैसे कि आज एक दिन, या रात्रि, पन्द्रह दिन, महिना, दो महिना, छ: महिना आदि की अवधि से इनका त्याग करना नियम है। जैसे भी हो सके वैसे इन विषयों में लालसा को घटाना ही इस व्रत का हेतु है।।८८, ८९।।
विषयविषतोऽनुपेक्षा-नुस्मृतिरतिलौल्यमतितृषानुभवो।
भोगोपभोगपरिमा-व्यतिक्रमा: पञ्च कथ्यन्ते।।९०।।
भोगोपभोग व्रत के पांचों व्यतिक्रम का वर्णन करते हैं।
जो प्राणी विषय रूप विष से नहिं कभी उपेक्षा करते हैं।।
और भुक्त विषय का पुन:—पुन: स्मरण करे अरू विषयों में।
अतिलोलुपता अतितृषा तथा आसक्ति रहे अतिभोगों में।।
इन विषयरूपी विष का सेवन कर इनकी उपेक्षा नहीं करना सो विषयविषानुपेक्षा नामक अतिचार है। भोगे हुए विषयों का पुन: स्मरण करना, भोगों के भोगने पर पुन: भोगने की इच्छा रखना भविष्य में भी भोगों की अति इच्छा रखना और तात्कालिक भोग वस्तुओं का सेवन करते हुए अति आसक्ति रखना, ये पांच इस भोगोपभोग परिमाण व्रत के अतिचार हैं। गुणव्रती श्रावक इनको छोड़ देते हैं।
इति चतुर्थ परिच्छेद