काश्मीर देश के अन्तर्गत विजयपुर के राजा अरिमंथन के ललितांग नाम का एक सुन्दर पुत्र था। इकलौता बेटा होने से माता—पिता के अत्यधिक लाड़—प्यार से वह विद्याध्ययन नहीं कर सका और दुब्र्यसनी बन गया। युवा होने पर प्रजा को अत्यधिक त्रास देने लगा, तब राजा ने उसे देश से निकाल दिया।
वह चोर डाकुओं का सरदार बन गया और अंजनगुटिका विद्या सिद्ध करके दूसरों से अदृश्य होकर मनमाने अत्याचार करने लगा जिसके कारण अंजन चोर नाम से प्रसिद्ध हो गया।
किसी समय राजगृह नगर में रात्री में राजघराने से रत्नहार चुरा कर भागा। तब कोतवालों ने उसकी विद्या नष्ट करके उसका पीछा किया, वह श्मशान में पहुँच गया। वहाँ पर एक वट वृक्ष में सौ सींकों के एक छींके पर एक सेठ बैठा था। वह बार—बार चढ़—उतर रहा था। चोर ने पूछा, यहा क्या है ? सेठ ने कहा—‘‘मुझे जिनदत्त सेठ ने आकाशगामिनी विद्या सिद्ध करने को दी है। किन्तु मुझे शंका है कि यदि विद्या सिद्ध नहीं हुई तो मैं नीचे शस्त्रों पर गिरकर मर जाऊंगा।’’
अंजन चोर ने कहा—भाई ! तुम शीघ्र ही इसके सिद्ध करने का उपाय मुझे बता दो क्योंकि जिनदत्त सेठ मुनिभक्त हैं। उनके वचन कभी असत्य नहीं होंगे। सेठ ने विधिपूर्वक सब बता दिया। उसने शीघ्र ही ऊपर चढ़कर महामंत्र का स्मरण करते हुए एक साथ सभी डोरियाँ काट दी। नीचे गिरते हुए अंजन चोर को, बीच में ही आकाशगामिनी विद्या देवी ने आकर विमान में बैठा लिया और बोलीं—आज्ञा दीजिए मैं क्या करूं ? अंजन चोर ने कहा कि मुझे जिनदत्त सेठ के पास पहुँचा दो। विद्या देवता ने सुमेरु पर्वत पर पहुँचा दिया। वहाँ पहुँचकर उसने, चैत्यालयों की वंदना करते हुए जिनदत्त से मिलकर नमस्कार करके, सारी बातें बता दीं।
अनंतर सम्पूर्ण पापों को छोड़कर देवर्षि नामक मुनिराज के पास दैगंबरी दीक्षा ले ली। तपश्चर्या के बल से चारण ऋद्धि प्राप्त कर ली। पुन: केवल ज्ञान प्राप्त कर अन्त में वैâलाश पर्वत से मोक्ष पधार गये। नि:शंकित अंग में प्रभाव से अंजन निरंजन (सिद्ध) बन गये।
चम्पापुर के सेठ प्रियदत्त और सेठानी अंगवती के अनंतमती नाम की एक सुन्दर कन्या थी। एक समय आष्टान्हिक पर्व में सेठ ने धर्मकीर्ति मुनिराज, के पास, पत्नी सहित आठ दिन का ब्रह्मचर्य व्रत लिया। उसी समय विनोदवश अपनी पुत्री को भी ब्रह्मचर्य व्रत दिला दिया। युवावस्था में ब्याह के आयोजन में अनंतमती ने व्रतपालन की दृढ़ता रखते हुए ब्याह से इन्कार कर दिया।
किसी समय अनंतमती अपनी सहेलियों के साथ बगीचे में झूला झूल रही थी कि एक विद्याधर उसके रूप पर मुग्ध होकर उसको (अनंतमती को) लेकर भागा। उसकी पत्नी के आ जाने से वह अनंतमती को भयंकर वन में छोड़कर चला गया।
वन से भील ने उसे ले जाकर शील भंग करना चाहा, किन्तु वन देवी ने अनंतमती के शील की रक्षा की। पुन: इस भील ने अनंतमती को पुष्पक सेठ को सौंप दी। सेठ ने भी हार कर वेश्या को दे दी। वेश्या ने भी इसे सिंहाराज नृप को दे दिया। राजा ने भी जब इसका शील भंग करना चाहा तब पुन: वन देवी ने रक्षा की। अनंतर राजा ने इसे वन में भेज दिया। धीरे—धीरे अनंतमती अयोध्या में पद्यश्री आर्यिका के पाच पहुँच गयी। कुछ दिन बाद वहाँ पिता से मिलाप हुआ, किन्तु अनंतमती ने वापस घर न जाकर र्आियका दीक्षा ले ली। तपश्चरण के प्रभाव से समाधिपूर्वक मरण करके वह बारहवें स्वर्ग में देव हो गयी।
वत्स देश के रौखकपुर के राजा उद्दायन बहुत ही धर्मनिष्ठ थे। उनकी रानी का नाम प्रभावती था। एक समय सौधर्म इन्द्र ने अपनी सभा में सम्यक्त्व गुण का वर्णन करते हुए निर्विचिकित्सा अंग में राजा उद्दायन की बहुत ही प्रशंसा की। इस बात को सुनकर एक वासव नामक देव यहाँ परीक्षा के लिए आ गया। उसने कुष्ठ रोग से गलित अत्यन्त दुर्गन्धि युक्त दिगम्बर मुनि का रूप बना लिया और आहारार्थ निकल पड़ा।
उसकी दुर्गन्धि से तमाम श्रावक भाग खड़े हुए, किन्तु राजा उद्दायन ने रानी सहित उसे बड़ी भक्ति से पड़गाहन कर विविधत् आहार दान दिया। आहार के तत्काल बाद उस मायावी मुनि ने वमन कर दिया। उसकी दुर्गन्ध से सारे नौकर चाकर पलायमान हो गये, किन्तु राजा और रानी बड़ी विनय से मुनिराज की सुश्रूषा करते रहे तथा अपने दान की निन्दा करने लगे। तब देव ने प्रगट होकर राजा की स्तुति—भक्ति करते हुए सौधर्म इन्द्र द्वारा की गई प्रशंसा का हाल सुनाया। अनंतर स्वस्थान को चला गया।
कालांतर में राजा विरक्त होकर मुनि बन गये और कर्मनाश कर मोक्ष चले गये।
दक्षिण मथुरा में दिगम्बर गुरु गुप्ताचार्य के पास क्षुल्लक चन्द्रप्रभ रहते थे। उन्होंने आकाशगामिनी आदि विद्या को नहीं छोड़ने से मुनिपद नहीं लिया था। एक दिन वे तीर्थ वंदना के लिए उत्तर मथुरा आने लगे तब गुरु से आज्ञा लेकर पूछा—भगवन् ! किसी को कुछ कहना है ? गुरु ने कहा—वहाँ पर विराजमान सुव्रत मुनिराज को नमोऽस्तु और रेवती रानी को आशीर्वाद कहना। तीन बार पूछने पर भी गुरु ने यही कहा। तब क्षुल्लक महाराज वहाँ आकर सुव्रत मुनिराज को नमोऽस्तु कहकर, वहीं पर ठहरे हुए भव्यसेन मुनिराज के पास गये। उनकी चर्या को दूषित देखकर उनका अभव्यसेन नाम रखकर आ गये।
पुन: रेवती रानी की परीक्षा के लिए अपनी विद्या से पूर्व दिशा में ब्रह्म का रूप बनाया। सब नगरवासी आ गये किन्तु रानी नहीं आई। पुन: उसने दक्षिण दिशा में जाकर श्रीकृष्ण का रूप प्रकट किया, अनंतर पश्चिम दिशा में जाकर पार्वती सहित महादेव का रूप बनाया। इस पर भी रेवती रानी के नहीं आने पर क्षुल्लक ने विद्या के बल से उत्तर दिशा में अरिहंत भगवान का समवसरण तैयार कर दिया। तब राजा वरुण ने कहा—प्रिये ! अब तो चलो, जिनेन्द्र भगवान का समवसरण आया है। रानी ने कहा—राजन् ! चौबीस तीर्थंकर तो हो चुके अब पच्चीसवें कहां से आयें यह कोई मायावी का जाल है।
अनंतर क्षुल्लक विद्या के बल से रोगी क्षुल्लक बनकर रानी के यहाँ आये। रानी ने विनयपूर्वक सुश्रुषा आदि की और आहार दान दिया। क्षुल्ल्क ने वमन कर दिया। तब रानी ने भक्ति से सफाई आदि की। तब क्षुल्लक जी विद्या को समेट कर वास्तविक रूप में गुरु के आशीर्वाद को सुनाकर, रानी की प्रशंसा करते हुए चले गये।
गौड़ देश के अन्तर्गत ताम्रलिप्ता नगरी में एक जिनेन्द्रभक्त सेठ रहते थे। उनके घर में सातवीं मंजिल पर पाश्र्वनाथ चैत्यालय था जिसमें रत्नमयी प्रतिमा के ऊपर छत्र में बहुमूल्य वैडूर्यमणि रत्न लगा हुआ था। एक दिन चोरों के सरदार ने कहा कि सेठ के यहाँ का वैडूर्यमनिण कौन ला सकता है ? उनमें से एक सूर्यक नाम के चोर में हामी भर ली। पुन: वह चोर मायावी क्षुल्लक बनकर वहाँ पहुँच गया और खूब उपवास आदि करते हुए सेठ जी के चैत्यालय में रहने लगा। किसी समय सेठ जी धन कमाने के लिए बाहर जाने लगे। तब क्षुल्लक जी की इच्छा न होते हुए भी उनको चैत्यालय की रक्षा का भार सौंप दिया। सेठ जी चले गये और उस दिन गांव के बाहर ही डेरा डाल दिया। इधर आधी राजत में क्षुल्लक जी वैडूर्यमणि लेकर भागे। रत्न की चमक से नौकरों ने उनका पीछा किया तब वे दौड़ते हुए गांव के बाहर उन्हीं सेठ के डेरे में घुस गये।
चोर—चोर—चोर का हल्ला सुनते ही सेठजी ने क्षुल्लक जी को देखा, तब नौकर से बोले—अरे भाई ! मैने तो क्षुल्लक जी से यह रत्न यहाँ मंगवाया था, तुम लोग इन्हें चोर क्यों कह रहे हो ? बेचारे नौकर चुपचाप चले गये।
इसके बाद सेठ जी ने क्षुल्लक जी को खूब फटकारा और कहा—पापी तू धर्मात्मा बनकर ऐसा पाप करते हुए नरकों में जायेगा। पुन: रत्न लेकर उसे भगा दिया।
देखो ! यदि सेठ जी ने बात बनाकर उस क्षुल्लक के दोष को नहीं छिपाते तो नौकर, धर्म और धर्मात्माओं की हंसी उड़ाते। इसीलिए किसी के दोष को ढक लेना चाहिए और उसे एकान्त में सुधारने की कोशिश करनी चाहिए।
किसी समय वारिषेण मुनिराज पलासकुट ग्राम में आहारार्थ आए। मंत्रीपुत्र पुष्पडाल ने उन्हें आहार दिया और उनको पहुँचाने के लिए कुछ देर तक साथ चलने लगा। मुनिराज उसे स्थान तक साथ ले जाए। पुन: बचपन के मित्र होने से वैराग्य का उपदेश देकर दीक्षा दिला दी। किन्तु पुष्पडाल मुनिराज अपनी स्त्री को नहीं भुला सके। धीरे—धीरे बारह वर्ष बीत गये।
किसी समय ये दोनों साधु राजगृही आ गए। तब पुष्पडाल अपनी स्त्री से मिलने के लिए निकले। मुनिराज वारिषेण उनके अन्तरंग को समझकर साथ ही चल पड़े और वे सीधे अपने राजघराने में पहुँच गए। रानी चेलना ने वारिषेण पुत्र को घर आया देख कुछ शंकित होते हुए दो प्रकार के आसन लगा दिए। वारिषेण मुनिराज काष्ठासन पर बैठ गए और बोले माता ! सभी मेरी स्त्रियों को बुलाओ। वे सब आ गई, तब मुनिराज ने कहा—मत्र ! ये मेरी बत्तीस स्त्रियाँ हैं और यह वैभव है। तुम इसे ले लो, इसका उपभोग करो। उसी समय पुष्पडाल को वास्तविक वैराग्य हो गया।
उसने कहा—प्रभो ! आपने मोक्ष सुख के लिए इस अतुल वैभव को तृणवत् त्यागा है और मैं मूढ़ एक स्त्री के मोह को नहीं छोड़ सका। अनन्तर वन में पहुँचकर वारिषेण ने उन्हें यथोचित प्रायश्चित्त से शुद्धकर वापस मुनिपद में स्थिर कर दिया। तब पुष्पडाल ने भी घोर तपश्चरण करके अपने आपको पवित्र बना लिया।
हस्तिनापुर के राजा महापद्म अपने बड़े पुत्र पद्मराज को राज्य देकर, छोटे पुत्र विष्णुकुमार के पास मुनि हो गये। राजा पद्म के चार मंत्री थे—बलि, वृहस्रूपति, नमुचि और प्रहलाद।
किसी समय इन्होंने शत्रु राजा को जीतकर राजा पद्म से ‘वर’ प्राप्त किया था और उसे धरोहर रूप में राजा के पास रख दिया था। एक समय अकंपनाचार्य सात सौ मुनियों के साथ आकर वहां बगीचे में ठहर गये। मंत्री जिनधर्म के द्वेषी थे। उन्होंने राजा से अपना वर देने को कहा और उसमें सात दिन का राज्य मांग लिया। राजा को वर देना पड़ा। फिर क्या था, इन दुष्टों ने मुनियों को चारों तरफ से घेरकर बाहर से यज्ञ का बहाना करके आग लगा दी।
उधर मिथिला नगरी में रात्रि में श्रवण नक्षत्र कंपित होते देख श्रुतसागर आचार्य के मुख से हाहाकार शब्द निकला। पास में बैठे हुए क्षुल्लक जी ने सारी बात पूछी और उपसर्ग दूर होने का उपाय समझकर, धरणीभूषण पर्वत पर आए। वहाँ विष्णुकुमार मुनि ने कहा—भगवान् ! आपको विक्रिया ऋद्धि है आप शीघ्र ही जाकर उपसर्ग दूर कीजिये।
मुनि विष्णुकुमार वहां आये और राजा पद्म से (भाई से) सारी बातें अवगत कर मुनिवेष छोड़कर बलि के पास वामन का रूप लेकर पहुँचे, जहाँ बलि राजा दान दे रहा था। बलि ने इनसे भी कुछ मांगने को कहा। वामन ने कहा—मुझे तीन पैर धरती दे दो। उसने कहा—आप अपने पैरों से ही नाप लें। बस ! वामन विष्णु कुमार ने अपनी विक्रिया से एक पैर सुमेरूपर्वत पर रखा और दूसरा मानुषोत्तर पर्वत पर रखा। तीसरा पैर उठाया किन्तु उसके रखने को जगह ही नहीं थी। इतने में सर्वत्र हाहाकार मच गया, पृथ्वी कांप गई। देवों के विमान परस्पर में टकरा गये। चारों तरफ से क्षमा करो, क्षमा करो, ऐसी आवाज आने लगी।
देवों ने आकर बलि को बांधकर विष्णुकुमार मुनि की पूजा की और सात सौ मुनियों का उपसर्ग दूर किया। विष्णुकुमार मुनि ने मुनियों के प्रति वात्सल्य करके उनका उपकार किया। अन्त में जाकर प्रायश्चित्त आदि लेकर अपनी आत्मा का कल्याण कर लिया। उसी दिन से रक्षा की स्मृति में श्रावण शुक्ला पूर्णिमा को प्रतिवर्ष रक्षाबंधन पर्व मनाया जाता है।
मथुरा के राजा पूतिगंध की दो रानियाँ थी। उर्विला रानी सम्यग्दृष्टि थी और दूसरी बुद्धदासी रानी बौद्ध धर्मानुयायी थी। हमेशा रानी उर्विला आष्टान्हिक पर्व में रथयात्रा करके धर्म प्रभावना करती थी।
एक बार बुद्धदासी ने कहा—महाराज ! पहले मेरा रथ निकलेगा। राजा ने मोहवश यह बात मान ली। तब रानी उर्विला ने चारों प्रकार के आहार का त्याग कर दिया और क्षत्रियगुफा में विराजमान सोमदत्त तथा वङ्काकुमार मुनि के पास पहुँचकर प्रार्थना करे लगी—भगवन् ! धर्म की रक्षा कीजिए।
मुनिराज ने उसे आश्वासन दिया और उसी समय दर्शन के लिए आए हुए दिवाकर देव आदि विद्याधरों को प्रेरणा दी। तब गुरु की आज्ञा से उन विद्याधरों ने रानी उर्विला के रथ में अरहंत भगवान की प्रतिमा विराजमान करके आकाश मार्ग से खुब प्रभावना पूर्वक विशेष जुलूस के साथ रथ निकाला।
इस अतिशय को देखकर राजा पूतिगंध, बुद्धदासी आदि सभी जैन बन गये। सर्वत्र जैनधर्म की जय जयकार हो गया। वङ्काकुमार मुनि ने जैनधर्म की प्रभावना कराके अपने यश को अमर कर दिया।
काशी के राजा पाक—शासन ने एक समय अपनी प्रजा को महामारी कष्ट से पीड़ित देखकर ढिंढोरा पिटवा दिया कि ‘नंदीश्वर पर्व में आठ दिन पर्यंत किसी जीव का वध न हो। इस राजाज्ञा का उल्लंघन करने वाला प्राणदण्ड का भागी होगा।’ वहीं का धर्म नाम का एक सेठपुत्र राजा के बगीचे में जाकर राजा के खास मेढे को मारकर खा गया। जब राजा को इस घटना का पता चला तब उन्होंने उसे शूली पर चढ़ाने का आदेश दे दिया।
शूली पर चढ़ाने हेतु कोतवाल ने यमपाल चांडाल को बुलाने के लिए सिपाही भेजे। सिपाहियों को आते देखकर चांडाल ने अपनी स्त्री से कहा कि प्रिये ! मैंने सर्वोषधि ऋद्धिधारी दिगम्बर मुनिराज से जिनधर्म का पवित्र उपदेश सुनकर यह प्रतिज्ञा ली है कि मैं चतुर्दशी के दिन कभी जीव हिंसा नहीं करूंगा। अत: तुम इन नौकरों को कह देना कि मेरे पति दूसरे ग्राम गये हुए हैं। ऐसा कहकर वह एक तरफ छिप गया, किन्तु स्त्री ने लोभ में आकर हाथ से उस तरफ इशारा करते हुए ही कहा कि वे बाहर गये हैं। स्त्री के हाथ का इशारा पाकर सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया और राजा के पास ले गये।
राजा के सामने भी यमपाल ने दृढ़तापूर्वक सेठपुत्र को मारने से इन्कार कर दिया। राजा ने क्रोध में आकर हिंसक सेठपुत्र और यमपाल चांडाल इन दोनों को ही मगरमच्छ से भरे हुए तालाब में डलवा दिया। उस समय पापी सेठपुत्र को तो जलचर जीवों ने खा लिया और यमपाल के व्रत के प्रभाव से देवों ने आकर उनकी रक्षा की। उसको सिंहासन पर बिठाया एवं उसका अभिषेक करके स्वर्गीय वस्त्र अलंकारों से उसे सम्मानित किया। राजा भी इस बात को सुनते ही वहां पर आये और यमपाल चांडाल का खूब सम्मान किया।
जिनदेव और धनदेव दो व्यापारियों ने यह निर्णय किया कि परदेश में धन कमाकर पुन: आधा—आधा बांट लेंगे। बाद में अधिक धन देखकर जिनदेव झूठ बोल गया। तब राजा ने न्याय करके सत्यवादी धनदेव को सारी सम्पत्ति दे दी और सभा में उसका सम्मान किया तथा जिनदेव को अपमानित करके देश से निकाल दिया। इसलिए हमेशा सत्य बोलना चाहिए।
राजगृही के राजा श्रेणिक की रानी चेलना के सुपुत्र वारिषेण उत्तम श्रावक थे। एक बार चतुर्दशी को उपवास करके रात्री में श्मशान में नग्न रूप में खड़े होकर ध्यान कर रहे थे। इधर विद्युत चोर रात्री में रत्नहार चुराकर भागा। सिपाहियों ने पीछा किया। तब वह चारे भागते हुए वन में पहुँचा। वहाँ ध्यानस्थ वारिषेण कुमार के सामने हार डालकर आप छिप गया। नौकरों ने वारिषेण को चोर घोषित कर दिया। राजा ने भी बिना विचारे प्राण दण्ड की आज्ञा दे दी।
किन्तु धर्म का माहात्म्य देखिये। वारिषेण के गले पर चलाई गई तलवार फूलों की माला बन गई। आकाश से देवों ने जय—जयकार करके पुष्प बरसाये। राजा श्रेणिक ने यह सुनकर वहां आकर क्षमा याचना करते हुए अपने पुत्र से घर चलने को कहा। किन्तु वारिषेण कुमार ने पिता को सांत्वना देकर कहा कि अब मैं करपात्र में ही आहार करूंगा। अनन्तर सूरसेन मुनिराज के पास दिगम्बर दीक्षा ले ली। इसलिए अचौर्यव्रत का सदा पालन करना चाहिए।
ललाट देश के भृगुकच्छ नगर में जिनदत्त सेठ की पुत्री नीली सौंदर्य और गुणों से प्रसिद्ध थी। एक दिन सागरदत्त नामक एक वैश्य पुत्र ने उसे देखकर मुग्ध हो उसके साथ विवाह करना चाहा। पिता के द्वारा विदित होने पर कि यह जिनदत्त अपनी कन्या जैन को ही देगा। तब पिता पुत्र दोनों ही स्वार्थवश जैन बन गये। नीली का विवाह कर पुन: वे बुद्धभक्त हो गये। वे दोनों नीली को भी जैनधर्म से च्युत कर बौद्धधर्मी बनाना चाहते थे। अत: बार—बार वे नीली को प्रेरणा दिया करते थे। एक दिन श्वसुर समुद्रदत्त ने बौद्ध भिक्षुओं को भोजन कराने के लिये नीली से कहा। उसने उन्हें उन्हीं के जूते का चूर्ण कर भोजन में मिलाकर उन्हें खिला दिया। जब उन साधुओं के वमन करने से भेद खुला तब नीली के श्वसुर और ननद आदि उस पर कुपित हुये। समय पाकर नीली की ननद ने नीली पर व्यभिचार का आरोप लगा दिया। तब नीली ने चतुराहार त्याग कर मन्दिर में कार्योत्सर्ग धारण कर लिया।
उसके शील के प्रभाव से नगर—देवता ने शहर के मुख्य—मुख्य फाटक कीलित कर दिये और स्वप्न दे दिया कि ‘महाशीलवती’ महिला के चरण स्पर्श से ये फाटक खुलेंगे। अन्त में नीली ने अपने बांये पैर के अंगूठे के स्पर्श से उन कीलित किवाड़ों को खोलकर राजा प्रजा आदि सभी से सम्मान प्राप्त किया और शील की महिमा को प्रगट किया।
हस्तिनापुर के राजा जयकुमार परिग्रह का प्रमाण कर चुके थे। एक बार सौधर्म इन्द्र ने स्वर्ग में जयकुमार के व्रत की प्रशंसा की। इस बात की परीक्षा के लिये वहां से एक देव ने आकर स्त्री का रूप धारण कर जयकुमार के पास अपनी स्वीकृति करने हेतु प्रार्थना की और विद्याधर के राज्य का प्रलोभन दिया। जयकुमार ने अपने व्रत की दृढ़ता रखते हुए सर्वथा उपेक्षा कर दी। तब इसने अनेक उपसर्ग किये और कहा कि आप विद्याधर का राज्य और अपना जीवन चाहते हैं तो मुझे स्वीकार करो। किन्तु जयकुमार की निस्पृहता को देखकर देव अपने रूप को प्रकट कर जयकुमार की स्तुति करके स्वर्ग की सारी बातें सुनाकर चला गया। अत: परिग्रह का प्रमाण अवश्य करना चाहिये।
ललाट देश में भृगुकच्छ नाम का नगर है। वहाँ पर लोकपाल राजा राज्य करता था। वहीं पर धनपाल नामक वैश्य की पत्नी का नाम धनश्री था। उसके एक गुणपाल और एक सुन्दरी पुत्री ऐसे दो संतान थी। धनश्री ने कुंडल नाम के एक वैश्य पुत्र को, पुत्र के सदृश पालन—पोषण कर बड़ा किया था। पति धनपाल के मर जाने के बाद धनश्री उस कुंडल में आसक्त हो गई। ‘गुणपाल पुत्र ने मेरा दुराचार जान लिया है’, ऐसा समझकर उसने रात्रि में कुंडल से कहा कि प्रात: गुणपाल गाय चराने जाये तब उसे तुम मार डालना। यह बात सुन्दरी पुत्री ने सुन ली। उसने पिछली रात्रि में अपने भाई को सब हाल बता दिया। गुणपाल प्रात: गायों को लेकर वन में गया तब उसने एक लकड़ी को अपना वस्त्र उढ़ा दिया और आप झाड़ के नीचे छिप गया। जब कुंडल ने आकर उस लकड़ी पर वार किया कि गुणपाल ने पीछे से आकर उसे पकड़ कर उसके हाथ से तलवार छीन ली और उस कुंडल को मार डाला।
घर आने पर माता के द्वारा कुंडल कहां है ? ऐसा पूछा जानेपर तलवार दिखायी कि इसे पता है। माता ने कुपित होकर पुत्र के हाथ से शस्त्र छीन कर उसे मार डाला। पुत्री सुन्दरी ऐसा दृश्य देख चिल्लाई, तब कोतवाल ने आकर धनश्री को बांध लिया और राजा के समक्ष ले गये। राजा ने उसके कान, नाक आदि कटवा कर उसे गधे पर चढ़ाकर शहर से बाहर निकाल दिया। धनश्री इस दुर्दशा को प्राप्त कर हिंसा के पाप से क्रूर परिणामों से मरकर दुर्गति में चली गई।
भरत क्षेत्र के सिंहपुर नगर में राजा सिंहसेन राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम रामदत्ता था और पुरोहित का नाम श्रीभूति थी। वह पुरोहित अपनी जनेऊ में एक कैची बांधे रखता था और लोगों से कहता था कि ‘यदि मेरी जिह्वा झूठ बोल दे तो मैं उसको काट डालूं।’ लोग विश्वास के साथ उसके पास अपना धन धरोहर में रखा करते थे और वह कुछ देकर बहुत कुछ हड़प लेता था। किन्तु लोग कुछ कह नहीं पाते थे और उसका नाम सत्यघोष प्रसिद्ध हो गया था। एक समय एक समुद्रदत्त व्यापारी वहां आकर उसके पास बहुकीमती पांच रत्न रखकर जहाज से समुद्र के पार द्रव्य कमाने चला गया। जब वह बहुत धन कमाकर वापस आ रहा था कि जहाज के डूब जाने से जैसे—तैसे प्राण बचाकर आ पाया। तब उसने सत्यघोष से अपने रत्न मांगे। उसने कहा कि यह पागल है मुझे झूठा बताता , इसे बाहर कर दो। वह बेचारा समुद्रदत्त पागलवत् होकर रानी के महल के पास के वृक्ष पर चढ़कर पिछली रात्रि में जोर—जोर से चिल्लाता रहता था कि मेरे पांच रत्न सत्यघोष ने हड़प लिये हैं नहीं देता है। मेरा न्याय करो।’ लगभग छह महीने ऐसा बोलते सुनकर रानी ने कहा—राजन् ! यह पागल नहीं है इसके भेद का पता लगाने के लिये आप मुझे आज्ञा दीजिये।
राजा की आज्ञानुसार रानी ने उस पुरोहित के साथ जुआ खेलकर उसकी अंगूठी और जनेऊ जीतकर—दासी के हाथ से उसकी पत्नी के पास भेजकर, वे पांचों रत्न मंगा लिये। सुबह राजा ने अपने रत्नों में उन्हें मिलाकर उस पागल सदृश समुद्रदत्त को अपने रत्न पहचानने को कहा। उसने उन सभी में से आपके रत्न पहचान लिये। तब राजा ने पुरोहित के लिये तीन दण्ड निर्धारित किये। तीन थाली गोबर खाना, मल्लों की मुक्कियाँ खाना अथवा सब धन दे देना। उसने क्रम से तीनों दण्ड भोगे और अन्त में दुध्र्यान से मरकर राजा के भंडार पर सर्प हो गया। वहां से भी मरकर बहुत काल तक दुर्गति में भ्रमण करता रहा।
कौशंवी पुरी के राजा सिंहरथ की रानी का नाम विजया था। वहां पर एक तपस्वी था जो भूमि का स्पर्श न करते हुये छींके पर बैठकर पंचाग्नि तप करता रहता था। उस नगर में प्रतिदिन बहुत चोरियाँ हो रही थीं। एक कुशल ब्राह्मण एक समय सायंकाल में उस तपस्वी के आश्रम में पहुंच गया। बहुत कुछ मना करने पर भी, उसने कहा मैं अंधा हूँ। लोगों ने उसे रात्रि में रहने दिया। तब उसने रात्रि में देखा कि यह तापसी गांव में जाकर अपने साथियों के साथ चोरी करके बहुत सा धन लाया और गुफा में एक गहरा कुआ बना रखा था, उसमें सब धन रख रहा था। प्रात: उस ब्राह्मण ने यह सारी घटना कोतवाल को सुना दी। कोतवाल ने उस तापसी को पकड़कर चोर घोषित कर राजा के द्वारा दण्डित कराया।
नाशिक नामक नगर में कनकरथ राजा की रानी का नाम कनकमाला था। कोतवाल का नाम यमदण्ड था। उसकी माता व्यभिचारिणी थी। एक बार यह माता यमदण्ड की पत्नी अर्थात् अपनी पुत्र बहू के वस्त्राभूषण लेकर, कहीं एकांत स्थान में किसी संकेतित जार के लिये पहुँची। दैवयोग से यह यमदण्ड रात्रि में वहां पहुंचा। उस माता ने रात्रि में उसे न पहचान कर उसके साथ व्यभिचार किया और अपने पास के वस्त्राभूषण अपनी स्त्री को दे दिये। तब स्त्री ने उससे कहा कि मैंने यह सब सासु को दिये थे। यमदंड ने समझ लिया कि जिसके साथ मैंने व्यभिचार किया है वह मेरी माँ है। फिर भी वह विरक्त न होकर प्रतिदिन रात्रि में वहीं जाकर उसके साथ कुकृत्य करता रहा। यमदण्ड की पत्नी के द्वारा यह समाचार धोबिन को मिला, उसने मालिन को कहा और मालिन ने रानी से बताया। रानी ने राजा से कहकर गुप्तचर से इसका पता लगाकर उसे दण्डित किया। जिससे वह मरकर दुर्गति में चला गया।
अयोध्या में भवदत्त सेठ के पुत्र का नाम लुब्धदत्त था। एक बार वह व्यापार के लिए विदेश में गया। बहुत धन कमाकर आ गया था कि मार्ग में उसे चोर डाकुओं ने लूट लिया। तब वह अति निर्धन होकर भटक रहा था। एक जगह पीने के लिए तक्र मांगा। पीने के बाद उसी मूंछों में कुछ मक्खन लग गया। उस मक्खन को निकाल कर उसने एक पात्र में रख लिया, ऐसे ही वह प्रतिदिन मूंछों में लगा मक्खन निकाल कर संचित करता रहा। तभी से उसका नाम श्मश्रुनवनीत हो गया। जब एक सेर प्रमाण घी हो गया तब उसने उस घी को घड़े में भरकर और उसे पैर के पास रखकर लेट गया। सर्दी का दिन था। अग्नि को भी पास में ही रखकर लेटा था। और सोच रहा था कि इस घी को बेचकर मैं बहुत सा धन प्राप्त करुंगा और धीरे—धीरे अच्छा व्यापारी बनकर मंत्री, महामंत्री बन जाऊंगा। पुन: राजा बन जाऊंगा। पुन: क्रम से चक्रवर्ती बन जाऊंगा। सात तल के राजभवन में शयन करूंगा। मेरी पटरानी मेरे पैर दबायेगी, पादमर्दन करना ठीक से नहीं आयेगा तब मैं उसे प्रेम से पैर से ताड़ित करूंगा। ऐसा सोचते—सोचते वह लुब्धदत्त दरिद्री अपने आपको चक्रवर्ती समझते हुए पैर ऊपर उठाकर पटक देता है कि उसका पैर घी के घड़े में लग जाता है। फिर क्या था, घी उलट गया और पास रखी हुई अग्नि में पड़ गया। उस भभकती अग्नि से निकल नहीं सका तब स्वयं भी जल कर मर गया और परिग्रह की अति आसक्ति से मरकर दुर्गति में चला गया।
रत्नपुर नगर के राजा श्रीषेण अपनी रानी सिंहनंदिता और अनिंदिता के साथ सुखपूर्वक राज्य संचालन कर रहे थे। उनके इन्द्रसेन और उपेन्द्रसेन दो पुत्र थे। किसी एक दिन राजा ने घर पर आये हुए आदित्यगति और अरिञ्जय नाम के दो चारण मुनियों का पड़गाहन कर उन्हें भक्ति पूर्वक आहार दान दिया। पात्र विशेष होने से देवों ने पंचाश्चर्य वृष्टि की। राजा ने उस आहार दान के प्रभाव से उत्तर कुरु के उत्तम भोगभूमि की आयु बांध ली। किसी समय अनन्तमती नाम की एक साधारण महिला के लिये इन्द्रसेन ओर उपेन्द्रसेन दोनों भाई आपस में युद्ध करने लगे। राजा के रोकने पर भी वे नहीं माने तब राजा ने दु:खी होकर विषपुष्प सूंघ कर मरण प्राप्त कर लिया। किन्तु पूर्व के आहारदान के प्रभाव से वे उत्तर कुरू भोगभूमि में चले गये। कालांतर में यही श्रीषेण सोलहवें तीर्थंकर श्री शांतिनाथ और पांचवे चक्रवर्ती हुये हैं।
किेसी समय मुनिदत्त योगिराज महल के पास एक गढ्ढे में ध्यान में लीन थे। नौकरानी ने उन्हें हटाना चाहा। जब वे नहीं उठे तब उसने सारा कचरा इकट्ठा करके मुनि पर डाल दिया। प्रात: राजा ने वहां से मुनि को निकाल कर विनय से सेवा की। उस समय नौकरानी नागश्री ने भी पश्चाताप करके मुनि के कष्ट को दूर करने हेतु उनकी औषधि की और मुनि की भरपूर सेवा की। अन्त में मरकर यह वृषभसेना हुई, जिसके स्नान के जल से सभी प्रकार के रोग और विष नष्ट हो जाते थे आगे चलकर वह राजा उग्रसेन की पटरानी हो गई। किसी समय रानी के शील में आशंका होने से राजा ने उसे समुद्र में गिरवा दिया। किन्तु रानी के शील के माहात्म्य से देवों ने सिंहासन पर बिठाकर उसकी पूजा की।
कुरुमरी गांव के एक ग्वाले ने एक बार जंगल में वृक्ष की कोटर में एक जैन ग्रन्थ देखा। उसे घर ले जाकर उसकी खूब पूजा करने लगा। एक दिन मुनिराज को उसने वह ग्रन्थ दान में दे दिया। वह ग्वाला मर कर उसी गांव के चौधरी का पुत्र हो गया। एक दिन उन्हीं मुनि को देखकर जाति स्मरण हो जाने से उन्हीं से दीक्षित होकर मुनि हो गया। कालांतर में वह जीव राजा कौंडेश हो गया। राज्य सुखों को भोगकर राजा ने मुनि दीक्षा ले ली। ग्वाले के जन्म से जो शास्त्र दान किया था उसके प्रभाव से वे मुनिराज थोड़े ही दिनों में द्वादशांग के पारगामी श्रुतकेवली हो गये। वे केवली होकर मोक्ष प्राप्त करेंगे। इसलिए ज्ञान दान सदा ही देना चाहिए।
एक गांव में एक कुम्हार और नाई ने मिलकर एक धर्मशाला बनवाई। कुम्हार ने एक दिन एक मुनिराज को लाकर धर्मशाला में ठहरा दिया। तब नाई ने दूसरे दिन मुनि को निकाल कर एक सन्यासी को लाकर ठहरा दिया इस निमित्त से दोनों लड़कर मरे और कुम्हार का जीव सूकर हो गया तथा नाई का जीव व्याघ्र हो गया।
एक बार जंगल की गुफा में मुनिराज विराजमान थे। पूर्व संस्कार से वह व्याघ्र उन्हें खाने को आया और सूकर ने उन्हें बचाना चाह। दोनों लड़ते हुए मर गये। सूकर के भाव मुनि रक्षा के थे। अत: वह मर कर देव गति को प्राप्त हो गया और व्याघ्र हिंसा के भाव से मरकर नकर में चला गया।