उत्तर—जिन (जिनेन्द्र भगवान व्दारा कहे गये धर्म को जैन धर्म कहते हैं।
प्रश्न २. जिन (जिनेन्द्र) किसे कहते हैं ?
उत्तर—जयति इति जिन:। अपनी इन्द्रियों, वासनाओं, इच्छाओं और कर्मों को जीतने वाले जिन कहलाते हैं।
प्रश्न ३. जैनधर्म के प्राचीन नाम कौन—कौन से हैं ?
उत्तर—जैन धर्म के प्राचीन नाम निम्नलिखित हैं—
निर्ग्रन्थ धर्म—समस्त प्रकार के परिग्रह से रहित साधु कोनिर्ग्रन्थ कहते हैं और उनके धर्म को निर्ग्रन्थ धर्म कहते हैं।
श्रमण धर्म—आत्मशुद्धि के लिए सतत् श्रम / पुरुषार्थ करने वाले श्रमण हैं और उनके व्दारा धारण किया जाने वाला श्रमण धर्म है।
आर्हत् धर्म—अरिहंत भगवान व्दारा प्रतिपादित धर्म आर्हत् धर्म है।
सनातन धर्म—अनादिकाल से चले आ रहे धर्म को सनातन धर्म कहते हैं।
जिनधर्म—जिनेन्द्र कथित धर्म को जिनधर्म कहते हैं।
प्रश्न ४. जैन किसे कहते है ?
उत्तर—जिनस्य उपासक: जैन:। जिनेन्द्र भगवान के उपासक को जैन कहते हैं।
प्रश्न ५. जैनधर्म का उद्भव कब हुआ एवं इसके संस्थापक कौन हैं ?
उत्तर—जैनधर्म अनादिनिधन है। अत: इसके उद्भव (उत्पत्ति) का प्रश्न ही नहीं उठता। इसके संस्थापक तीर्थंकर ऋषभदेव एवं भगवान महावीर भी नहीं है अपितु समय—समय पर उत्पन्न होने वाले तीर्थंकर इस धर्म के प्रवर्तक / विस्तारक होते हैं।
प्रश्न ६. जैनधर्म की अपनी प्रमुख मौलिक विशेषताएँ कौन—कौन सी हैं ?
उत्तर—जैन धर्म की प्रमुख मौलिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।
१. अनेकान्त—अनेक का अर्थ है नाना और अन्त का अर्थ है धर्म अथवा स्वभाव। वस्तु के परस्पर विरोधी अनेक गुण—धर्मों के सद्भाव को स्वीकार करने वाली दृष्टि को अनेकान्त कहते हैं। जैसे—वस्तु— नित्य, अनित्य, एक, अनेकआदि धर्मों से युक्त है।
२. स्याद्वाद—स्यात् का अर्थ है विवक्षा और वाद का अर्थ है कथन अर्थात् किसी अभिप्राय से अथवा दृष्टि विशेष से एक धर्म का कथन करने वाली शैली स्याद्वाद है। जैसे—द्रव्य की दृष्टि से वस्तु नित्य, पर्याय की दृष्टि से वस्तु अनित्य है।
३. अपरिग्रहवाद—समस्त प्रकार की मूच्र्छाॅ / आसक्ति का त्याग एवं मूच्र्छाॅ का कारण पर पदार्थों का त्याग करना अपरिग्रहवाद है।
४. अहिंसा—किसी भी प्राणी को मन, वचन और काय से कष्ट नहीं पहुँचाना अहिंसा है। अहिंसा को परमधर्म कहा है। अहिंसा शब्द हिंसा के अभाव को सूचित करता है।
५. वस्तु की स्वतंत्रता—प्रत्येक वस्तु के स्वतंत्र अस्तित्त्व को स्वीकार कर उसके परिणमन को स्वतंत्र मानना वस्तु की स्वतंत्रता है।
६. अवतारवाद का निषेध—कर्मबन्ध के कारणों का अभाव होने पर भगवान का पुन: मनुष्य आदि के रूप में अवतार नहीं होता है। जैसे—घी से पुन: दूध नहीं बनता।
प्रश्न ७. जैनधर्म का प्रथम सोपान क्या है ?
उत्तर—जैनधर्म का प्रथम सोपान भेद विज्ञान प्राप्त करना है।
भेद विज्ञान का अर्थ है—शरीर भिन्न है और आत्मा भिन्न है। मैं पर पदार्थों का कताॅ नहीं हूँ, मात्र साक्षी हूँ। सृष्टा नहीं हूँ, दृष्टा मात्र हूँ।
प्रश्न ८. जैनधर्म का अन्तिम लक्ष्य क्या है ?
उत्तर—जैनधर्म का अंतिम लक्ष्य परमात्म अवस्था को प्राप्त करना है। आचरण में अहिंसा, चिन्तन में अनेकांत, वाणी में स्याद्वाद और समाज में अपरिग्रहवाद के व्दारा वीतराग अवस्था को प्राप्त करते हुए परमात्म अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं।
प्रश्न ९. पुरातत्त्वविभाग के अनुसार जैनधर्म की प्राचीनता क्या है ?
उत्तर—अनेक प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ताओं ने सिन्धु घाटी की सभ्यता के काल से जैनधर्म की प्राचीनता को स्वीकार किया है। उत्खनन में प्राप्त सील नं. ४४९ के लेख को प्रो. प्राणनाथ विध्यालंकार ने ‘जिनेश्वर’पढ़ा है। पुरातत्त्वविद् राय बहादुर चन्द्रा का वक्तव्य है कि सिन्धु घाटी की मोहरों में एक मूर्ति प्राप्त हुई है, जिसमें मथुरा की ऋषभदेव की खड़गासन मूर्ति के समान त्याग और वैराग्य के भाव दृष्टिगोचर होते हैं। हड़प्पा से प्राप्त नग्न मानव धड़ भी सिन्धु घाटी सभ्यता में जैन तीर्थंकरों के अस्तित्त्व को सूचित करता है। केन्द्रीय पुरातत्त्व विभाग के महानिर्देशक टी. एन. रामचन्द्रन ने उस पर गहन अध्ययन करते हुए लिखा है कि—‘हड़प्पा की कायोत्सर्ग मुद्रा में उत्कीर्णित मूर्ति पूर्ण रूप से जैन मूर्ति है। मथुरा का कंकाली टीला जैन पुरातत्त्व की दृष्टि से अति महत्त्वपूर्ण है। वहाँ की खुदाई से अत्यन्त प्राचीन देव निर्मित स्तूप (अज्ञातकाल) के अतिरिक्त एक सौ दस शिलालेख एवं कुछ प्रतिमायें मिली हैं, जो ईसा पूर्व दूसरी सदी से बारहवीं सदी तक की हैं।
प्रश्न १०. वैष्णवधर्म के अनुसार जैनधर्म की प्राचीनता क्या है ?
उत्तर—ऋग्वेद में भगवान ऋषभदेवादि का अत्यन्त सम्मान के साथ स्मरण किया है। यथा—
तीनों लोकों में प्रतिष्ठित श्री ऋषभदेव से आदि लेकर श्री वधॅमान स्वामी पर्यन्त चौबीस तीर्थंकर हैं। उन सिद्धों की शरण में प्राप्त होता हूँ। यजुर्वेद में कहा है— ॐ नमोऽर्हन्तो ऋषभो। अर्हन्त नाम वाले पूज्य ऋषभदेव को प्रणाम हो। शिवपुराण में लिखा है कि अड़सठ तीर्थों की यात्रा करने का जो फल मिलता है, उतना फल भगवान आदिनाथ के स्मरण करने से होता है। मार्वय पुराण (४० / ३९—४१) में तीर्थंकर ऋषभदेव के वर्णन में लिखा है कि उन्होंने अपने पुत्र भरत को राज्यभार सौंपा और स्वयं विरक्त हो गये। इन्हीं भरत के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। लिंग पुराण (४७ / १९—२४) में नाभिराय को हिमालय के
उत्तर—दक्षिणवर्ती प्रदेश का शासक बतलाया गया है। इनके पुत्र का नाम ऋषभदेव आया है। ऋषभदेव की माता का नाम मरुदेवी था। ऋषभ के पुत्र भरत थे, जिनके नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। भागवत् के पांचवें स्कन्ध के अध्याय २ से ६ तक ऋषभदेव का कथन है।
प्रश्न ११. तीर्थंकर कैसे बनते हैं ?
उत्तर—हर एक साधक आत्मसाधना कर मोक्ष तो प्राप्त कर सकता, पर तीर्थंकर नहीं बन सकता। इसके लिये अनेक जन्मों की साधना और कुछ विशिष्ट भावनाएं अपेक्षित होती हैं। विश्वकल्याण की भावना से प्रेरित होकर साधक जब किसी केवलज्ञानी अथवा श्रुतकेवली के चरणों में बैठकर सोलहकारण भावनाएँ भाता है वही तीर्थंकर प्रकृति का बंध करता है।
प्रश्न १२. तीर्थंकर और सामान्य अरिहंत (भगवान) में क्या अंतर है ?
उत्तर—सामान्य अरिहंत और तीर्थंकर में निम्न अंतर हैं। तीर्थंकरों के कल्याणक होते हैं, सामान्य अरिहंतों के नहीं।
तीर्थंकरों के चिह्न होते हैं, सामान्य अरिहंतों के नहीं।
तीर्थंकरों का समवसरण होता है, सामान्य अरिहंतों की गंधकुटी होती है।
तीर्थंकरों के गणधर होते हैं, सामान्य अरिहंतों के नहीं।
तीर्थंकरों के जन्म से अवधिज्ञान होता है, सामान्य अरिहंतों के लिए नियम नहीं है।
तीर्थंकरों के दीक्षा लेते ही मन:पर्ययज्ञान हो जाता है, सामान्य अरिहंतों के लिए नियम नहीं है।
तीर्थंकरों अपनी माता की अकेली संतान होते हैं, सामान्य अरिहंतों के लिए नियम नहीं है।
तीर्थंकर जब तक गृहस्थ अवस्था में रहते हैं तब तक उनके परिवार में किसी का मरण नहीं होता किन्तु सामान्य अरिहंतों के लिए यह नियम नहीं है।
तीर्थंकरों की माता को सोलह स्वप्न आते हैं, सामान्य अरिहंतों के लिए यह नियम नहीं है। तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि नियम से खिरती है, सामान्य अरिहंतों के लिए नियम नहीं है। चक्रवर्ती
प्रश्न १३. चक्रवर्ती किसे कहते हैं ?
उत्तर—जो छहखण्ड पृथ्वी के अधिपति होते हैं। छहखण्ड के समस्त राजा—महाराज और विध्याधर जिन्हें नमस्कार करते हैं। समस्त भूमण्डल पर जिनका अखण्ड एक छत्र राज्य रहता है, वे चक्रवर्ती कहलाते हैं। श्रेष्ठ वैभव और भोग के स्वामी होने से इन्हें नरेन्द्र भी कहा जाता है।
प्रश्न १४. चक्रवर्ती के पास किस प्रकार का वैभव होता है ?
उत्तर—चक्रवर्ती के पास अतुलनीय वैभव होता है। वे १४ रत्नों एवं ९ निधियों के स्वामी होते हैं। सात प्रकार की सेना, दशांग भोग, ३२,००० मुकुटबद्ध राजाओं एवं ९६,००० रानियों के स्वामी होते हैं। चक्रवर्ती का ३ करोड़ ५० हजार का बन्धुवर्ग, ३६० रसोइया और ३६० वैध्य होते हैं।
प्रश्न १५. चक्रवर्ती के १४ रत्न एवं ९ निधियों के नाम एवं कार्य क्या हैं ?
उत्तर—चौदह रत्न और उनके कार्य निम्न हैं—
चक्ररत्न—बैरियों का संहार करना।
छत्र रत्न—सैन्यों के ऊपर आने वाली धूप, वर्षा, ओले आदि से रक्षा करना।
असि—चक्रवर्ती के चित्त को प्रसन्न करता है।
दण्ड—१६. कोस प्रमाण सैन्य भूमि को साफ कर समतल करता है।
मणिरत्न—इच्छित पदार्थों को प्रदान करता है।
काकिणीरत्न—गुफा आदि के अंधकार को चन्द्रमा, सूर्य की तरह दूर करता है।
चर्म—चक्रवर्ती के सैन्य आदि को नदी आदि पार कराता है।
गृहपति—राजभवन की समस्त व्यवस्था का संचालन और हिसाब रखता है।
सेनापति—आर्यखण्ड एवं पाँच म्लेच्छखण्डों पर विजय दिलाता है।
पुरोहित—सबको धर्म—कर्मानुष्ठानों का मार्गदर्शन देता है।
स्थपति—चक्रवर्ती की इच्छानुसार महल, मंदिर और प्रासाद आदि तैयार करता है।
स्त्री रत्न—चक्रवर्ती की पटरानी।
हाथी—शत्रुराजाओं के गजसमूह को विच्छिन्न करता है।
अश्व—तिमिस्रगुफा के कपाट का उद्धाटन करते समय बारह योजन तक छलांग लगाता है।
नौ निधियाँ और उनके कार्य निम्न हैं—
कालनिधि—तीनों ऋतुओं के योग्य द्रव्य प्रदान करती है।
महाकालनिधि—नाना प्रकार के भोज्य पदार्थ करती है।
माणवकनिधि—विविध प्रकार के आयुध प्रदान करती है।
पगलनिधि—नाना प्रकार के आभरण प्रदान करती है।
नैसर्प निधि—मंदिर एवं भवन प्रदान करती है।
पद्मनिधि—नाना प्रकार के वस्त्र प्रदान करती है।
पाण्डुकनिधि—अनेक प्रकार के धान्य (अनाज) प्रदान करती है।
शंखनिधि—अनेक प्रकार के वादित्र प्रदान करती है।
सर्वरत्ननिधि—अनेक प्रकार के रत्न प्रदान करती है।
प्रश्न १७. चक्रवर्ती के पास दशांग भोग कौन—कौन से होते हैं ?
उत्तर—चक्रवर्ती के पास निम्न प्रकार के दशांग भोग होते हैं। दिव्यनगर, दिव्यभोजन, दिव्यभाजन, दिव्यशयन, दिव्यनाट्य, दिव्यआसन , दिव्यरत्न , दिव्यनिधि, दिव्यसेना, दिव्यवाहन। ये दस प्रकार के दिव्यभोग पुण्य और पराक्रम के धनी चक्रवर्ती की सेवा में सदैव तत्पर रहते हैं।
प्रश्न १८. चक्रवर्ती के सात अंग कौन—कौन से होते हैं ?
उत्तर— स्वामी—राजा अमात्य (मंत्री) देश दुर्ग भण्डार / कोश मित्र षडंगबल। षडंगबल निम्न हैं— चक्रबल, ८४ लाख हाथी, ८४ लाख रथ, १८ करोड घोड़े, ८४ करोड़ वीर योद्धा , असंख्य देव सैन्य, विध्याघर सैन्य।
प्रश्न १९. चक्रवर्ती कहाँ से आकर जन्म लेते हैं और मरकर कहाँ जाते हैं ?
उत्तर—सभी चक्रवर्ती निकट भव्य होते हैं पूर्वभव के घोर तपश्चरण के प्रभाव से स्वर्ग में जन्म लेकर चक्रवर्ती बनते हैं। यदि चक्रवर्ती संयम के साथ मरण करते हैं तो स्वर्ग अथवा मोक्ष जाते हैं अन्यथा नरक में जन्म लेते हैं।
प्रश्न २०. बलदेव किन्हें कहते हैं और इनकी विशेषताएँ क्या हैं ?
उत्तर—बलभद्र, हलधर, बलदेव कहलाते हैं। नारायण के बड़े भाई होते हैं। ये अतुल पराक्रम के धनी, अतिशय रूपवान् और यशस्वी होते हैं। इनके पास पाँच रत्न और आठ हजार रानियाँ होती हैं। देव पर्याय से ही आते हैं। संयम के साथ मरणकर मोक्ष अथवा स्वर्ग जाते हैं।
प्रश्न २१. नारायण—प्रतिनारायण किसे कहते हैं, इनकी विशेषताएँ क्या हैं ?
उत्तर—वासुदेव को नारायण और प्रतिवासुदेव को प्रतिनारायण भी कहते हैं। दोनों समकालीन होते हैं। तीन—तीन खण्ड पृथ्वी के स्वामी होते हैं। दोनों को सोलह—सोलह हजार रानियाँ होती हैं। दोनों स्वर्ग से आते हैं, किन्तु आपसी बैर के कारण दोनों का युद्ध होता है, नारायण के ध्वारा प्रतिनारायण मारा जाता है, दोनों नरक जाते हैं किन्तु दोनों निकट भव्य होते हैं।
प्रश्न २२. नारद किसे कहते हैं इनकी विशेषताएँ क्या हैं ?
उत्तर—नारद नारायण और प्रतिनारायण के काल में जन्म लेते हैं, अत्यन्त कौतूहली और कलहप्रिय होते हैं। नारायण और प्रतिनारायण के लड़ाने में अहम् भूमिका निभाते हैं। सभी नारद ब्रह्मचारी होते हैं, निकट भव्य होते हैं किन्तु कलहप्रिय होने से मरणकर नरक जाते हैं।
प्रश्न २३. रुद्र किसे कहते हैं और इनकी विशेषताएँ क्या हैं ?
उत्तर—अधर्मपूर्ण व्यापार में संलग्न होकर रौद्र कर्म क्रिया करते हैं, इसलिए रुद्र कहलाते हैं। सभी रुद्र कुमारावस्था में जिनदीक्षा धारण कर कठोर तपस्या करते हैं तपस्या के फलस्वरूप इन्हें ग्यारह अंगों का ज्ञान हो जाता है, किन्तु दशवे विध्यानुवाद पूर्व का अध्ययन करते समय विषयों के आधीन होकर पथभ्रष्ट हो जाते हैं और मरणकर नरकगामी होते हैं।
प्रश्न २४. कामदेव किसे कहते हैं और इनकी विशेषताएँ क्या हैं ?
उत्तर—प्रत्येक कालचक्र के दु:षमा—सुषमा काल में चौबीस कामदेव होते हैं। सभी कामदेव अनुपम रूप और लावण्य के धनी होते हैं, संयम धारणकर इसी भव से मोक्ष प्राप्त करते हैं।
प्रश्न २५. शलाकापुरुष किसे कहते हैं और कितने होते हैं ?
उत्तर—अत्यन्त पुण्यवान् पुरुषों को शलाका पुरुष कहते हैं।
शलाका पुरुष ६३ होते हैं—२४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ नारायण, ९ प्रतिनारायण, ९, बलदेव।