गुजरात प्रांत का प्रसिद्ध नगर सूरत जो आज भी हीरा उद्योग एवं वस्त्र उद्योग में अग्रणी नगर है उसी सूरत जिले के बारडोली स्टेशन से मात्र १५ कि.मी. की दूरी पर पूर्णानदी के सुरम्य तट पर बसा है महुवा। यह स्थान विघ्नहर पार्श्वनाथ महुवा के नाम से अधिक प्रसिद्ध है।
अतिशय क्षेत्र
यहां पर भगवान पार्श्वनाथ की चमत्कारिक प्रतिमा की भारी महिमा है और भक्त लोग कहते हैं कि इस प्रतिमा के श्रद्धा पूर्वक दर्शन करने से लोगों की समस्त आपदाएं दूर भाग जाती हैं । लोग यहां पर भगवान का दर्शन कर मनौती मानते हैं और प्रचलित आस्थानुसार इससे उन्हे लाभ भी होता है। यहां जैनों के अलावा अजैन भी भारी मात्रा में दर्शन करने आते हैं। इस प्रतिमा के बारे में यह कहा जाता है कि —एक बार महुवा के सेठ बंधु डाहयाभाई और कायहाभाई को एक जैसा स्वप्न आया। स्वप्न में उन्होंने भगवान की प्रतिमा को देखा और ऐसा महसूस किया कि कोई दिव्य पुरूष उन्हें प्रेरणा कर रखा था। कि सुल्तानाबाद (पश्चिम खानदेश) के तुलवा गांव की भूमि और भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा गढ़ी है। उसे खुदवाकर बाहर निकलवाओ। प्रात: काल दोनों भाई नित्य कार्यों से निवृत होकर देवदर्शन एवम् पूजन को गये और वहां से वे तुलाव गांव पहुंचे। स्वप्न में बताई गई भूमि की खुदाई करवाई तो वहां से भगवान पार्श्वनाथ की भव्य मनोहर प्रतिमा निकली । उसे वे रथ में विराजमान करके महुवा लाये और उसे चन्द्रप्रभु भगवान के मन्दिर में रखा एवम् भट्टारक श्री विद्यानन्दीजी ने उसको प्रतिष्ठित कर विराजमान किया। मूर्ति के प्रकट होने के बारे में एक किंवदंती और कही जाती है कि सुल्तानाबाद गांव का एक किसान खेत जोत रहा था कि अचानक उसका हल कठोर चीज से टकराकर रूक गया, तब उस स्थान को खोदा गया तो मूर्ति प्राप्त हुई , जिसे किसान ने कई दिनों तक झोपड़ी में रखा । जब जैनों को इस बारे में ज्ञात हुआ तो वे उसे रथ में विराजमान कर अन्यत्र ले जाने लगे तो रथ महुवा में आकर रूक गया तो इस प्रतिमा को मंदिर के भूगर्भ में विराजित कर दिया गया। धीरे—धीरे मूर्ति के अतिशय की ख्याति सर्वत्र पैâलने लगी। दूर—दूर से यात्री भगवान के दर्शन हेतु आने लगे। खास बात यह रही कि जैनों के अलावा अन्य सम्प्रदाय के लोग भी प्रतिमा के चमत्कारों को सुनकर भारी मात्रा में पहुंचने लगे। कहते हैं कि जो व्यक्ति अपने मन में कोई कामना लेकर भक्तिभाव सहित बाबा पार्श्वनाथ के दरबार में जाता है उसकी इच्छा अवश्य पूर्ण होती है। जिस तरह राजस्थान के महावीरजी में मीणा एवं गर्जर लोगों द्वारा भगवान कढ़ी चावल चढ़ाया जाता है ठीक उसी प्रकार यहां भी वैसा दृश्य देखने को मिल जाता है। सरल मन से भक्तिभाव सहित कई भक्त तो फल सब्जी के साथ। और तो और बैंगन तक चढ़ा देते है। जिनकी कामना पूरी करने हो जाती है। वे गाजे—बाजे के साथ अपनी मनौती पूरी करने आते हैं । इसी कारण पार्श्वनाथ भगवान को निष्कपट अबोध भक्तजन संकल्प सिद्धि का देवता मानते हैं। यहां पर शनिवार एवं रविवार को विशेष भीड़ रहती है।
क्षेत्र का महात्म्य
इस क्षेत्र की महिमा का वर्णन करते हुए ब्रह्म ज्ञानसागरजी ने सर्वतीर्थ वंदना नामक अपनी रचना में लिखा है कि उक्त क्षेत्र पर निरन्तर मुनियों का विहार होता रहा है और वे यहां रूक कर ग्रंथों का अभ्यास करते थे। इस प्रसंग का उल्लेख इस प्रकार है :
मधुकर नयर पवित्र यत्र श्रावक धन वासह। मुनिवर करत विहार बहुविध ग्रन्थ अभ्यासह।। जिनवर धाम पवित्र भुमिगृह में लिन पासह। ………………………….।। नामें नव विधि संपजे सकल विघ्न भंजे सदा। ब्रह्मज्ञान सागर वदति विघ्न दरो बेंदु मुदा।।६९।।
लगता है, प्राचीनकाल में यह क्षेत्र विद्यारसिकों के लिए केन्द्र स्थान रहा है। यहीं पर बैठकर मूलसंघ सरस्वतीगच्छ के भट्टारक प्रभाचन्द्र के शिष्य भट्टारक वादिचन्द्र ने ‘ज्ञानसूर्योदय’ नाटक की रचना की थी। उन्होंने इस ग्रंथ की समाप्ति विक्रम सं. १६४८ में की थी, जैसा कि इस नाटक के अंतिम श्लोक से ज्ञात होता है-
‘‘वसु-वेद-रसाब्जके वर्षे माघे सिताष्टमी दिवसे। श्रीमन्मधूकनगरे सिद्धोऽयं बोधसंरभ:।।’’
अर्थात्-मधूक नगर (महुवा) में सं. १६४८ में यह ग्रंथ पूर्ण हुआ। इसी प्रकार कारंजा के सेनगणान्वयी लक्ष्मीसेन के शिष्य ब्रह्महर्ष ने भी ‘महुवा विघ्न हरे सहु धेनं’ कहकर महुआ के पाश्र्वनाथ का उल्लेख किया है। यह उल्लेख उनकी ‘पाश्र्वनाथ जयमाला’ का है। भट्टारक ज्ञानसागर और वादिचन्द्र के उल्लेखों से यह भी ज्ञात होता है कि महुआ का प्राचीन नाम मधुकर नगर या मधूकनगर था तथा यहाँ प्राचीन काल में जैनों की विशाल जनसंख्या थी। कहीं-कहीं इस नगर का नाम मधुपुरी भी मिलता है।
मंदिर का विनाश- इस अतिशय क्षेत्र पर जाने क्या भयंकर भूल या अशुद्धि हुई, जिसके परिणामस्वरूप इस क्षेत्र को भीषण आग और बाढ़ की दुर्घटना का तीन बार शिकार होना पड़ा। प्रथम बार सन् १९२९ में मंदिर के आसपास १० घरों में भीषण अग्निकाण्ड हुआ। जिसमें मंदिर की ऊपर मंजिल का भाग अग्नि में भस्म हो गया। वहाँ भट्टारक-गद्दी और शास्त्र भंडार था। यहाँ उस समय दो मंदिर थे-चन्द्रप्रभ मंदिर और पाश्र्वनाथ मंदिर। इन मंदिरों में लकड़ी पर दर्शनीय नक्काशी का काम था। किन्तु अधिकांश नष्ट हो गया। दूसरी बार सन् १९६८ और तीसरी बार सन् १९७० में विनाशकारी बाढ़ के प्रकोप ने मंदिर को अपनी चपेट में ले लिया। दोनों ही बार मंदिर का अधिकांश भाग पानी में डूब गया। इससे मंदिर को बहुत क्षति पहुँची। तीन बार की इन दुर्घटनाओं में दोनों मंदिर धराशायी हो गये अथवा क्षतिग्रस्त हो गये किन्तु यह संयोग ही था कि किसी मूर्ति को कोई क्षति नहीं पहुँची और विघ्नहर पाश्र्वनाथ की प्रतिमा एवं भोंयरा सुरक्षित रहे। तब बम्बई, सूरत तथा अन्य स्थानों के जैन बंधुओं ने एकत्रित होकर मंदिर के पुनर्निर्माण का निश्चय किया। फलत: अब नवीन महत्त्वाकांक्षी योजना के अनुसार शिखरबंद मंदिर, धर्मशाला और स्वाध्याय मंदिर का निर्माण किया गया है।
क्षेत्र-दर्शन- मंदिर का निर्माणकार्य पूर्ण हो चुका है। चन्द्रप्रभ मंदिर की मूर्तियाँ एक कमरे में विराजमान कर दी गई हैं तथा विघ्नहर पाश्र्वनाथ अपने मूल स्थान भोंयरे में ही विराजमान हैं। कुछ सीढ़ियाँ उतरकर भोंयरे में एक वेदी पर श्यामवर्ण की चार फुट ऊँची एवं सप्त फणवाली श्री विघ्नहर पार्श्वनाथ की भव्य प्रतिमा विराजमान है। प्रतिमा की नाक और हाथ कुछ खण्डित हैं। बायीं ओर भगवान चन्दप्रभ की २ फुट २ इंच अवगाहना वाली श्वेत पाषाण की पद्मासन प्रतिमा है जो संवत् १६४८ की प्रतिष्ठित है तथा दायीं ओर श्वेतवर्ण शांतिनाथ विराजमान हैं। अवगाहना आदि पूर्व प्रतिमा के समान है। आगे की पंक्ति में भगवान महावीर की साढ़े सात इंच की तथा उसके इधर-उधर साढ़े पाँच इंच ऊँची पाश्र्वनाथ की धातु प्रतिमाएँ हैं। गर्भगृह को छड़दार किवाड़ों का अवरोध देकर सुरक्षित कर दिया गया है। एक अन्य कमरे में २३ पाषाण प्रतिमाएँ तथा २९ धातु प्रतिमाएँ विराजमान हैं। मूर्ति लेखों के अनुसार इनमें संवत् १३९०, १५२२, १५३५, १५४८, १६१४, १६६१, १६६५, १८२७ और १९११ की प्रतिमाएँ हैं। कुछ प्रतिमाओं के पीठासन पर लेख नहीं है। इनमें दो मूर्तियाँ उल्लेखनीय हैं-पहली हैै आदिनाथ भगवान की और दूसरी है पद्मावती की। साढ़े चार फुट ऊँचे एक शिलाफलक में भगवान आदिनाथ की खड्गासन प्रतिमा है। छत्रवाला भाग खण्डित है। सिर के दोनों ओर गन्धर्वयुगल माला लिये हुए हैं। मुख्य मूर्ति के दोनों पाश्र्वों में ११-११ पद्मासन मूर्तियाँ तथा चरणों से अधोभाग में खड्गासन मूर्तियाँ हैं। चरणों के दोनों ओर भक्त हाथ जोड़े हुए बैठे हैं। इससे अधोभाग में बायीं ओर यक्ष तथा दायीं ओर यक्षी है। सिंहासन के सिंहोें और गजों के मध्य में ललितासन में एक देवी बैठी है। इस मूर्ति के पादपीठ पर कोई लेख अंकित नहीं है। किन्तु शैली के आधार पर यह ११-१२वीं शताब्दी की अनुमानित की गई है। इनके दर्शन से विघ्न दूर होते हैं। एक अन्य मूर्ति पद्मावती देवी की है जो संवत् १८२७ की है। इसकी अवगाहना २ फुट १ इंच है। देवी के शीर्ष पर तीन फणों का मण्डप है। उसके ऊपर भगवान पाश्र्वनाथ विराजमान हैं। इस कमरे के निकट ही एक अन्य भोंयरे में भी कुछ मूर्तियाँ विराजमान हैं।
धर्मशाला- मंदिर के निकट धर्मशाला है। इसके अधिकांश भाग में मंदिरों का सामान रखा हुआ है, जिसमें लकड़ी के कुछ ऐसे खण्ड भी है, जिनके ऊपर लेख अंकित है। ये खण्ड इन लेखों के कारण अत्यन्त महत्वपूर्ण और बहुमूल्य कहे जा सकते हैं। इन्हें व्यवस्थित करके काँच के प्रेम में रख देना चाहिए, जिससे कीड़ों आदि से इनकी रक्षा हो सके। शिलाओं, भित्तियों आदि पर उत्कीर्ण लेखों के समान ही इन दारु-लेखों का भी अपना ऐतिहासिक महत्व है। धर्मशाला में बिजली की व्यवस्था है। मंदिर में कुआँ है, मंदिर के निकट पूर्णा नदी है। मंदिर का निर्माण पूर्ण होने के साथ धर्मशाला में यात्रियों के लिए आवश्यक सुविधाएँ उपलब्ध हैं।
क्षेत्र पर उपलब्ध सुविधाएँ- यहाँ पर ४५ कमरे हैं जिसमें ३० कमरे डीलक्स हैं, ४ हॉल हैं। भोजनशाला, औषधालय एवं विद्यालय भी है।