सूरत नगर के दिगम्बर जैन मन्दिर:— भारत वर्ष में सूरत नगर किसी भी क्षेत्र के लिए अनजाना नाम नहीं है। अपितु यह कहें कि विश्व के लिये भी अनजान नहीं है। यशस्वी गुजरात राज्य के प्रसिद्ध एवं ऐतिहासिक नगरों में से एक नगर है सूरत जो कि पश्चिम रेलवे के मुम्बई से मात्र २६३ कि.मी. की दूरी पर मुम्बई—बड़ौदा मार्ग के बीच स्थित है। यहां का हीरा उद्योग एवं वस्त्र व्यवसाय सारी दुनिया को अपनी ओर आकर्षित करता है। ताप्ती नदी के सुरम्य तट पर बसा सूरत नगर अतीत में अपनी कई यादें समेटे हुए है। इसका पूर्व नाम सूर्यपुर था जो कि मूर्ति लेखों और प्रशस्तियों में उपलब्ध है। प्राचीन काल में यह प्रसिद्ध बन्दरगाह था और जलमार्ग द्वारा यहां पर बड़े स्तर पर व्यापार होता था। इससे नगर की समृद्धि में निरन्तर वृद्धि होती गई। जैन मन्दिर:— सूरत नगर में सात दिगम्बर मन्दिर एवं ६ चैत्यालय हैं। नवापुरा में ४ मन्दिर हैं। मेवाड़ा का , गुजरातियों का , चौपडा का और दांडियों का एक दिगम्बर जैन मंदिर गोपीपुरा में है, जिसमें भट्टारकों की गादी है। चन्दावाड़ी के पास दो दिगम्बर जैन मन्दिर हैं। यहां पर पहले तीन मंदिर बहुत प्रसिद्ध थे। १. चन्द्रप्रभु जिनालय, २. आदिनाथ जिनालय, ३. वासुपूज्य जिनालय। इन जिनालयों के उल्लेख विभिन्न ग्रंथों, प्रशस्तियों और मूर्ति लेखों में मिलते हैं । चन्द्रप्रभु जिनालयां के सम्बन्ध में भट्टारक श्री ज्ञानसागरजी तीर्थ वंदना में निम्नलिखित विवरण दिया है।
गुज्जर देश पवित्र धर्म ध्यान गुण मण्डित। नगर सूर्यपुर नाम पाप मिथ्यात विहंडित।
श्रीचन्द्रप्रभु देव मनमोहन प्रासादह । अगणित महिमा जास देखत मन आल्हादह।।
सम्भवतः चन्द्रप्रभु जिनालय की बहुमान्यता उसकी अतिशय सम्पन्नता के कारण थी। किन्तु आदिनाथ जिनालय और वासुपूज्य जिनालय उस समय साहित्यिक केन्द्र बने हुए थे। यहां रहकर बहुश्रुत भट्टारक ग्रन्थ प्रणयन करते थे। इन मन्दिरों में एक छोटा किन्तु सबसे प्राचीन मंदिर गुजरातियों के मन्दिर की शाखा खपाटिया चकला में चन्दावाडी धर्मशाला के पास है। इस मंदिर में भोंयरा (गर्भगृह) भी है। इसमें सबसे प्राचीन प्रतिमा भगवान पाश्र्वनाथ की है जो संवत् १२३५ वैशाख शुक्ला १० को प्रतिष्ठित हुई थी। संवत् १९५६ में मंदिर का जीर्णोंदार हुआ। प्रतिमाओं को भोंयरे में से ऊपर लाया गया । एक ऊंचा शिखरबंद मन्दिर का निमार्ण करवाया गया। दिनांक २४ अप्रैल १८३७ में यहां माछलीपीठ मोहल्ले में भयंकर अग्निकांड हुआ था उसमें ६००० मकान भस्म हो गये थे। लगभग आधा शहर आग की भेंट चढ़ गया। उस अग्निकांड में एक मन्दिर भी जल कर भस्म हो गया , किन्तु प्रतिमाएं सुरक्षित रही। सन् १८३९ से १८४१ तक इस मंदिर का पुन: निर्माण हुआ। सन् १८४२ में मंदिर की प्रतिष्ठा हुई। यह चन्दावाड़ी के निकट एक दूसरा बड़ा मंदिर है। इस मंदिर में संवत् १३७६ से १८४९ तक की प्रतिमाएं हैं लनाय भगवान आदिनाथ की प्रतिमाए संवत १३७६ की है । इन दोनों मन्दिरों में जितनी प्रतिमाएं वे सब बलात्कार गण के भट्टारकों द्वारा प्रतिष्ठित हैं। नवापुरा में चिन्तामणि पाश्र्वनाथ भगवान का प्रसिद्ध मंदिर है। इस मंदिर को मेवाड़ा जाति के लोगों ने बनवाया था। भट्टारक श्री विजयकीर्ति जी ने इस मंदिर के भोंयरे में अपने गुरु की चरण पादुका स्थापित करवाई, जो आज भी मौजूद है। भट्टारक सुरेन्द्रकीर्तिजी का एक चित्र भी इस मंदिर में है। जो उनके समय में ही बनवाया गया था। पहले यहां मेवाड़ा जाति के काफी मकान थे। अब तो मात्र गिनती के ही मकान जैनों के हैं। इस मंदिर में भगवान पाश्र्वनाथ की पाषाण प्रतिमा का प्रतिष्ठा काल उसकी चरण चौकी पर संवत् १३८०माह सुदी १२ रविवार अंकित है। पद्मावती देवी की एक धातु प्रतिमा संवत् ११६४ की चौबीसी की धातु प्रतिमा संवत् १४९० की है और भगवान आदिनाथ की एक धातु प्रतिमा संवत् १४९७ की है। नवापुरा में चौपडा का एक जैन मंदिर है। इसमें भगवान पाश्र्वनाथ की एक पाषाण प्रतिमा संवत् ११६० की है और पद्मावती देवी की धातु प्रतिमा संवत् १२३५ की है। नवापुरा में तीसरा जैन मंदिर गुजराती मंदिर है। उसमें पाषाण फलक पर उत्कीर्ण चौबीसी है । उस मूर्ति लेख में जो प्रतिष्ठा काल दिया है वह ठीक से पढ़ा नहीं जाता, किन्तु उसमें मात्र तीन अंक है। प्रथम अंक पढ़ने में नहीं आया । उसके आगे ७५ का अंंक है। यह धातु प्रतिमाएं १३८०, १४२९, १४९९, १५०४, १५५८ संवत् की है। रांदेर में एक पुराना दिगम्बर जैन मन्दिर है। यह सूरत के दादिया मन्दिर की शाखा है। इसमें १६ इंच अवगाहन वाली भगवान शान्तिनाथ की मूलनायक प्रतिमा है जो संवत १६६६ में भट्टारक वारिचन्द्र के उपदेश से प्रतिष्ठित हुई । यह मन्दिर हुमड स्ट्रीट में है। रांदेर से लगभग १ कि.मी. दूरी पर कतारग्राम में भट्टारक श्री विद्यानन्द स्वामी तथा अन्य भट्टारकों के चरण स्थापित हैं । मुसलमानों के आगमन से पूर्व सूरत तथा रांदेर में जैनों की संख्या बहुत अधिक थी।