पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका
मंगलाचरण
स्त्रग्धरा छन्द
कायोत्सर्गायताङ्गो जयति जिनपतिर्नाभिसूनुर्महात्मा मध्यान्हे यस्य भास्वानुपरि परिगतो राजतेस्मोग्रर्मूित: ।।
चक्रं कर्मेन्धनानामतिबहुदहतो दूरमौदास्यवातस्फूर्यत्सद्ध्यानवह्नेरिव रुचिरतर: प्रोद्गतो विस्फुलिङ्ग:।।
अर्थ-दुपहर के समय जिस आदीश्वर भगवान के ऊपर रहा हुआ तेजस्वीसूर्य ज्ञानावरणादि कर्मरूपी र्इंधन को पल भर में भस्म करने वाली तथा वैराग्यरूपी पवन से जलाई हुई , ध्यानरूपी अग्नि से उत्पन्न हुवे मनोहर फुलिंगा के समान जान पड़ता है ऐसे कायोत्सर्ग सहित विस्तीर्णशरीर के धारी तथा अष्टकर्म के जीतने वाले उत्तम पुरूषों के स्वामी महात्मा श्री नाभिराजा के पुत्र श्रीऋषभदेव भगवान सदा जयवन्त है।
भावार्थ- इस श्लोक में उत्प्रेक्षालंकार है इसलिये ग्रन्थकार उत्प्रेक्षा करते हैं कि जिस प्रकार पवन से चेताई हुई अग्नि जिस समय काष्ठ के समूह को जलाती है उस समय जैसे उसके फुलिंगे आकाश में उड़कर जाते हैं। उस ही प्रकार श्री ऋषभदेवभगवान ने भी अपनी वैराग्यरूपी अग्नि से ज्ञानावरणादिकर्म के समूह को जलाया था तथा उसके भी फुलिंगे आकाश में उड़कर गये थे उन फ़ूलिंगाओं में से ही यह सूर्य भी एक फुलिंगा है।
सारार्थ—भगवानकी ध्यानरूपी अग्नि सूर्य से भी अधिक तेजवाली थी।।१।।
हाथों को नीचे किये तथा निश्चल और नासाग्रदृष्टि तथा एकान्तस्थान में ध्यानी भगवान को अपने मन में ध्यानकर ग्रन्थकार फिर भी उत्प्रेक्षा करते हैं।
शार्दूलविक्रीडित छन्द
नो किञ्चित्करकार्यमस्ति गमनप्राप्यं न किञ्चिद्दृशोर्दृश्यं यस्य न कर्णयो: किमपि हि श्रोतव्यमप्यस्ति न।
तेनालम्बितपाणिरुज्झितगतिर्नासाग्रदृष्टीरह: संप्राप्तोऽतिनिराकुलो विजयते ध्यानैकतानो जिन:।।२।।
अर्थ= भगवान को हाथ से करने योग्य कोई कार्य नहीं रहा है इसलिये तो उन्होंने हाथों को नीचे लटका दिया है तथा जाने के लायक कोई स्थान नहीं रहा है इसलिये वे निश्चल खड़े हुवे हैं और देखने योग्य कोई पदार्थ नहीं रहा है इसलिये भगवान नाक के ऊपर अपनी दृष्टि दे रखी है तथा एकान्तवास इसलिये किया है कि भगवान को पास में रहकर कोई बात सुनने के लिये नहीं रही है इसलिये इस प्रकार अत्यंत निराकुल तथा ध्यानरस में लीन भगवान सदा लोक में जयवन्त हैं।।२।।
रागो यस्य न विद्यते क्वचिदपि प्रध्वस्तमोहग्रहादस्त्रादे: परिवर्जनान्न च बुधैर्द्वेषोऽपि सम्भाव्यते।
तस्मात्साम्यमथात्मबोधनमतो जात: क्षय: कर्णणामानन्दादिगुणाश्रयस्तु नियतं सोऽर्हन् सदा पातु व: ।।३।।
अर्थ-मोह तथा परिग्रह के नाश हो जाने के कारण न तो किसी पदार्थ में जिस अर्हंत का राग ही प्रतीत होता है तथा अर्हंत भगवान ने समस्त शस्त्र आदि को छोड़ दिया है इसलिये विद्वानों को किसी में जिस अर्हंत का द्वेष भी देखने में नहीं आता तथा द्वेष के न रहने के कारण जो शान्तस्वभावी है तथा शान्तस्वभावी होने के ही कारण जिस अर्हंत ने अपनी आत्मा को जान लिया है तथा आत्मा का ज्ञाता होने के कारण जो अर्हंत कर्मोंकर रहित है तथा कर्मों से रहित होने के ही कारण जो आनन्द आदिगुणों का आश्रय है ऐसा अर्हंत भगवान मेरी सदा रक्षा करो अर्थात् ऐसे अर्हंत भगवान का मैं सदा सेवक हूं।
भावार्थ- जो रागी तथा द्वेषी है और जो निरन्तर स्त्रियों में रमण करता है तथा जो मोही है और शत्रु से भीत होकर जो निरन्तर शस्त्रों को अपने पास रखता है तथा कर्मों का मारा नाना प्रकार की गतियों में भ्रमण करता रहता है ऐसा स्वयं दु:खी अर्हंत दूसरे की क्या रक्षा कर सकता है? किंतु जो वीतराग है तथा काम मोह आदि जिसके पास भी नहीं फटकने पाते और जो जन्म मरणादिकर रहित है और कर्मों का जीतने वाला है वही दूसरे की रक्षा कर सकता है इसलिये ऐसे ही आप्त (अर्हन्त) के मैं शरण हूं।।३।।
इन्द्रस्य प्रणतस्य शेखरशिखारत्नार्कभासानखश्रेणीतेक्षणबिम्बशुम्भदलिभृद्दूरोल्लसत्पाटलम् ।
श्रीसद्माङ्घ्रियुगं जिनस्य दधदप्यम्भोजसाम्यं रजस्त्यत्तं जाड्यहरं परं भवतु नश्चेतोऽर्पितं शर्मणे।।४।।
अर्थ-जिस प्रकार कमलों पर भ्रमर गुंजार करते हैं उस ही प्रकार भगवान के चरण कमलों को बड़े—बड़े इन्द्र आकर नमस्कार करते हैं तथा उनके मुकुट के अग्रभाग में लगे हुये जो रत्न उनकी प्रभा सहित भगवान के चरणों के नखों में उन इन्द्रों के नेत्रों के प्रतिबिम्ब पड़ते हैं इसलिये भगवान के चरणों पर भी इन्द्रों के नेत्ररूपी भौंरे निवास करते हैं— तथा जिस प्रकार कमल कुछ सफेदी लिये लाल होते हैं उस ही प्रकार भगवान के चरण कमल भी कुछ सफेदी लिये हुए लाल वर्ण है तथा जिस प्रकार कमलों में लक्ष्मी रहती हैं उस ही प्रकार भगवान के चरणकमल भी लक्ष्मी के स्थान है अर्थात् चरण कमलों के आराधन करने से भव्य जीवों को उत्तम मोक्षरूपी लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। इसलिये यद्यपि कमल तथा भगवान के चरण कमल इन गुणों से समान है तथापि कमल धूलिसहित है तथा जड़ है और भगवान के चरणकमल धूलि पाप] रहित है तथा जड़ता के दूर करने वाले हैं अत: कमलों से भी उत्कृष्ट भगवान के चरणकमल सदा मेरे मन में स्थित रहो तथा कल्याण करो।
भावार्थ- रजका अर्थ धूलि भी होता है तथा पाप भी होता है इसलिये कमल तो धूलिकर सहित है किन्तु भगवान के चरणकमल धूलिकर रहित है अर्थात् चरणकमलों की सेवा करने से समस्त पापों का नाश हो जाता है तथा कमल सर्वथा जड़ है किन्तु भगवान के चरणकमलों में अंशमात्र भी जड़ता नहीं है अर्थात् चरणकमलों की आराधना करने से समस्त प्रकार की जड़ता नष्ट हो जाती है।।४।।
मालिनी छन्द
जयति जगदधीश: शान्तिनाथो यदीयं स्मृतमपि हि जानानां पापतापोपशान्त्यै।
विबुधकुलकिरीटप्रस्फुरन्नीलरत्नद्युतिचलमधुपालीचुम्बितंपादपद्मम् ।।५।।
अर्थ-नानाप्रकार के देवताओं के जो मुकुट उनमें लगी हुई जो चमकती हुई नीलमणि उनकी जो प्रभा वही जो चलती हुई भ्रमरों की पंक्ति उस पर सहित जिस शान्तिनाथ भगवान के चरणकमल स्मरण किये हुवे ही समस्त जनों के पाप तथा संताप को दूरकर देते हैं ऐसे वे तीन लोक के स्वामी श्री शांतिनाथ भगवान सदा जयवंत हैं।।५।।
स जयति जिनदेवो सर्वविद्विश्वनाथोऽवितथवचनहेतुक्रोधलोभाद्विमुक्त:।
शिवपुरपथपांथप्राणिपाथेयमुच्चैर्जनितपरमशर्मा येन धर्मोऽभ्यधायि।।६।।
अर्थ-सबके जानने वाले तथा तीन लोक के स्वामी और क्रोधलोभादिकर रहित इसीलये सत्य वचन के बोलने वाले श्री जिनदेव सदा जयवंत हैं जिन श्री जिनदेव ने मोक्षमार्ग को गमन करने वाले प्राणियों को पाथेय (टोसा) स्वरूप तथा उत्तम कल्याण के करने वाले उत्कृष्ट धर्म का निरूपण किया है।।६।।