(१३५)
आया न रास यह रावण को, शत्रू के घर खुशियाँ खेले।
भेजा दूतों को रामनिकट, प्रस्ताव दिये थे अलवेले।।
भाई और पुत्रों के संग में, सीता देना स्वीकार करो।
लंका का आधा राज्य तुम्हें, दे दूँगा अंगीकार करो।।
(१३६)
श्री रामचंद्र तब ये बोले, जाकर रावण से कह देना।
भाई और पुत्र सभी ले लें, पर राज्य नहीं मुझको लेना।।
मुझको बस मेरी सीता को, वापस कर दे ये इच्छा है।
वन में उनके संग रह लूँगा, न चाहिए उसकी भिक्षा है।।
(१३७)
जब देखा बहुत प्रयत्न किया, पर नहीं किसी विध दाल गली ।
तब शांति जिनालय में जाकर, विद्यासिद्धी में लगे बली।।
यह विद्या अगर सिद्ध कर ली, रावण को बहुत लोभ होगा।
यह सोच सभी जन चिन्तित थे, जनता का बहुत हृास होगा।।
(१३८)
बहुरूपिणी विद्या सिद्धी में, चौबीस दिवस लग जायेंगे।
इसकी सिद्धी के बाद कोई, रावण को हरा न पायेंगे।।
सब आपस में करके विमर्श, श्री रामप्रभु के पास गये।
यदि क्षुभित करें हम रावण को, जिससे वह सफल नहीं होवे।।
(१३९)
समझाया रामप्रभू ने तब,क्षत्रियों का यह काम नहीं।
जिनराज शरण जो बैठा हो,उसका ढिगना आसान नहीं ।।
पर रोक न पाये सब खुद को,जब आठ दिवस थे बीत गये ।
तब रामप्रभू की आज्ञा—बन, सबने अनेक उपसर्ग किये।।
(१४०)
यक्षेन्द्र तभी आकर बोले, इस तरह नही तुम पाप करो।
तब लक्ष्मण क्रोधित हो बोले, कुछ तो तुम भी समभाव धरो।।
परस्त्री हरण करके पापी, रावण ने क्या शुभ कार्य किया?।
जो उसका पक्ष चले लेने, क्योंकर अधर्म का साथ दिया ?।।
(१४१)
ये सुनकर लज्जित हुए देव, बोले जो जँचे वही करिये।
बिन तन को कष्ट दिए जितना, बस चले क्षुभित उनको करिये।।
तब सबने तरह—तरह के दुख दे, रावण को बहुत ढिगाया था।
मंदोदरी को उनके सन्मुख, दुख दे देकर तड़पाया था।।
(१४२)
आश्चर्यचकित हो गयी धरा, खुद नभ ने घुटने टेके थे।
रावण के अटल इरादों के, आगे पड़ गये सब फीके थे।।
पल ने कितने ही पल बदले, ऐसी न साधना देखी थी।
बहुरूपिणी विद्या प्रगट हुई, आकर रावण से बोली थी।।
(१४३)
हे देव मुझे आज्ञा दीजे, चरणों में सारा जग ला दूँ।
तुम कहो स्वर्ग के इंद्रों को, लाकर चरणों में झुकवा दूँ।।
यह सुन लंकेश हुए हर्षित, पर तभी रानियों को देखा।
दुख से संतप्त रानियों को, अमृतमय वचनों से सींचा।।
(१४४)
अब चले मनाने सीता को, अपना सब वैभव दिखलाया।
बोले मेरे व्रत के कारण, तेरी अनहुई रही काया।।
अब आशा छोड़ो रघुवर की, वह हाथ न तेरे आयेंगे।
अब तो हमको अपना लो तुम, दुनिया की सैर करायेंगे।।
(१४५)
यह सब सुनकर उनके नयना, अश्रु बन करके बरस उठे।
सीता के पावन तन मन में ये, शब्द बाण के सदृश लगे।।
बोली रावण से तब सीता, श्रीरामचंद्र से कह देना।
सीता जीवित उनकी खातिर, उनके बिन नहीं उसे रहना।
(१४६)
इतना कह सीता मूच्र्छित हो, गिर पड़ी वहीं पृथ्वीतल पर ।
रावण उनका यह प्रेम देख, धिक्कार उठा खुद अपने पर।।
इन प्रेमयुक्त दम्पत्ती को, क्यों कर विछोह करवाया है।
परस्त्री हरण के अपयश से, इस कुल को रोग लगाया है।।
(१४७)
अब लगे स्वयं को समझाने, अभिमान बीच में आया था।
ऐसे ही कैसे झुक जाऊँ, तब ही विचार ये आया था।।
अब युद्धभूमि में रघुवर को, जीवित ही पकड़ बाँध लूँगा।
वैभव संग उनकी प्राणप्रिया, सीता को उन्हें सौंप दूँगा।।
(१४८)
ये ही विचार करते—करते, वह अपने महल पहुँचता है।
भाई—पुत्रों की यादों से, मन फिर व्याकुल हो उठता है।।
पर किसी हृदय के कोने ने, ना झुकना था स्वीकार किया।
इसलिए युद्ध के लिए चले, और वहीं वार पर वार हुआ।।
(१४९)
पर दोनों पक्षों में कोई, दशदिन तक हार न जीत हुई ।
यह युद्ध देखने बैठी थी, आकाशमार्ग में कन्या भी।
वे आठों कन्यायें आपस में, ऐसी बात चलाती हैं।
‘‘सिद्धार्थ’’ होए लक्ष्मण मेरे, उन्हें भावी पति बतलाती हैं।।
(१५०)
सहसा लक्ष्मण के कानों में, ये शब्द मनोहर टकराये।
‘‘सिद्धार्थ’’ अस्त्र को याद किया, जिससे रण में सब चकराये।।
तब महाबली रावण ने भी, था चक्ररत्न स्मरण किया।
और क्रोधित होकर उसको फिर, लक्ष्मण के ऊपर चला दिया।।
(१५१)
वह चक्ररत्न आते देखा, सबने निजशस्त्र सम्भाले थे।
श्रीराम धनुष वङ्काावर्त से, सुग्रीव गदा ले आये थे।।
भामंडल और विभीषण भी, तलवार त्रिशूल लिये आये।
हनुमान—अंग—अंगद आदिक, उल्का—मुद्गर सब ले आये।।
(१५२)
जीवन की आशा छोड़ सभी, थे चक्ररत्न को रोक रहे।
पर कोई रोक नहीं पाया, सब दिलथामे बस देख रहे।।
विधि का विधान देखो ‘त्रिशला’’, वह लक्ष्मण सन्निध ठहर गया।
और त्रयप्रदक्षिणा दे करके, देवों ने अनुनय—विनय किया।।
(१५३)
यह देख एक क्षण रावण भी, चिंतासागर में डूब गया।
इस भूमिगोचरी के हाथों, मरना होगा यह दुख हुआ।।
अब याद आ गयी अनंतवीर्य, केवली प्रभू की वो वाणी।
लक्ष्मण ही नारायण होगा, सो सत्य हुई उनकी वाणी।।
(१५४)
लक्ष्मण ने फिर भी समझाया, हे नृप! ना अभी कुछ बिगड़ा है।
श्री रामचरण में आ जावो, रह जाये न कुछ भी झगड़ा है।।
यह राज्यसंपदा ये लंका, अब भी तेरी हो सकती है।
सीता को लौटा कर लो तुम,रामप्रभू की भक्ती है।।