(२१४)
यह सब सुनकर अंकुश बोले, कुल के अनुरूप न कार्य किया।
लोकापवाद के हल अनेक क्यों, इतना भीषण कष्ट दिया ?।।
ऐसे अन्यायी राजा से,हम युद्ध के लिए जाएँगे।
अपमान अकारण किया अत:, अब रण में उन्हें बताएँगे।।
(२१५)
ये बातें सुन माँ सीता के, आँखों से अश्रू निकल पड़े।
दोनों आश्चर्यचकित होकर, कारण रोने का पूछ पड़े।
तब सीता बोली पुत्रों से, स्मरण पति का आया है।
सोचा सब कुछ सच बतलाएँ,अब आज समय वो आया है।।
(२१६)
आश्चर्यचकित हो पुत्रों ने, पूछा जब कौन पिता मेरे ?।
जो अब तक रही छिपाती मैं, श्रीरामचंद्र ही पिता तेरे।।
ये युद्ध घोषणा सुन करके,अब मेरा मन घबराया है।
जाकर अब शीघ्र मिलो उनसे,तुम समय करो न जाया है।।
(२१७)
श्री रामचंद्र के सुत हैं हम, यह सुनकर हर्ष अपार हुआ।
पर वहाँ इस तरह क्यों जायें,जहाँ माँ का ना सत्कार हुआ।।
अब युद्धभूमि में ही हम सब, उनको अपना परिचय देंगे।
मां का अपमान सहन करके, इस तरह न हम मिल पायेंगे।।
(२१८)
समझाया बहुत तरह से फिर, पर झुकना ना स्वीकार किया।
ममता की ली आशीष और, फिर रण के लिए विहार किया।।
नारद ने शीघ्र खबर भेजी, भामण्डल को इन दोनों की ।
रोती सीता को शांत किया, ले करके आये जनक को भी।।
(२१९)
नभ में विमान को रोक लिया, और देख रहे संग्राम सभी।
जिसने देखा हो गया चकित, नहिं देखा ऐसा युद्ध कभी।।
श्रीरामचंद्र के साथ लवण—अंकुश लक्ष्मण के साथ भिड़े ।
पर रामलखन थे सोच रहे, क्यों अस्त्रशस्त्र निस्तेज पड़े ?।
(२२०)
लवकुश को मालूम पिता मेरे,इसलिए सम्भल कर वार करें।
पर लक्ष्मण अनजाने में ही,शत्रूवत् कई प्रहार करें।।
आखिर में अपना चक्ररत्न, अंकुश के ऊपर चला दिया।
लेकिन वो भी हो गया विफल, ये देख प्रभू से गिला किया।।
(२२१)
क्या ये दोनों बनकर आये, बलभद्र और नारायण हैं।
क्या झूठे हैं केवली वचन, या झूठी ये रामायण है।।
इस तरह उन्हें लज्जित देखा, आ गये तभी उनके गुरुवर।
बतलाया सुत ये रघुवर के,सुन आया लक्ष्मण को चक्कर।।
(२२२)
मूच्र्छित होकर गिर पड़े राम,उठ करके लिया भुजाओं में।
इतना सुतप्रेम उमड़ आया, कि नहीं समाया आँखों में।।
वह पिता—पुत्र का मिलन देखने, ऐसे जनता उमड़ी थी।
कोई बाला अंजन आँखों का, माथे पे लगा के दौड़ी थी।।
(२२३)
इस धक्का मुक्की के क्षण में, लग रही अयोध्या छोटी थी।
यह मिलन देखकर तृप्त हुई, सीताजी वापस लौटी थी।।
पुत्रों को लेकर चले राम, उनके संग भोजन—पान किया।
फिर वङ्काजंघ नृप का उनने, सीतारक्षक सम्मान किया।।
(२२४)
अब रघुवर से सुग्रीव और, हनुमान निवेदन करते हैं।
सीता को वापस लाने का, प्रभु से अनुमोदन करते हैं।।
वे बोले मुझे नहीं संशय, पर जनता को आश्वस्त करे।
अपने सतीत्व का परिचय दे, सबमें अपना विश्वास भरें।।
(२२५)
आज्ञा पाते ही हनूमान, चल पड़े लिवाने सीता को।
सीता रोकर के बोली तब हम, शांत करें कैसे मन को ।।
दुर्जन के वचनवाण से यह, हो चुका आज ये घायल है।
पर तेरी विनती और प्रभु की, आज्ञा का अब भी कायल है।।
(२२६)
बोले हनुमान सुनो माता, अब शोक त्याग कर चलो वहीं।
जो मुख निंदा के लिए खुले, उसे जीने का अधिकार नहीं ।।
अब नगर अयोध्या में हमने, अब लोगों को कह रक्खा है।
जहाँ सीता का गुणगान वहाँ, की जाए रत्न की वर्षा है।।
(२२७)
सब साथ पुत्र और पुत्रवधू को, लेकर चलीं अयोध्या वे।
जयकारों के संग राजभवन में, जाकर मिलीं राम से वे।।
पर देख सामने सीता को, जो रामचंद्र ने शब्द कहे।
इतना अपवाद सुना फिर भी,क्यों खड़ी सामने अब मेरे ?।
(२२८)
मै नहीं जानती थी रघुवर ! इतने निष्ठुर हो जायेंगे।
मुझ गर्भवती के साथ आप,ऐसा धोखा कर जायेंगे।।
हे कुटिल हृदय ! यदि सिंह—व्याघ्र,आ करके मुझको खा जाते ।
कुछ तो मन में सोचा होता, कैसे इन पुत्रों को पाते ?।
(२२९)
इतने दिन का ये साथ मेरा, जो किंचित् प्रेम किया होता ।
साध्वी की किसी वसतिका में, कह करके भेज दिया होता।।
मै नहीं मांगती कुछ भी तब, कम से कम सत्य कहा होता।
‘‘जनता का न्याय किया तुमने,मेरे संग न्याय किया होता’’।।