(२६५)
अब दीक्षा के थे भाव जगे, क्षण—क्षण बढ़ता वैराग्य गया ।
वस्त्राभूषण जब त्याग किये, देवों ने पंचाश्चर्य किया।।
सुग्रीव विभीषण आदी भी, दीक्षा लेकर बन गये यती ।
सोलह हजार राजागण भी, उनके ही संग बन गये मुनी।।
(२६६)
श्रीरामचंद्र मुनि एकाकी, रह वन को पावन करते थे।
वे तप की कठिन दुपहरी में, योगों को धारण करते थे।।
अब सुने पारणा की किरिया,सचमुच में बड़ी निराली थी।
जब निकले थे आहार हेतु,तब मची खलबली भारी थी।।
(२६७)
नगरी में कोलाहल सुनकर, पशुओं ने बंधन तोड़े थे।
राजा प्रतिनंदी के किंकर, आकर मुनिवर से बोले थे।।
हे नाथ! पधारे राजन घर, उत्तम—उत्तम भोजन करिए।
राजन ने तुम्हें बुलाया है, चलकर उनको पावन करिए।।
(२६८)
इस तरह बुलाने से मुनिगण, आहार कभी ना करते हैं।
इसलिए मानकर अन्तराय, वे भी वन को चल देते हैं।।
मन में लेकर संकल्प मुझे, जो वन में ही पड़गाहेगा।
यह नियम देखिए रामप्रभु का, कैसा संयोग मिलायेगा।।
(२६९)
सुनिए उन प्रतिनंदी नृप को, शत्रू हरकर वन में लाया।
तब राजा ने निज रानी से, वन में ही भोजन बनवाया।।
श्री रामप्रभु को पड़गाहन कर, उन दोनों ने आहार दिया।
सुर ने रत्नों को बरसा कर, प्रभुवर का जयजयकार किया।।