बाहत्तरि लक्खाणिं कोडीओ सत्त जिणणिकेदाणिं।
आदिणिहणुज्झिदाणिं भवणसमाइं विराजंति।।५३।।
। ७,७२००००० । सम्मत्तरयणजुत्ता णिब्भरभत्तीय णिच्चमच्चंति।
कम्मक्खवणणिमित्तं देवा जिणणाहपडिमाओ।।५४।।
कुलदेवा इदि मण्णिय अण्णेहिं बोहिया बहुपयारं।
मिच्छाइट्ठी णिच्चं पूजंंति जिणिंदपडिमाओ।।५५।।
वूक़डाण समंतादो पासादा होंति भवणदेवाणं।
णाणाविहविण्णासा वरकंचणरयणणियरमया।।५६।।
सत्तट्ठणवदसादियविचित्तभूमीहिं भूसिदा सव्वे।
लंबंतरयणमाला दिप्पंतमणिप्पदीयवंक़तिल्ला।।५७।।
जम्माभिसेयभूसणमेहुणओलग्गमंतसालाहिं।
विविधाहिं रमणिज्जा मणितोरणसुंदरदुवारा।।५८।।
सामण्णगब्भकदलीचित्तासणणालयादिगिहजुत्ता।
वंक़चणपायारजुदा विसालवलहीविराजमाणा य।।५९।।
धुव्वंतधयवडाया पोक्खर णीवाविवूक़वसंडाहिं।
सव्वे कीडणजुत्ता णाणावरमत्तवारणोपेता।।६०।।
मणहरजालकवाडा णाणाविहसालभंजिकाबहुला।
आदिणिहणेण हीणा किं बहुणा ते णिरुवमा णेया।।६१।।
चउपासाणिं तेसुं विचित्तरूवाणि आसणाणिं च।
बररयणविरचिदाणिं सयणाणि हवंति दिव्वाणिं।।६२।।
एस्ंसि इंदे परिवारसुरा हवंति दस एदे।
पडिइंदा तेत्तीसत्तिदसा सामाणीयदिसाइंदा।।६३।।
तणुरक्खा तिप्परिसा सत्ताणीया पइण्णगभियोगा।
किब्बिसया इदि कमसो पवण्णिदा इंदपरिवारा।।६४।।
आदि-अन्त से रहित (अनादिनिधन) वे जिनभवन भवनवासी देवों के भवनों की संख्या प्रमाण सात करोड़ बहत्तर लाख सुशोभित होते हैं।।५३।।
७,७२,०००००। जो देव सम्यग्दर्शनरूपी रत्न से युक्त हैं अर्थात् सम्यग्दृष्टि हैं, वे कर्मक्षय के निमित्त नित्य ही इन जिनप्रतिमाओं की भक्ति से पूजा करते हैं।।५४।।
इसके अतिरिक्त अन्य सम्यग्दृष्टि देवों से सम्बोधित किये गये मिथ्यादृष्टि देव भी कुलदेवता मानकर उन जिनेन्द्रमूर्तियों की नित्य ही बहुत प्रकार से पूजा करते हैं।।५५।।
कूटों के चारों तरफ नाना प्रकार की रचनाओं से युक्त और उत्तम सुवर्ण एवं रत्नसमूह से निर्मित भवनवासी देवों के प्रासाद हैं।।५६।। सब भवन सात, आठ, नौ, दश इत्यादिक विचित्र भूमियों से भूषित; लंबायमान रत्नमालाओं से सहित; चमकते हुए मणिमय दीपकों से सुशोभित; जन्मशाला, अभिषेकशाला, भूषणशाला,मैथुनशाला, ओलगशाला (परिचर्यागृह) और मंत्रशाला, इन विविध प्रकार की शालाओं से रमणीय; मणिमय तोरणों से सुंदर द्वारों वाले; सामान्यगृह, गर्भगृह, कदलीगृह, चित्रगृह, आसनगृह, नादगृह और लतागृह इत्यादि गृहविशेषों से सहित; सुवर्णमय प्राकार से संयुक्त; विशाल छज्जों से विराजमान; फहराती हुई ध्वजापताकाओं से सहित ; पुष्करिणी, वापी और कूप, इनके समूहों से युक्त; क्रीडनयुक्त; अनेक उत्तम मत्तवारणों से संयुक्त; मनोहर गवाक्ष और कपाटों से सुशोभित ; नाना प्रकार की पुत्तलिकाओं से सहित और आदि-अन्त से हीन अर्थात् अनादिनिधन हैं। बहुत कहने से क्या ? ये सब प्रासाद उपमा से रहित अर्थात् अनुपम हैं ऐसा जानना चाहिये।।५७-६१।।
उन भवनों के चारों पाश्र्व भागों में विचित्र रूप वाले आसन और उत्तम रत्नों से रचित दिव्य शय्यायें स्थित हैं।।६२।।
प्रतीन्द्र, त्रायस्त्रिंश देव, सामानिक, दिशाइन्द्र (लोकपाल), तनुरक्षक, तीन पारिषद, सात अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषिक, ये दश प्रत्येक इन्द्र के परिवार देव होते हैं । इस प्रकार क्रम से इन्द्र के परिवार देव कहे गये हैं।।६३-६४।।