इंदाणं चिण्हाणि तिरीटमेव मणिखजिदं।
पडिइंदादिचउण्हं चिण्हं मउडं मुणेदव्वा।।१३४।।
ओलगसालापुरदो चेत्तदुमा होंति विविहरयणमया।
असुरप्पहुदिकुलाणं ते चिण्हाइं इमा होंति।।१३५।।
अस्सत्थसत्तवण्णा संमलजुबू य वेतसकडंबा।
तह पीयंगू सिरसा पलासरायद्दुमा कमसो।।१३६।।
चेत्तदुमामूलेसुं पत्ते चउदिसासु चेट्ठंते।
पंच जिणिंदप्पडिमा पलियंकठिदी परमरम्मा।।१३७।। ‘
पडिमाणं अग्गेसुं रयणत्थंभा हवंति वीस फुडं।
पडिमापीढसरिच्छा पीडा थंभाण णादव्वा।।१३८।।
एक्केक्कमाणथंभे अट्ठावीसं जिणिंदपडिमाओ।
चउसु दिसासुं सिंहासणविण्णासजुत्ताओ।।१३९।।
सेसाओ वण्णणाओ चउवणमज्झत्थचेत्ततरुसरिसा।
छत्तादिछत्तपहुदीजुदाण जिणणाहपडिमाणं।।१४०।।
संखातीदा सेढी भावणदेवाण दसविकप्पाणं।
तीए पमाणं सेढी बिदंगुलपढममूलहदा।।१४३।।
सब इन्द्रों के चिन्ह मणियों से खचित किरीट (तीन शिखर वाला मुकुट ) और प्रतीन्द्रादिक चार देवों का चिन्ह साधारण मुकुट ही जानना चाहिये ।।१३४।।
ओलगशालाओं के आगे विविध प्रकार के रत्नों से निर्मित चैत्यवृक्ष होते हैं । ये (अग्रिमगाथा में निर्दिष्ट) चैत्यवृक्ष असुरादिक कुलों से चिन्हरूप होते हैं ।।१३५।।
अश्वत्थ (पीपल ), सप्तपर्ण, शाल्मलि, जामुन, वेतस, कदंब तथा प्रियंगु, शिरीष, पलाश और राजद्रुम, ये दश चैत्यवृक्ष क्रम से उन असुरादिक कुलों के चिन्हरूप होते हैं।।१३६।।
प्रत्येक चैत्यवृक्ष के मूल भाग में चारों ओर पल्यंकासन से स्थित परम रमणीय पांच-पांच जिनेन्द्रप्रतिमायें विराजमान होती हैं।।१३७।।
प्रतिमाओं के आगे बीस रत्नमय स्तम्भ (मानस्तम्भ) होते हैं । स्तम्भों की पीठिकायें प्रतिमाओं की पीठिकाओं के सदृश जानना चाहिये।।१३८।।
एक-एक मानस्तम्भ के ऊपर चारों दिशाओं में सिंहासन के विन्यास से युक्त अट्ठाईस जिनेन्द्रप्रतिमायें होती हैं ।।१३९।।
इस प्रकार बीस मानस्तम्भों में कुल ५६० प्रतिमायें होती हैं
छत्र के ऊपर छत्र इत्यादिक से युक्त जिनेंद्रप्रतिमाओं का शेष वर्णन चार वनों के मध्य में स्थित चैत्यवृक्षों के सदृश जानना चाहिए ।। १४० ।।
दस भेदरूप भवनवासी देवों का प्रमाण असंख्यात जगश्रेणीरूप है। उसका प्रमाण घनांगुल के प्रथम वर्गमूल से गुणित जगश्रेणीमात्र है ।। १४३ ।।