रत्नप्रभाक्षितेः सन्ति खरभागे महागृहाः।
चतुर्दशसहस्राणि भूतानामविनश्वराः१।।३९।।
रत्नप्रभावनेः पंकभागे रत्नमयाः शुभाः।
आवासा राक्षसानां स्युः सहस्रषोडशप्रमाः।।४०।।
शेषव्यन्तरदेवानां मध्यलोकेऽचलादिषु।
सर्वतः सन्ति चावासाश्चैत्यालयविराजिताः।।४१।।
अञ्जनो वङ्काधातुश्च द्वीपः सुवर्णनामकः।
द्वीपो मनःशिलाभिख्यो द्वीपो वङ्कासमाह्वयः।।४२।।
रजतो हिङ्गुलद्वीपो हरितालाभिधानकः।
अष्टद्वीपेषु चैतेषु समभागे समावनौ।।४३।।
अष्टानां व्यन्तरेन्द्राणां प्रत्येक़ शाश्वतानि च।
जम्बूद्वीपसमानानि पञ्चपञ्चपुराण्यपि।।४४।।
पूर्वादिदिक्षु विद्यन्ते मानस्तम्भजिनालयैः।
चैत्यवक्षैश्च युक्तानि स्वस्वेन्द्रनामभिः स्पुक़टम्।।४५।।
अमीषां मध्यभागस्थं स्वेन्द्रनामयुतं पुरम्।
प्रभं चावर्तवंâ कान्तं मध्यमं चेति दिक्ष्वपि।।४६।।
एतेषां पृथग्नामानि प्रोच्यंते— एषां पुराणां मध्यस्थपुरस्य किन्नरपुराख्यं नाम स्यात्।
पूर्वभागस्थितपुरस्य किन्नरप्रभाह्वयं नामास्ति।
दक्षिणदिग् भागस्थपुरस्य किन्नरावर्तपुराभिधं नाम स्यात्।
पश्चिमाशास्थपुरस्य किन्नरकान्तपुरसंज्ञं नामास्ति।
उत्तरदिग् स्थितपुरस्य किन्नर मध्यमाह्वयं नाम भवेत्।
तथा अन्येषां सप्तद्वीपस्थ सर्वपुराणां अनया रीत्या स्व
स्वेन्द्रनामपूर्वाणि प्रभावर्तकान्त मध्यमान्तानि नामानि भवन्ति।
प्राकारा नगरेषु स्युः शाश्वताः प्रोन्नताः शुभाः।
द्विक्रोशाधिकसप्तत्रिंशद्योजनैश्च विस्तृताः।।४७।।
मूले क्रोशद्वयाग्रद्वादशसंख्यैश्च योजनैः।
सार्धद्वियोजन व्यासा र्मूिध्न द्वारादिभूषिताः।।४८।।
द्वाराणामुदयोऽमीषां सार्धद्विषष्टियोजनः।
विस्तारः क्रोशसंयुत्तैकत्रिंशद्योजनप्रमः।।४९।।
द्वाराणां मस्तकेऽमीषां प्रासादामणिसङ्कुलाः।
विद्यन्ते प्रोन्नता रम्याः पञ्चसप्ततियोजनैः।।५०।।
विस्तृताः क्रोशसंयुत्तैकत्रिंशद्योजनैः शुभाः।
तेषां मध्ये सुधर्माख्यो राजते मणिमण्डपः।।५१।।
योजनानां नवोत्तुङ्गः सार्धद्वादशयोजनैः।
आयतो विस्तृतः क्रोशाधिकषड्भिश्च योजनैः।।५२।।
तस्य द्वाराणि रम्याणि द्वियोजनोन्नतानि च।
योजनव्यासयुक्तानि मण्डपस्य भवन्यपि।।५३।।
इत्येवं वर्णना ज्ञेया सर्वेन्द्राणां पुरेषु च।
नगराणां चतुर्दिक्षु चत्वारश्चैत्यपादपाः।।५४।।
रत्नपीठाश्रिता मूले चतुर्दिक्षु विराजिताः।
भौमेन्द्र पूजिताभिः स्युर्जिनेन्द्रदिव्यमूर्तिभिः।।५५।।
मानस्तम्भाश्च चत्वारो मणिपीठत्रिकोध्र्वगाः।
शालत्रय युताः सन्ति सिद्धबिम्बाढ्यशेखराः।।५६।।
अर्थ — रत्नप्रभा पृथिवी के खरभाग में भूत नामक व्यन्तर देवों के शाश्वत चौदह हजार महागृह हैं।।३९।।
रत्नप्रभा पृथिवी के पंकभाग में राक्षस कुल व्यन्तरों के रत्नमयी और अत्यन्त रमणीक सोलह हजार प्रमाण आवास हैं।।४०।।
शेष व्यन्तर देवों के चैत्यालयों से विभूषित आवास तिर्यग्लोक के पर्वतों पर सर्वत्र हैं।।४१।। अंजन, वज्रधातु, सुवर्णद्वीप, मनःशिल द्वीप, वज्रद्वीप, रजत द्वीप, हिन्गुलद्वीप और हरिताल द्वीप, इन आठ द्वीपों में चित्रा भूमि पर समभाग में अर्थात् भूमि के नीचे या पर्वतों के ऊपर नहीं जम्बूद्वीप सदृश समतल भूमि पर आठ प्रकार के व्यन्तर देवों में से प्रत्येक इन्द्र के जम्बूद्वीप सदृश प्रमाण वाले पाँच-पाँच नगर हैं।।४२-४४।।
ये नगर मानस्तम्भों, जिनालयों और चैत्यवृक्षों से युक्त तथा अपने-अपने इन्द्रों के नाम से संयुक्त पूर्वादि चारों दिशाओं में हैं। इन नगरों में से अपने-अपने इन्द्रों के नाम से संयुक्त पुर नाम का नगर मध्य में स्थित है, अवशेष किन्नरप्रभ, किन्नरावर्त, किन्नरकान्त और किन्नरमध्य ये चारों नगर क्रमशः पूर्व आदि चारों दिशाओं में अवस्थित हैं।।४५-४६।।
अर्थ — अंजन द्वीप के मध्य स्थित नगर का नाम किन्नरपुर है। पूर्व दिशा स्थित नगर का नाम किन्नरप्रभ है। दक्षिणदिग् स्थित नगर का नाम किन्नरावर्त है। पश्चिम दिश् स्थित नगर का नाम किन्नरकान्त है और उत्तर दिश् स्थित नगर का नाम किन्नरमध्य है। इसी प्रकार सातों द्वीपों में अपने-अपने इन्द्रों के नाम हैं पूर्व में जिनके, ऐसे पुर, प्रभ, आवर्त, कान्त और मध्य नाम के नगर इसी रीति से पूर्वादि दिशाओं में अवस्थित हैं।
अर्थ — उन प्रत्येक नगरों में ३७ योजन २ कोस , मूल में १२-१/२ योजन चौड़े, ऊपर २-१/२ योजन चौड़े, शाश्वत, शुभ और द्वारों आदि से विभूषित प्राकार हैं।।४७-४८।।
इन प्राकारों में स्थित द्वारों में से प्रत्येक द्वार की उँचाई ६२-१/२ योजन तथा चौड़ाई ३१-१/४ योजन प्रमाण है।।४९।।
इन द्वारों के ऊपर ७५ योजन उँचे और ३१-१/४ योजन चौड़े मणिमय प्रासाद हैं। जिनके मध्य में सुधर्मा नाम के मणिमय मण्डप सुशोभित होते हैं।।५०-५१।।
जो ९ योजन ऊँचे, १२-१/२ योजन चौड़े और ६-१/४ योजन चौड़े हैं।।५२।।
उस सभामण्डप के द्वार अत्यन्त रमणीक, दो योजन उँचे और एक योजन चौड़े हैं।।५३।।
इसी प्रकार का वर्णन सर्व इन्द्रों (दक्षिणेन्द्रों और उत्तरेन्द्रों) के नगरों में जानना चाहिए। नगरों की चारों दिशाओं में (एक-एक) चार चैत्यवृक्ष हैं। जिनके मूल में चारों दिशाओं में रत्नपीठ के आश्रित, व्यन्तर देवों से पूजित जिनेन्द्र भगवान की दिव्य मूर्तियाँ हैं।।५४-५५।।
इन्हीं चारों वृक्षों के सामने तीन-तीन मणिमय पीठ के ऊपर तीन कोट से युक्त चार मानस्तम्भ हैं, जिनके शिखर सिद्ध भगवान के बिम्बों से युक्त हैं।।५६।।