इतः परं प्राप्तावसरं नरतिर्यग्लोकं निरूपयितुमनास्तावल्लोकद्वयस्थितजिनभवनस्तुतिपूर्वक तत्संख्यामाह— णमह णरलोयजिणघर चत्तारि सयाणि दोविहीणाणि। वावण्णं चउ चउरो णंदीसर वुंडले रुचगे१।।५६१।।
नमत नरलोकजिनगृहाणि चत्वारि शतानि द्विविहीनानि। द्वापञ्चाशत् चत्वारि चत्वारि नन्दीश्वरे कुण्डले रुचके।।५६१।। णमह।
नरलोके चतुःशतानि द्विविहीनानि ३९८ जिनगृहाणि नन्दीश्वरद्वीपे कुण्डलद्वीपे रुचकद्वीपे च तिर्यग्लोकसम्बन्धीनि यथासंख्यं द्वापञ्चाशज्जिनगृहाणि ५२ चत्वारि जिनगृहाणि ४ चत्वारि जिनगृहाणि ४ नमत।।५६१।।
इसके आगे प्राप्त किया है अवसर जिन्होंने, ऐसे नरतिर्यग्लोक के निरूपण की अभिलाषा से संयुक्त आचार्यदेव सर्वप्रथम दोनों लोकों में स्थित जिनमन्दिरों की स्तुतिपूर्वक संख्या कहते हैं—
गाथार्थ — मनुष्यलोक सम्बन्धी दो कम चार सौ (३९८) जिनमन्दिरों को तथा तिर्यग्लोक सम्बन्धी नन्दीश्वर द्वीप, कुण्डलगिरि और रुचकगिरि में क्रम से स्थित बावन, चार और चार जिनमन्दिरों को नमस्कार करो।।५६१।।
विशेषार्थ — मनुष्यलोक अर्थात् अढाई द्वीप में ३९८ अकृत्रिम जिनचैत्यालय हैं तथा नन्दीश्वर द्वीप में ५२, कुण्डलगिरि पर ४ और रुचकगिरि पर चार इस प्रकार तिर्यग्लोक में ६० अकृत्रिम जिनचैत्यालय हैं। इन सर्व (३९८ ± ६० · ४५८) जिनमन्दिरों को नमस्कार करो।