तक्वूडब्भंतरए चत्तारि हवंति सिद्धकूडाणिं। पुव्वसमाणं णिसहट्ठिदजिणपुरसरिसजिणणिकेदाणिं।।१६५।।
दिसविदिसं तब्भाए चउ चउ अट्ठाणि सिद्धकूडाणिं। उच्छेदप्पहुदीए णिसहसमा केइ इच्छंति।।१६६।।
लोयविणिच्छयकत्ता रुचकवरद्दिस्स वण्णणपयारं। अण्णेण सरूवेणं वक्खाणइ तं पयासेमि।।१६७।।
होदि गिरि रुचकवरो रुंदो अंजणगिरिंदसमउदओ। बादालसहस्साणिं वासो सव्वत्थ दसधणो गाढो।।१६८।। ८४०००। ४२०००। १०००।
कूडा णंदावत्तो सत्थियसिरिवच्छवड्ढमाणक्खा। तग्गिरिपुव्वदिसाए सहस्सरुंदं तदद्धउच्छेहो।।१६९।।
एदेसु दिग्गजिंदा देवा णिवसंति एक्कपल्लाऊ। णामेहिं पउमुत्तरसुभद्दणीलंजणगिरीओ।।१७०।।
तकूडब्भंतरए वरकूडा चउदिसासु अट्ठट्ठा। चेट्ठंति दिव्वरूवा सहस्सरुंदा तदद्धउच्छेहा।।१७१।। १०००। ५००।
पुव्वोदिदणामजुदा एदे बत्तीस रुचकवरकूडा। तेसु य दिसायकण्णा ताइं चिय ताण णामाणिं।।१७२।।
होंति हु ईसाणादिसु विदिसासुं दोण्णि दोण्णि वरकूडा। वेरुलियमणीणामा रुचका रयणप्पहा णामा।।१७३।।
रयणं च संखरयणा रुचकुत्तमरयणउच्चका कूडा। एदे पदाहिणेणं पुव्वोदिदकूडसारिच्छा।।१७४।।
तेसु दिसाकण्णाणं महत्तरीओ कमेण णिवसंति। रुचका विजया रुचकाभा वइजयंति रुचकवंता।।१७५।।
तह य जयंती रुचकुत्तमा य अपराजिदा जिणिंदस्स। कुव्वंति जातकम्मं एदाओ परमभत्तीए।।१७६।।
विमला णिच्चालोका सयंपहा तह य णिच्चउज्जोवा। चत्तारो वरकूडा पुव्वादिपदाहिणा होंति।।१७७।।
तक्डब्भंतरए चत्तारि भवंति सिद्धवरकूडा। पुव्वादिसु पुव्वसमा अंजणजिणगेहसरिसजिणगेहा।।१७८।।
पाठान्तरम्।
इन कूट के अभ्यन्तर भाग में चार सिद्धवूकूट, जिन पर पहले के समान ही निषधपर्वतस्थ जिनभवनों के सदृश जिनमन्दिर विद्यमान हैं।।१६५।। कोई आचार्य उँचाई आदिक में निषध पर्वत के समान ऐसे दिशाओं में चार और विदिशाओं में चार इस प्रकार आठ सिद्धकूटोंकूट स्वीकार करते हैं।।१६६।। लोकविनिश्चयकर्ता रुचकवर पर्वत के वर्णन प्रकार का अन्य प्रकार से व्याख्यान करते हैं, उसको यहाँ दिखलाता हूँ।।१६७।। रुचकवर पर्वत अंजनगिरि के समान उंचा, बयालीस हजार योजन विस्तार वाला और सर्वत्र दश के घन (एक हजार) योजनप्रमाण अवगाह से सहित है।।१६८।। उत्सेध ८४०००। व्यास ४२०००। अवगाह १०००। इस पर्वत की पूर्वदिशा से लेकर नन्द्यावर्त, स्वस्तिक, श्रीवृक्ष और वर्धमान नामक चार कूकूट। इन कूटोंकूट विस्तार एक हजार योजन और ऊँचाई इससे आधी है।।१६९।। इन कूकूटपर एक पल्यप्रमाण आयु के धारक पद्मोत्तर, सुभद्र, नील और अंजनगिरि नामक चार दिग्गजेन्द्र देव निवास करते हैं।।१७०।। इन कूकूटके अभ्यन्तर भाग में एक हजार योजन विस्तार वाले और इससे आधे उँचे चारों दिशाओं में आठ-आठ दिव्य रूप वाले उत्तम कूकूटत हैं।।१७१।। विस्तार १०००। उत्सेध ५००। ये बत्तीस रुचकवरकूट कूटक्त नामों से युक्त हैं। इन पर जो दिक्कन्यायें रहती हैं, उनके नाम भी वे (पूर्वोक्त) ही हैं।।१७२।। वैडूर्य, मणिप्रभ, रुचक, रत्नप्रभ, रत्न, शंखरत्न (सर्वरत्न), रुचकोत्तम और रत्नोच्चय, इन पूर्वोक्त कूटों कूटदृश कूटों कूटदो-दो उत्तम कूट प्रकूटण क्रम से ईशानादि विदिशाओं में स्थित हैं।।१७३-१७४।। इन कूटों पकूटम से रुचका, विजया, रुचकाभा, वैजयन्ती, रुचककान्ता, जयन्ती, रुचकोत्तमा और अपराजिता, ये दिक्कन्याओं की महत्तरियाँ (प्रधान) निवास करती हैं। ये सब उत्कृष्ट भक्ति से जिनेन्द्रभगवान् के जातकर्म को किया करती हैं।।१७५-१७६।। विमल, नित्यालोक, स्वयंप्रभ तथा नित्योद्योत, ये चार उत्तम कूट पूर्वाकूटक दिशाओं में प्रदक्षिणरूप से स्थित हैं।।१७७।। इन कूटों कूटभ्यन्तर भाग में चार सिद्धवर कूट हैंकूटनके ऊपर पहले के ही समान अंजनपर्वतस्थ जिनभवनों के सदृश जिनालय स्थित हैं।।१७८।।
पाठान्तर।