पुष्करद्वीप के बीच में जो मानुषोत्तर नामक सुवर्णमय उत्तम पर्वत स्थित है वह कोट के घेरे के समान है।।६६।। वह पर्वत सत्रह सौ इक्कीस (१७२१) योजन ऊँचा है। उसका अभ्यन्तर तट टांकी से छेदे गये के समान और बाह्य पाश्र्वभाग क्रम से ऊँचा है।।६७।। इस पर्वत का विस्तार मूल में एक हजार बाईस (१०२२) योजन, ऊपर शिखर पर चार सौ चौबीस (४२४) योजन और मध्य में उन दोनों के अर्धभाग अर्थात् सात सौ तेईस (१०२२ – ४२४ · ७२३) योजन प्रमाण माना गया है।।६८।। मानुषोत्तर पर्वत की परिधि अंकक्रम से तीन, एक, सात, छह, तीन, दो, चार और एक (१४२३६७१३) इतने योजन से कुछ अधिक है।।६९।। परिधि की इस अधिकता का प्रमाण एक हजार तीन सौ तीस धनुष, एक हाथ, दस अंगुल और पाँच जौ है—दण्ड १३३०, हाथ १, अंगुल १०, जौ ५।।७०।। इस पर्वत के शिखर पर जो वेदिका स्थित है वह आधा योजन ऊँची और पाव कोस से सहित एक कोस (दण्ड २५००) विस्तृत है। यह पर्वत चौदह गुफाओं से संयुक्त है।।७१।। पुष्करार्ध द्वीप में स्थित बाह्य चौदह नदियाँ इन गुफाओं में से जाकर पुष्करोद समुद्र को प्राप्त हुई हैं और शेष चौदह नदियाँ कालोदक समुद्र को प्राप्त हुई हैं।।७२।। इस पर्वत के ऊपर चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में तीन-तीन तथा पूर्व दो विदिशाओं (ईशान व आग्नेय) में भी तीन-तीन कूट स्थित हैं। इस प्रकार उसके ऊपर सब अठारह (१८) कूट स्थित हैं।।७३।। उन सब कूटों के ऊपर गरुडेन्द्र के नगर हैं जिनमें गरुडवंशीय गिरिकन्यायें और गिरिकुमार रहते हैं।।७४।। उनमें से अग्नि और ईशान कोण के कूटों पर सुपर्ण (गरुड) कुल में उत्पन्न हुए कुमार (सुपर्णकुमार) तथा शेष कूटों के ऊपर दिक्कुमारियाँ रहती हैं।।७५।। उक्त पर्वत की चारों दिशाओं में चार अर्हदायतन (जिनभवन) स्थित हैं जो विस्तारादिक में निषध पर्वत के ऊपर जिनभवनों के समान हैं। इसी प्रकार के जिनभवन इष्वाकार पर्वतों के ऊपर भी स्थित हैं।।७६।।