इस प्रकार द्विगुण-द्विगुण वलय विष्कम्भ वाले द्वीप-समुद्रों के व्यतीत होने पर ग्यारहवाँ कुण्डलवर द्वीप आता है। इसके ठीक मध्य में वलयाकार और अखण्ड यवों की राशि के समान कुण्डल नाम का पर्वत है। यह पर्वत एक हजार योजन प्रमाण पृथ्वीतल में गहरा है और बयालीस हजार योजन प्रमाण उँचा है। इस पर्वत का भूमिगत पर (मूल में) विस्तार दस हजार बावीस योजन है, मध्य भाग में विस्तार सात हजार तेबीस योजन है और ऊपर के भाग का विस्तार चार हजार चौबीस योजन प्रमाण है। उस कुण्डल पर्वत के ऊपर पूर्व आदि दिशाओं में क्रमशः वङ्का, वङ्काप्रभ, कनक, कनकप्रभ, रजत, रजतप्रभ, सुप्रभ, महाप्रभ, अंक, अज्र्प्रभ, मणि, मणिप्रभ, स्फटिक, स्फटिकप्रभ, हिमवत्, और महेन्द्र नाम के सोलहकूट हैं। इनकी उँचाई आदि मानुषोत्तर पर्वत केकूट के समान है। ये वूकूटक-एक दिशा में चार-चार जानने चाहिए। इन सोलह कूट पर सोलह नागेन्द्र रहते हैं। जैसे—पूर्व दिशा में वङ्का नामक वूकूटर त्रिशिरा, वङ्काप्रभ कूटपर पञ्चशिरा, कनक कूटपर महाशिरा और कनकप्रभकूट पर महाभुज नामक नागेन्द्र निवास करता है। दक्षिण दिशा में रजत नामक कूटपर पद्म, रजतप्रभकूट पर पद्मोत्तर, सुप्रभकूट पर महापद्म और महाप्रभकूट पर वासुकी नागेन्द्र वास करता है। पश्चिम दिशा में अज्र् नामक कूटपर स्थितहृदय, अंकप्रभकूट पर महाहृदय, मणिकूट पर श्रीवृक्ष और मणिवृक्ष कूटपर स्वस्तिक नागेन्द्र का वास है। उत्तरदिशा में स्फटिक कूटपर सुन्दर, स्फटिकप्रभ कूटपर विशालाक्ष, हिमवत कूटपर पाण्डुर और महेन्द्र कूटपर पाण्डुक नागेन्द्र निवास करता है। त्रिशिरा से लेकर पाण्डुक तक सर्व सोलह नागेन्द्रों की आयु एक पल्य प्रमाण है। कुण्डलगिरि के ऊपर पूर्व और पश्चिम दिशा में एक-एक हजार योजन उँचे, मूल में एक-एक हजार योजन चौड़े, मध्य में साढ़े सात सौ योजन और ऊपर के भाग में पाँच सौ-पाँच सौ योजन विष्कम्भ वाले दो कूटहैं। उनमें कुण्डलवर द्वीप के अधिपति निवास करते हैं। उस कुण्डलगिरि पर पूर्वादि (पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर) दिशाओं में चार जिनालय हैं। उन जिनालयों की उँचाई आदि का सर्व वर्णन अञ्जनगिरि के जिनालयों के समान है।