वेदी के अभ्यन्तर भाग में प्राकार से वेष्टित एवं उत्तम गोपुरद्वार व तोरणों से संयुक्त ऐसे महोरग देवों के (भवन) स्थित हैं।।२५।। पाठान्तर। नगरों में विविध प्रकार की रचनाओं से युक्त, अनेक उत्तमोत्तम रत्नसमूहों से निर्मित, अभ्यन्तरभाग में चैत्य तरुओं से सहित, चारों ओर प्रदीप्त रत्नदीपकों से सुशोभित, विविध प्रकार के धूपघटों से युक्त, वङ्कामय कपाटों से संयुक्त और वेदी व गोपुरद्वारों से सहित रमणीय प्रासाद हैं।।२६-२७।। ये प्रासाद जघन्यरूप से पचहत्तर धनुष ऊँचे, सौ धनुष लंबे और पचास धनुषप्रमाण विस्तारयुक्त हैं।।२८।। ऊँचाई ७५; लंबाई १००; विस्तार ५० धनुष। इन प्रासादों के द्वारों में प्रत्येक की ऊँचाई बारह धनुष, व्यास छह धनुष और अवगाढ़ चार धनुषप्रमाण है।।२९।। ऊँचाई १२; व्यास ६; अवगाढ़ ४ धनुष। उत्कृष्ट प्रासादों में प्रत्येक की ऊँचाई दो सौ पच्चीस धनुष, लम्बाई तीन सौ धनुष और विश्कंभ इससे आधा अर्थात् एक सौ पचास धनुषप्रमाण है।।३०।। ऊँचाई २२५; लम्बाई ३००; वि. १५० धनुष। उत्कृष्ट प्रासादों के द्वारों में प्रत्येक द्वार की ऊँचाई छत्तीस धनुष, विश्कंभ अठारह धनुष और अवगाढ़ नियम से बारह धनुष प्रमाण है।।३१।। ऊँचाई ३६; वि. १८, अव. १२ धनुष। भावार्थ — चैत्यवृक्ष का अर्थ है कि जिनवृक्षों की कटनी पर चैत्य अर्थात् जिनप्रतिमाएँ हैं उन्हें ही चैत्यतरु—चैत्यवृक्ष कहते हैं।
अकृत्रिम जिनमंदिर के परकोटे मेंचैत्यवृक्ष, सिद्धार्थवृक्ष आदि में जिनप्रतिमाएँ
पीठ के चारों ओर उत्तम गोपुरों से युक्त बारह वेदियां भूमितल पर और इतनी ही पीठ के ऊपर हैं।।१९०३।। पीठ के उपरिम भाग पर सोलह कोस प्रमाण ऊंचा दिव्य व उत्तम तेज को धारण करने वाला सिद्धार्थ नामक चैत्यवृक्ष है ।। १९०४ ।। को. १६ । चैत्यवृक्ष के स्कन्ध की ऊँचाई चार कोस, बाहल्य एक कोस और शाखाओं की लम्बाई व अन्तराल बारह कोस प्रमाण है।।१९०५।। को. ४ । १। १२। १२। पीठ के ऊपर इसी प्रमाण को धारण करने वाले एक लाख चालीस हजार एक सौ बीस इसके परिवार वृक्ष हैं।।१९०६।।१४०१२०। ये वृक्ष विविध प्रकार के उत्तम रत्नों से निर्मित शाखाओं, मरकतमणिमय पत्तों, पद्मरागमणिमय फलों और सुवर्ण एवं चाँदी से निर्मित पुष्पों से सदैव संयुक्त रहते हैं।।१९०७।। ये सब उत्तम दिव्य चैत्यवृक्ष अनादिनिधन और पृथ्वीरूप होते हुए जीवों की उत्पत्ति और विनाश के स्वयं कारण होते हैं ।। १९०८ ।। इन वृक्षों में प्रत्येक वृक्ष के चारों ओर विविध प्रकार के रत्नों से रचित चार-चार जिन और सिद्धों की प्रतिमायें विराजमान हैं। ये प्रतिमायें जयवन्त होवें ।। १९०९ ।। चैत्यवृक्षों के आगे सुवर्णमय दिव्य पीठ है। इसकी ऊँचाई, लम्बाई और विस्तारादिक का उपदेश नष्ट हो गया है ।।१९१०।। पीठ के चारों ओर भूमितल पर मार्ग व अट्टालिकाओं, गोपुरद्वारों और तोरणों से विचित्र बारह वेदियां हैं।।१९११।। पीठ के ऊपर विविध प्रकार के मणिसमूह से खचित और अनेक प्रकार के चमर व घंटाओं से युक्त चार योजन ऊँचे सुवर्णमय खम्भे हैं।।१९१२।। सब खम्भों के ऊपर अनेक प्रकार के वर्णों से रमणीय और शिखर पर तीन छत्रों से सुशोभित महेन्द्र नामक महाध्वजायें हैं।।१९१३।। महाध्वजाओं के आगे मगर आदि जलजन्तुओं से रहित जल वाली और कमल, उत्पल व कुमुदों से व्याप्त चार वापिकायें हैं।।१९१४।। वेदिकादि से सहित वापिकायें प्रत्येक पचास कोस प्रमाण विस्तार से युक्त, इससे दुगुणी अर्थात् सौ कोस लम्बी और दश कोस गहरी हैं।।१९१५।। को. ५० । १०० । ग. १०। वापियों के बहुमध्य भाग में प्रकाशमान रत्नकिरणों से सहित एक जिनेन्द्रप्रासाद स्थित है। बहुत कथन से क्या, वह जिनेन्द्रप्रासाद (जिनमंदिर) निरूपम है।।१९१६।। अनन्तर वापियों के आगे पूर्व, उत्तर और दक्षिण भागों में देवों के रत्नमय क्रीडाभवन हैं।।१९१७।। विविध वर्णों को धारण करने वाले वे भवन पचास कोस ऊँचे, क्रम से पच्चीस कोस विस्तृत और पच्चीस ही कोस लम्बे तथा धूपघटों से संयुक्त हैं।।१९१८।। को. ५० । २५ । २५। उत्तम वेदिकाओं से रमणीय और उत्तम सुवर्णमय तोरणों से युक्त वे भवन उत्कृष्ट वङ्का, नीलमणि और मरकत मणियों से निर्मित भित्तियों से शोभायमान हैं।।१९१९।। उन भवनों के आगे इतने ही प्रमाण से संयुक्त फहराती हुई ध्वजापताकाओं से सहित और प्रकाशमान उत्तम रत्नों के किरणसमूह से सुशोभित दो प्रासाद हैं।।१९२०।। ५० ।। २५ । २५ । इसके आगे सौ कोस ऊंचे और क्रम से पचास कोस लम्बे-चौड़े दिव्य रत्नों से निर्मित विचित्र रूप वाले प्रासाद हैं।।१९२१।। ज्येष्ठ द्वार के आगे जो दिव्य मुखमण्डपादिक कहे जा चुके हैं, वे आधे प्रमाण से सहित क्षुद्र द्वारों में भी हैं।।१९२२।। इसके आगे मार्ग, अट्टालिकाओं और गोपुरद्वारों से सहित सुवर्णमयी वेदी इन सबको वेष्टित करके स्थित है।।१९२३।। इस वेदी के आगे चारों दिशाओं में सुवर्ण एवं रत्नमय उन्नत खम्भों से सहित दश प्रकार की श्रेष्ठ ध्वजपंक्तियाँ स्थित हैं ।।१९२४।। सिंह, हाथी, बैल, गरुड़, मोर, चन्द्र, सूर्य, हंस, कमल और चक्र, इन चिह्नों से युक्त ध्वजाओं में से प्रत्येक एक सौ आठ और इतनी ही क्षुद्रध्वजायें हैं ।।१९२५।। प्रकाशमान रत्नकिरणों से संयुक्त और चार गोपुरद्वारों से रमणीय सुवर्णमय उत्तम वेदी इनको वेष्टित करके स्थित है।।१९२६।। यह वेदी दो कोस ऊँची, पांच सौ धनुष चौड़ी, फहराती हुई ध्वजापताकाओं से सहित और स्फटिक मणिमय अनेक उत्तम भित्तियों से संयुक्त है।।१९२७।। को. २ । द. ५००। इसके आगे जिनभवनों में चारों ओर तीनों लोकों को आश्चर्य उत्पन्न करने वाले स्वरूप से संयुक्त वे दश प्रकार के कल्पवृक्ष हैं।।१९२८।। सब प्रकार के कल्पवृक्ष गोमेदमणिमय स्कन्ध से सहित, सुवर्णमय कुसुमसमूह से रमणीय, मरकतमणिमय पत्तों को धारण करने वाले, मूंगा, नीलमणि एवं पद्मरागमणिमय फलों से संयुक्त, अकृत्रिम और अनादिनिधन हैं। इनके मूल में चारों ओर चार जिनेन्द्रप्रतिमायें विराजमान हैं।। १९२९-१९३०।। उन स्फटिक मणिमय वीथियों के मध्य में से प्रत्येक वीथी के प्रति विचित्र रूप वाले वैडूर्यमणिमय मानस्तम्भ सुशोभित हैं।।१९३१।। चार वेदीद्वार और तोरणोें से युक्त ये मानस्तम्भ ऊपर चँवर, घंटा, विंâकिणी और ध्वजा इत्यादि से संयुक्त होते हुए शोभायमान होते हैं।।१९३२।। इन मानस्तम्भों के नीचे और ऊपर चारों दिशाओं में विराजमान, उत्तम रत्नों से निर्मित और जग से कीर्तित चरित्र से संयुक्त जिनेन्द्रप्रतिमाएँ जयवन्त होवें।।१९३३।। मार्ग व अट्टालिकाओं से युक्त, नाना प्रकार की ध्वजापताकाओं के आटोप से सुशोभित और श्रेष्ठ रत्नसमूह से निर्मित कोट इस कल्पमही को वेष्टित करके स्थित है।।१९३४।। चूलिका के दक्षिण, पश्चिम और उत्तर भाग में भी पूर्वदिशावर्ती जिनभवन के समान वर्णनों से संयुक्त एक-एक जिनभवन है उपर्युक्त वर्णन पांडुकवन के जिनमंदिर का है।।१९३५।। इस प्रकार यहां संक्षेप से पाण्डुकवन का वर्णन किया गया है । उसका विस्तार से वर्णन करने के लिये तो इन्द्र भी समर्थ नहीं हो सकता है।।१९३६।। पाण्डुकवन के नीचे छत्तीस हजार योजन जाकर सौमनस नामक वन मेरु को वेष्टित करके स्थित है।।१९३७।। ३६०००। यह सौमनस वन पाँच सौ योजनप्रमाण विस्तार से सहित, सुवर्णमय वेदिकाओं से वेष्टित, चार गोपुरों से संयुक्त और क्षुद्रद्वारों से रमणीय है।।१९३८।। उसका बाह्यविस्तार चार हजार दो सौ बहत्तर योजन और ग्यारह से भाजित आठ कलाप्रमाण है।।१९३९।। ४२७२-८/११।
समवसरण में चैत्यवृक्ष व सिद्धार्थवृक्ष पर जिनप्रतिमाएँ
इसके आगे चौथी उपवन भूमि होती है, जिसमें पूर्वादिक दिशाओं के क्रम से अशोकवन, सप्तपर्णवन, चम्पकवन और आम्रवन ये चार वन शोभायमान होते हैं।।८०३।। ये उपवनभूमियाँ विविध प्रकार के वनसमूहों से मण्डित, विविध नदियों के पुलिन और क्रीडापर्वतों से तथा अनेक प्रकार की उत्तम वापिकाओं से रमणीय होती हैं।।८०४।। एक-एक उपवनभूमि में अशोक, सप्तच्छद, चम्पक और आम्र ये चार-चार सुन्दर वृक्ष होते हैं।।८०५।। चामरादि (चँवर) से सहित चैत्यवृक्षों की ऊँचाई बारह से गुणित अपने-अपने तीर्थंकरों की ऊँचाई के सदृश होती है।।८०६।। एक-एक चैत्यवृक्ष के आश्रित आठ महाप्रातिहार्यों से संयुक्त चार-चार मणिमय जिनप्रतिमाएँ होती हैं।।८०७।। उपवन की वापिकाओं के जल से अभिषिक्त जनसमूह एक भवजाति को देखते हैं और उसके निरीक्षण मात्र के होने पर अर्थात् वापी के जल में निरीक्षण करने पर सात अतीत व अनागत भवजातियों को देखते हैं।।८०८।। एक-एक चैत्यवृक्ष के आश्रित तीन कोटों से वेष्टित व तीन पीठों के ऊपर चार-चार मानस्तम्भ होते हैं।।८०९।। कल्पभूमियों के भीतर पूर्वादिक दिशाओं में नमेरु, मंदार, संतानक और पारिजात, ये चार-चार महान् सिद्धार्थ वृक्ष होते हैं।। ८३३।। ये सब सिद्धार्थ वृक्ष तीन कोटों से युक्त और तीन मेखलाओं के ऊपर स्थित होते हैं। इनमें से प्रत्येक वृक्ष के मूल भाग में विचित्र पीठों से संयुक्त और वन्दना करने मात्र से ही दुरन्त संसार के भय को नष्ट करने वाली ऐसी रत्नमय चार—चार सिद्धों की प्रतिमाएँ होती हैं।। ८३४-८३५।। एक-एक सिद्धार्थवृक्ष के आश्रित, तीन कोटों से वेष्टित पीठत्रय के ऊपर चार-चार मानस्तम्भ होते हैं।।८३६।। कल्पभूमियों में स्थित सिद्धार्थ कल्पवृक्ष, क्रीडनशालाएँ और प्रासाद बारह से गुणित अपने-अपने जिनेन्द्र की ऊँचाई के समान ऊँचाई वाले होते हैं।। ८३७।।
पांडुकवन में जिनमंदिर में चैत्यवृक्ष
पीठ के चारों ओर उत्तम गोपुरों से युक्त बारह वेदियां भूमितल पर और इतनी ही पीठ के ऊपर हैं।।१९०३।। पीठ के उपरिम भाग पर सोलह कोस प्रमाण ऊंचा दिव्य व उत्तम तेज को धारण करने वाला सिद्धार्थ नामक चैत्यवृक्ष है ।। १९०४ ।। को. १६ । चैत्यवृक्ष के स्कन्ध की ऊँचाई चार कोस, बाहल्य एक कोस और शाखाओं की लम्बाई व अन्तराल बारह कोस प्रमाण है।।१९०५।। को. ४ । १। १२। १२। पीठ के ऊपर इसी प्रमाण को धारण करने वाले एक लाख चालीस हजार एक सौ बीस इसके परिवार वृक्ष हैं।।१९०६।। १,४०,१२०। ये वृक्ष विविध प्रकार के उत्तम रत्नों से निर्मित शाखाओं, मरकतमणिमय पत्तों, पद्मरागमणिमय फलों और सुवर्ण एवं चाँदी से निर्मित पुष्पों से सदैव संयुक्त रहते हैं।।१९०७ ।। ये सब उत्तम दिव्य चैत्यवृक्ष अनादिनिधन और पृथ्वीरूप होते हुए जीवों की उत्पत्ति और विनाश के स्वयं कारण होते हैं।।१९०८।। इन वृक्षों में प्रत्येक वृक्ष के चारों ओर विविध प्रकार के रत्नों से रचित चार-चार जिन और सिद्धों की प्रतिमायें विराजमान हैं। ये प्रतिमायें जयवन्त होवें।।१९०९।। चैत्यवृक्षों के आगे सुवर्णमय दिव्य पीठ है। इसकी ऊँचाई, लम्बाई और विस्तारादिक का उपदेश नष्ट हो गया है।।१९१०।।
अकृत्रिम जिनमन्दिर के परकोटे में चैत्यवृक्ष-सिद्धार्थ वृक्ष एवं ध्वजाएँ
(जम्बूद्वीप पण्णत्ति से)
(स्तूप व चैत्यवृक्षों में जिनप्रतिमायें हैं)
उन सभागृहों के आगे जिनेन्द्रप्रतिमाओं से युक्त नाना मणि एवं रत्नों के परिणामरूप रमणीय स्तूप होते हैं।।४१।। स्तूप का रत्नमय विशाल पीठ चौबीस सुवर्णमय वेदियों से संयुक्त तथा चालीस योजन ऊँचा होता है।।४२।। पीठ के ऊपर तीन मेखलाओं से वेष्टित महास्तूप होता है। इसका आयाम, विष्कम्भ और उत्सेध चौंसठ योजन प्रमाण होता है।।४३।।स्तूप से आगे पूर्व दिशा में जाकर एक हजार योजन प्रमाण विष्कम्भ व आयाम से सहित सुवर्णमय पीठ जानना चाहिये।।४४।। यह दिव्य पीठ बारह वेदियों से परिपूर्ण, उत्तम तोरणों से मण्डित, अतिशय रमणीय, देदीप्यमान मणिगणों के समूहों से युक्त और बहुत से तरुगणों से व्याप्त होता है।।४५।। उस पीठ के ऊपर स्थित सोलह ऊँचे नाना मणियों एवं रत्नों के परिणामरूप चैत्यवृक्ष जानना चाहिये।।४६।। सिद्धार्थ वृक्षों की संख्या एक लाख चालीस हजार एक सौ बीस है।।४७।।पृथिवी से चार योजन ऊपर जाकर चारों ही दिशा विभागों में उनकी शाखायें निर्दिष्ट की गई हैं।।४८।। सर्वदर्शियों द्वारा सिद्धार्थ नामक वृक्षों की (शाखाएँ) बारह योजन दीर्घ और एक योजन विष्कम्भ से युक्त निर्दिष्ट की गई हैं।।४९।। आठ योजन रुंद वाले उन महाद्रुमों पर अकृत्रिम और शाश्वतिक स्वभाव वाली जिनेन्द्रों की प्रतिमाएँ निर्दिष्ट की गई हैं।।५०।। पल्यंकासन से विराजमान और प्रातिहार्यों से संयुक्त वे रत्नमय जिनप्रतिमायें सब वृक्षों के चारों ही भागों में होती हैं।।५१।।उस वृक्षसमूह से पुनः पूर्व दिशाभाग में जाकर बारह वेदियों से संयुक्त ध्वजासमूहों का पीठ होता है ।।५२।। उस उत्तम पीठ के शिखर पर सोलह योजन ऊँचे और एक कोश विस्तार वाले वैडूर्यमणिमय विशाल खम्भ होते हैं।।५३।।खम्भा पर विविध वर्णों से संयुक्त, शिखर पर उत्तम तीन छत्रों से सुशोभित और अनुपम रूप से सम्पन्न दिव्य महाध्वजायें होती हैं।।५४।। ध्वजासमूहों के आगे सौ योजन दीर्घ, पचास योजन विस्तृत, दश योजन गहरी, सुवर्ण एवं मणिमय वेदिकाओं से युक्त, मणिमय तोरण समूह से संयुक्त, कमल व उत्पल कुसुमों से व्याप्त और जल से परिपूर्ण वापियां होती हैं ।। ५५-५६ ।। इस प्रकार मन्दर पर्वत की पूर्व दिशा में स्थित जिनभवन का स्वरूप निर्दिष्ट किया है । शेष दिशाओं के जिनभवनों का भी यही क्रम होना चाहिये।। ५७।। उस द्रह के आगे पूर्व, उत्तर और दक्षिण भागों में देवों के क्रीडाप्रासाद हैं ।। ५८।। ये सुवर्णमय प्रासाद पचास योजन उंâचे और पच्चीस योजन प्रमाण विष्कम्भ व आयाम से सहित निर्दिष्ट किये गये हैं।।५९।। उक्त प्रासाद सुवर्ण, वैडूर्यमणि, मरकतमणि, चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त, कर्वेâतन एवं पुखराज मणियों से निर्मित, उत्तम वेदिकाओं से युक्त, सुवर्ण, मणि एवं रत्नों के समूह से व्याप्त, अक्षयी व अनादिनिधन हैं। उनका सम्पूर्ण वर्णन करने के लिये कौन समर्थ है ?।।६०-६१।। उनसे आगे फिर भी पूर्व दिशा में जाकर मणि, सुवर्ण, रत्नों से व्याप्त विचित्र उत्तम तोरण जानना चाहिये।।६२।। यह तोरण पचास योजन ऊंचा, इससे आधे (२५ यो.) विस्तार से सहित, भासुर, दिव्य, मुक्तामाला से संयुक्त और उत्तम घंटा समूह से रमणीय है।।६३।। इसके आगे गोपुरों से पाश्र्व भागों में सौ योजन ऊंचे दो-दो विचित्र प्रासाद जानना चाहिये।।६४।। इसके आगे विविध वर्ण व जाति के एक हजार अस्सी ( १८० ² १० ) संख्या प्रमाण विचित्र ध्वजाओं के समूह निर्दिष्ट किये गये हैं।।६५।। सौ तोरणों से संयुक्त व उत्तम वेदी से वेष्टित वे ऊंची रमणीय महाध्वजायें समुद्र की तरंगों के भंग के समान शोभायमान होती हैं।।६६।। इसके आगे विविध पादपों से व्याप्त, वनवेदिकाओं से युक्त, नाना मणियों व रत्नों के परिणामरूप, रत्नमय पीठ से सुशोभित, मणिमय तोरणों से मण्डित, मनोहर, सुवर्णमय वुसुमों से शोभित, मरकत मणिमय उत्तम पत्तों से व्याप्त, चंपक व अशोक वृक्षों से गहनः, सप्तच्छद व आम्र कल्पवृक्षों से परिपूर्ण, वैडूर्यमय फलों से समृद्ध और मूंगामय शाखाओं की शोभा से संयुक्त वनखण्ड जानना चाहिये।।६७-६९।। उन कल्पवृक्षों के मूल भागों में चारों ही दिशाओं में प्रातिहार्य सहित जिनेन्द्रों की प्रतिमायें विराजमान हैं।।७०।। ये प्रतिमायें सिंहासन, तीन छत्र, भामण्डल और चामरादि से संयुक्त, पल्यंकासन से स्थित और अनुपम रूप व संस्थान से युक्त हैं।।७१।।
सिद्धार्थ वृक्षों में जिनप्रतिमायें
(आदिपुराण से)
फूल और पल्लवों से देदीप्यमान और अतिशय मनोहर कल्पवृक्षों के बड़े-बड़े वनों में लक्ष्मीधारी इन्द्रों के द्वारा वन्दनीय तथा जिनके मूलभाग में सिद्ध भगवान् की देदीप्यमान प्रतिमाएँ विराजमान हैं ऐसे जो सिद्धार्थ वृक्ष हैं, मैं प्रसन्नचित होकर उन सभी की स्तुति करता हँ, उन सभी को नमस्कार करता हूँ और उन सभी का स्मरण करता हूँ, इसके सिवाय जिनका समस्त शरीर रत्नों का बना हुआ है और जो जिनेन्द्र भगवान् की प्रतिमाओं से सहित हैं ऐसे स्तूपों की पंक्ति का भी मैं प्रसन्नचित होकर स्तवन, नमन तथा स्मरण करता हूँ।।१९०।।
समवसरण में उपवनभूमि में चैत्यवृक्षों में जिनप्रतिमायें
उन चारों वनों में से पहला अशोक वन जो कि प्राणियों के शोक को नष्ट करने वाला था, लाल रंग के फूल और नवीन पत्तों से ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो अपने अनुराग (प्रेम) का ही वमन कर रहा हो।।१८०।। प्रत्येक गाँठ पर सात-सात पत्तों को धारण करने वाले सप्तच्छद वृक्षों का दूसरा वन भी सुशोभित हो रहा था जो कि ऐसा जान पड़ता था मानो वृक्षों के प्रत्येक पर्व पर भगवान् के सज्जातित्व, सद्गृहस्थत्व, पारिव्राज्य आदि सात परम स्थानों को ही दिखा रहा हो।।१८१।। फूलों के भार से सुशोभित तीसरा चम्पक वृक्षों का वन भी सुशोभित हो रहा था और वह ऐसा जान पड़ता था मानो भगवान की सेवा करने के लिए दीपांग जाति के कल्पवृक्षों का वन ही आया हो।।१८२।। तथा कोयलों के मधुर शब्दों से मनोहर चौथा आम के वृक्षों का वन भी ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो पवित्र उपदेश देने वाले भगवान् की भक्ति से स्तुति ही कर रहा हो।।१८३।। अशोक वन के मध्य भाग में एक बड़ा भारी अशोक का वृक्ष था जो कि सुवर्ण की बनी हुई तीन कटनीदार ऊँची पीठिका पर स्थित था।।१८४।। वह वृक्ष, जिनमें चार-चार गोपुर द्वार बने हुए हैं ऐसे तीन कोटों से घिरा हुआ था तथा उसके समीप में ही छत्र, चमर, भृङ्गार और कलश आदि मंगलद्रव्य रखे हुए थे। १८५।। जिस प्रकार जम्बूद्वीप की मध्य भूमि में जम्बूवृक्ष सुशोभित होता है उसी प्रकार उस अशोक वन की मध्य भूमि में वह अशोक नामक चैत्यवृक्ष सुशोभित हो रहा था।।१८६।। जिसने अपनी शाखाओं के अग्रभाग से समस्त दिशाओं को व्याप्त कर रखा है ऐसा वह अशोक वृक्ष ऐसा शोभायमान हो रहा था मानो समस्त संसार को अशोकमय अर्थात् शोकरहित करने के लिए ही उद्यत हुआ हो।।१८७।। समस्त दिशाओं को सुगन्धित करने वाले फूलों से जिसने आकाश को व्याप्त कर लिया है ऐसा वह चैत्यवृक्ष ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो सिद्ध-विद्याधरों के मार्ग को ही रोक रहा हो।।१८८।। वह वृक्ष नीलमणियों के बने हुए अनेक प्रकार के पत्तों से व्याप्त हो रहा था और पद्मराग मणियों के बने हुए फूलों के गुच्छों से घिरा हुआ था।।१८९।। सुवर्ण की बनी हुई उसकी बहुत उँची-ऊँची शाखाएँ थीं, उसका देदीप्यमान भाग वङ्का का बना हुआ था तथा उस पर बैठे हुए भ्रमरों के समूह जो मनोहर झंकार कर रहे थे उनसे वह ऐसा जान पड़ता था मानो कामदेव की तर्जना ही कर रहा हो।।१९०।। वह चैत्यवृक्ष सुर, असुर और नरेन्द्र आदि के मनरूपी हाथियों के बाँधने के लिए खंभे के समान था तथा उसने अपने प्रभामण्डल से समस्त दिशाओं को प्रकाशित कर रखा था।।१९१।। उस पर जो शब्द करते हुए घंटे लटक रहे थे उनसे उसने समस्त दिशाएँ बहरी कर दी थीं और उनसे वह ऐसा जान पड़ता था कि भगवान् ने अधोलोक, मध्यलोक और स्वर्गलोक में जो विजय प्राप्त की है सन्तोष से मानो वह उसकी घोषणा ही कर रहा हो।।१९२।। वह वृक्ष ऊपर लगी हुई ध्वजाओं के वस्त्रों से पोंछ-पोंछकर आकाश को मेघरहित कर रहा था और उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो संसारी जीवों की देह में लगे हुए पापों को ही पोंछ रहा हो।।१९३।। वह वृक्ष मोतियों की झालर से सुशोभित तीन छत्रों को अपने सिर पर धारण कर रहा था और उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो भगवान् के तीनों लोकों के ऐश्वर्य को बिना वचनों के ही दिखला रहा हो।।१९४।। उस चैत्यवृक्ष के मूलभाग में चारों दिशाओं में जिनेन्द्रदेव की चार प्रतिमाएँ थीं जिनका इन्द्र स्वयं अभिषेक करते थे।।१९५।। देव लोग वहाँ पर विराजमान उन जिनप्रतिमाओं की गन्ध, पुष्पों की माला,धूप, दीप, फल और अक्षत आदि से निरन्तर पूजा किया करते थे।।१९६।। क्षीरसागर वे जल से जिनके अंगों का प्रक्षालन हुआ है और जो अतिशय निर्मल हैं ऐसी सुवर्णमयी अरहंत की उन प्रतिमाओं को नमस्कार कर मनुष्य, सुर और असुर सभी उनकी पूजा करते थे।।१९७।। कितने ही उत्तम देव अर्थ से भरी हुई स्तुतियों से उन प्रतिमाओं की स्तुति करते थे, कितने ह ी उन्हें नमस्कार करते थे और कितने ही उनके गुणों का स्मरण कर तथा चिन्तवन कर गान करते थे।।१९८।। जिस प्रकार अशोक वन में अशोक नाम का चैत्यवृक्ष है उसी प्रकार अन्य तीन वनों में भी अपनी-अपनी जाति का एक-एक चैत्यवृक्ष था और उन सभी के मूलभाग जिनेन्द्र भगवान् की प्रतिमाओं से देदीप्यमान थे।।१९९।। इस प्रकार ऊपर कहे हुए चारों वनों में क्रम से अशोक, सप्तपर्ण, चम्पक और आम्र नाम के चार बहुत ही ऊँचे चैत्यवृक्ष थे।।२००।। मूलभाग में जिनेन्द्र भगवान् की प्रतिमा विराजमान होने से जो ‘चैत्यवृक्ष’ इस सार्थक नाम को धारण कर रहे हैं और इन्द्र जिनकी पूजा किया करते हैं ऐसे वे चैत्यवृक्ष बहुत ही अधिक सुशोभित हो रहे थे।।२०१।। पार्थिव अर्थात् पृथ्वी से उत्पन्न हुए वे वृक्ष सचमुच ही पार्थिव अर्थात् पृथ्वी के स्वामी—राजा के समान जान पड़ते थे क्योंकि जिस प्रकार राजा अनेक फलों से अलंकृत होते हैं उसी प्रकार वे वृक्ष भी अनेक फलों से अलंकृत थे, राजा जिस प्रकार तेजस्वी होते हैं उसी प्रकार वे वृक्ष भी तेजस्वी (देदीप्यमान) थे, राजा जिस प्रकार अपने पाद अर्थात् पैरों से समस्त पृथ्वी को आक्रान्त किया करते हैं (समस्त पृथ्वी में अपना यातायात रखते हैं) उसी प्रकार वे वृक्ष भी अपने पाद अर्थात् जड़ भाग से समस्त पृथ्वी को आक्रान्त कर रहे थे (समस्त पृथ्वी में उनकी जड़ें फैली हुई थीं) और राजा जिस प्रकार पत्र अर्थात् सवारियों से भरपूर रहते हैं उसी प्रकार वे वृक्ष भी पत्र अर्थात् पत्तों से भरपूर थे।।२०२।। वे वृक्ष अपने पल्लव अर्थात् लाल-लाल नयी कोंपलों से ऐसे जान पड़ते थे मानो अन्तरंग का अनुराग (प्रेम) ही प्रकट कर रहे हों और पूâलों के समूह से ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो हृदय की प्रसन्नता ही दिखला रहे हों। इस प्रकार वे वृक्ष भगवान् की सेवा कर रहे थे।।२०३।। जबकि उन वृक्षों का ही ऐसा बड़ा भारी माहात्म्य था तब उपमारहित भगवान् वृषभदेव के केवलज्ञानरूपी विभव के विषय में कहना ही क्या है—वह तो सर्वथा अनुपम ही था।।२०४।।