श्रुत्वेति तद्वचो दीनं करुणाप्रेरिताशयः।
मनः प्रणिदधावेवं भगवानादिपूरुषः१।।१४२।।
पूर्वापरविदेहेषु या स्थितिः समवस्थिता।
साद्य प्रवत्र्तनीयात्र ततो जीवन्त्यमूः प्रजाः।।१४३।।
षट्कर्माणि यथा तत्र यथा वर्णाश्रमस्थितिः।
यथा ग्रामगृहादीनां संस्त्यायाश्च पृथग्विधाः।।।१४४।।
तथात्राप्युचिता वृत्तिरुपायैरेभिरङ्गिनाम्।
नोपायान्तरमस्त्येषां प्राणिनां जीविकां प्रति।।१४५।।
कर्मभूरद्य जातेयं व्यतीतौ कल्पभूरुहाम्।
ततोऽत्र कर्मभिः षड्भिः प्रजानां जीविकोचिता।।१४६।।
इत्याकलय्य तत्क्षेमवृत्त्युपायं क्षणं विभुः।
मुहुराश्वासयामास भा भैष्टेति तदा प्रजाः।।१४७।।
अथानुध्यानमात्रेण विभो शक्रः सहामरैः।
प्राप्तस्तज्जीवनोपायानित्यकार्षी द्विभागतः।।१४८।।
शुभे दिने सुनक्षत्रे सुमुहूत्र्ते शुभोदये।
स्वोच्चस्थेषु ग्रहेषूच्चैरानुवूल्ये जगद्गुरोः।।१४९।।
कृतप्रथमाङ्गल्ये सुरेन्द्रो जिनमन्दिरम्।
न्यवेशयत् पुरस्यास्य मध्ये दिक्ष्वप्यनुक्रमात्।।१५०।।
कोसलादीन् महादेशान् साकेतादिपुराणि च।
सारामसीमनिगमान् खेटादींश्च न्यवेशयत्।।१५१।।
राज्ञाप्याज्ञापिता यूयं वैलासे भरतेशिना।
गृहाः कृता महारत्नैश्चतुर्विंशतिरर्हताम्१।।१०७।।
तेषां गङ्गां प्रकुर्वीध्वं परिखां परितो गिरिम्।
इति तेऽपि तथा कुर्वन् दण्डरत्नेन सत्वरम्।।१०८।।
कारयन्ती जिनेन्द्रार्चाश्चित्रा मणिमयीर्बहूः।
तासां हिरण्मयान्येव विश्वोपकरणान्यपि१।।१७३।।
तत्प्रतिष्ठाभिषेकान्ते महापूजाः प्रकुर्वती।
मुहुः स्तुतिभिरथ्र्याभिः स्तुवती भक्तितोऽर्हतः।।१७४।।
ददती पात्रदानानि मानयन्ती महामुनीन्।
शृण्वती धर्ममाकण्र्य भावयन्ती मुहुर्मुहुः।।१७५।।
आप्तागमपदार्थांश्च प्राप्तसम्यक्त्वशुद्धिका।
अथ फाल्गुननन्दीश्वरेऽसौ भक्त्या जिनेशिनाम्।।१७६।।
विधायाष्ठाह्निकीं पूजामभ्यच्र्यार्चा यथाविधि।
कृतोपवासा तन्वङ्गी शेषां दातुमुपागता।।१७७।।
नृपं सिंहासनासीनं सोऽप्युत्थाय कृताञ्जलिः।
तद्दत्तशेषामादाय निधाय शिरसि स्वयम्।।१७८।।
उपवासपरिश्रान्ता पुत्रिके त्वं प्रयाहि ते।
शरणं पारणाकाल इति कन्यां व्यसर्जयत्।।१७९।।
अथासावन्यदापृच्छत् सुमालिनमुदद्भुतः।
उच्चैर्गगनमारूढो विनयानतविग्रहः२।।२७२।।
सरसीरहितेऽमुष्मिन् पूज्यपर्वतमूद्र्धनि।
वनानि पश्य पद्मानां जातान्येतन्महाद्भुतम्।।२७३।।
तिष्ठन्ति निश्चलाः स्वामिन् कथमत्र महीतले।
पतिता विविधच्छायाः सुमहान्तः पयोमुचः।।२७४।।
नमः सिद्धेभ्य इत्युक्त्वा सुभालो तमथागमत्।
नामूनि शतपत्राणि न चैते वत्स तोयदाः।।२७५।।
सितकेतुकृतच्छायाः सहस्राकारतोरणाः।
शृङ्गेषु पर्वतस्यामी विराजन्ते जिनालयाः।।२७६।।
कारिता हरिषेणेन सज्जनेन महात्मना।
एतान् वत्स नमस्य त्वं भव पूतमनाः क्षणात्।।२७७।।
ततस्तत्रस्थ एवासौ नमस्कृत्य जिनालयान्।
उपाच विस्मयापन्नो धनदस्य विमर्दकः।।२७८।।
आसीत्विं तस्य माहात्म्यं हरिषेणस्य कथ्यताम्।
प्रतीक्ष्यतम येनासौ भवद्भिरिति कीर्तितः।।२७९।।
सुमाली न्यगदच्चैवं साधु पृष्टं दशानन।
चरितं हरिषेणस्य शृणु पापविदारणम्।।२८०।।
काम्पिल्यनगरे राजा नाम्ना मृगपतिध्वजः।
बभूव यशसा व्याप्तसमस्तभुवनो महान्।।२८१।।
महिषी तस्य वप्राह्वा प्रमदागुणशालिनी।
अभूत् सौभाग्यतः प्राप्ता पत्नीशतललामताम्।।२८२।।
हरिषेणः समुत्पन्नः स ताभ्यां परमोदयः।
चतुःषष्ट्या शुभैर्युक्तो लक्षणैः क्षतदुष्कृतः।।२८३।।
वप्रया चान्यदा जैने मते भ्रमयितुं रथे।
आष्टाह्निकमहानन्दे नगरे धर्मशीलया।।२८४।।
महालक्ष्मीरिति ख्याता सौभाग्यमदविह्वला।
अवृत्तमवदत्तस्याः सपत्नी दुर्विचेष्टिता।।२८५।।
पूर्व ब्रह्मरथो यातु मदीयः पुरवत्र्मनि।
भ्रमिष्यति ततः पश्चाद्वप्रया कारितो रथः।।२८६।।
इति श्रुत्वा ततो वप्रा कुलिशेनेव ताडिता।
हृदये दुःखसंतप्ता प्रतिज्ञामकरोदिमाम्।।२८७।।
भ्रमिष्यति रथोऽयं मे प्रथमं नगरे यदि।
पूर्ववत्पुनराहारं करिष्येऽतोऽन्यथा तु न।।२८८।।
इत्युक्त्वा च बबन्धासौ प्रतिज्ञालक्ष्मवेणिकाम्।
व्यापाररहितावस्थाशोकम्लानास्यपज्र्जा।।२८९।।
ततः काम्पिल्यमागत्य युक्तश्चक्रधरश्रिया।
द्वात्रिंशता नरेन्द्राणां सहस्राणां समन्वितः।।३९४।।
शिरसा मुकुटन्यस्तमणिप्रकरभासिना।
ननाम चरणौ मार्तुिवनीतो रचिताञ्जलिः।।३९५।।
ततस्तं तद्विधं दृष्ट्वा पुत्रं वप्रा दशानन।
संभूता न स्वगात्रेषु तोषाश्रुव्याप्तलोचना।।३९६।।
ततो भ्रामयता तेन सूर्यवर्णान् महारथान्।
काम्पिल्यनगरे मातुः कृतं सफलमीप्सितम्।।३९७।।
श्रमणश्रावकाणां च जातः परमसंमदः।
बहवश्च परिप्राप्ताः शासनं जिनदेशितम्।।३९८।।
तेनामी कारिता भान्ति नानावर्णजिनालयाः।
भूपर्वतनदीसङ्गपुरग्रामादिधून्नताः।।३९९।।
कृत्वा चिरमसौ राज्यं प्रव्रज्य सुमहामनाः।
तपः कृत्वा परं प्राप्तस्त्रिलोकशिखरं विभुः।।४००।।
तत्र वंशगिरौ राजन् रामेण जगदिन्दुना।
निर्मापितानि चैत्यानि जिनेशानां सहस्रशः१।।२७।।
महावष्टम्भसुस्तम्भा युक्तविस्तारतुङ्गताः।
गवाक्षहम्र्यवलभीप्रभृत्याकारशोभिताः।।२८।।
सतोरणमहाद्वाराः सशालाः परिखान्विताः।
सितचारुपताकाढ्या बृहद्घण्टारवाचिताः।।२९।।
मृदङ्गवंशमुरजसंगीतोत्तमनिस्वनाः।
झर्झरैरानवै शङ्खभेरीभिश्च महारवाः।।३०।।
सततारब्धनिःशेषरम्यवस्तुमहोत्सवाः।
विरेजुस्तत्र रामीया जिनप्रासादपङ्क्तयः।।३१।।
रेजिरे प्रतिमास्तत्र सर्वलोकनमस्कृताः।
पञ्चवर्णा जिनेन्द्राणां सर्वलक्षणभूषिताः।।३२।।
उपजातिवृत्तम् एषऽपि तुङ्गः परमो महीध्रः श्रीमन्नितम्बो बहुधानुसानुः।
विलम्पतीभिः कुकुभां समूहं भासाचकाज्जैनगृहावलीभिः।।४४।।
रामेण यस्मात्परमाणि तस्मिन् जैनानि वेश्मानि विधापितानि।
निर्नष्टवंशाद्रिवचाः स तस्माद्रविप्रभो रामगिरिः प्रसिद्धः।।४५।।
इस प्रकार प्रजाजनों के दीन वचन सुनकर जिनका हृदय दया से प्रेरित हो रहा है ऐसे भगवान आदिनाथ अपने मन में ऐसा विचार करने लगे।।१४२।।
कि पूर्व और पश्चिम विदेह क्षेत्र में जो स्थिति वर्तमान में है वही स्थिति आज यहाँ प्रवृत्त करने योग्य है उसी से यह प्रजा जीवित रह सकती है।१४३।।
वहाँ जिस प्रकार असि, मषी आदि छह कर्म हैं, जैसी क्षत्रिय आदि वर्णों की स्थिति है और जैसी ग्राम-घर आदि की पृथक़-पृथक़ रचना है उसी प्रकार यहाँ पर भी होनी चाहिए। इन्हीं उपायों से प्राणियों की आजीविका चल सकती है। इनकी आजीविका के लिए और कोई उपाय नहीं है।।१४४-१४५।।
कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने पर अब यह कर्मभूमि प्रकट हुई है इसलिए यहाँ प्रजा को असि, मषी आदि छह कर्मों के द्वारा ही आजीविका करना उचित है।।१४६।।
इस प्रकार स्वामी वृषभदेव ने क्षण भर प्रजा के कल्याण करने वाली आजीविका का उपाय सोचकर उसे बार-बार आश्वासन दिया कि तुम भयभीत मत होओ।।१४७।।
अथानन्तर भगवान् के स्मरण करने मात्र से देवों के साथ इन्द्र आया और उसने नीचे लिखे अनुसार विभाग कर प्रजा की जीविका के उपाय किये।।।१४८।।
शुभ दिन, शुभ नक्षत्र, शुभ मुहूर्त और शुभ लग्न के समय तथा सूर्य आदि ग्रहों के अपने-अपने उच्च स्थानों में स्थित रहने और जगद्गुरु भगवान् के हर एक प्रकार की अनुकूलता होने पर इन्द्र ने प्रथम ही मांगलिक कार्य किया और फिर उसी अयोध्यापुरी के बीच में जिनमन्दिर की रचना की। इसके बाद पूर्व, दक्षिण, पश्चिम तथा उत्तर इस प्रकार चारों दिशाओं में भी यथाक्रम से जिनमन्दिरों की रचना की।।१४९-१५०।।
तदनन्तर कौशल आदि महादेश, अयोध्या आदि नगर, वन और सीमा सहित गाँव तथा खेटों की रचना की थी।।१५१।।
आत्मशुद्धि से भरे सगर चक्रवर्ती के पुत्रों ने कहा कि यदि आप हम लोगों को कोई कार्य नहीं देते हैं तो हम भोजन भी नहीं करते हैं।।१०५।।
पुत्रों का निवेदन सुनकर राजा कुछ चिन्ता में पड़ गये। वे सोचने लगे कि इन्हें कौन सा कार्य दिया जावे। अकस्मात् उन्हें याद आ गई कि अभी धर्म का एक कार्य बाकी है। उन्होंने हर्षित होकर आज्ञा दी कि भरत चक्रवर्ती ने कैलाश पर्वत पर महारत्नों से अरहन्तदेव के चौबीस मन्दिर बनवाये हैं, तुम लोग उस पर्वत के चारों ओर गङ्गा नदी को उन मन्दिरों की परिखा बना दो।’ उन राजपुत्रों ने भी पिता की आज्ञानुसार दण्डरत्न से वह काम शीघ्र ही कर दिया।।१०६-१०८।।
अथानन्तर एक बार दशानन नित्यालोक नगर में राजा नित्यालोक की श्रीदेवी से समुत्पन्न रत्नावली नाम की पुत्री को विवाह कर बड़े हर्ष के साथ आकाशमार्ग से अपनी नगरी की ओर आ रहा था। उस समय उसके मुकुट में जो रत्न लगे थे उनकी किरणों से आकाश सुशोभित हो रहा था।।१०२-१०३।।
जिस प्रकार बड़ा भारी वायुमण्डल मेरु के तट को पाकर सहसा रुक जाता है उसी प्रकार मन के समान चंचल पुष्पक विमान सहसा रुक गया।।१०४।।
जब पुष्पक विमान की गति रुक गयी और घण्टा आदि से उत्पन्न होने वाला शब्द भंग हो गया तब ऐसा जान पड़ता था मानो तेजहीन होने से लज्जा के कारण उसने मौन ही ले रखा था।।१०५।।
विमान को रुका देख दशानन ने क्रोध से दमकते हुए कहा कि अरे यहाँ कौन है ? कौन है ?।।१०६।।
तब सर्व वृत्तान्त को जानने वाले मारीचि ने कहा कि हे देव! सुनो, यहाँ वैलास पर्वत पर एक मुनिराज प्रतिमा योग से विराजमान हैं।।१०७।।
ये सूर्य के सम्मुख विद्यमान हैं और अपनी किरणों से सूर्य की किरणों को इधर-उधर प्रक्षिप्त कर रहे हैं। समान शिलातल पर ये रत्नों के स्तम्भ के समान अवस्थित हैं।।१०८।।
घोर तपश्चरण को धारण करने वाले ये कोई महान् वीर पुरुष हैं और शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त करना चाहते हैं। इन्हीं से वह वृत्तान्त हुआ है।।१०९।।
इन मुनिराज के प्रभाव से जब तक विमान खण्ड-खण्ड नहीं हो जाता है, तब तक शीघ्र की इस स्थान से विमान को लौटा लेता हूँ।।११०।।
अथानन्तर मारीच के वचन सुनकर अपने पराक्रम के गर्व से गर्वित दशानन ने कैलास पर्वत की ओर देखा।।१११।।
दशानन ने उस पर्वत पर उतरकर उन महामुनि के दर्शन किये। वे महामुनि ध्यानरूपी समुद्र में निमग्न थे और तेज के द्वारा चारों ओर मण्डल बाँध रहे थे।।१२६।।
दिग्गजों के शुण्डादण्ड के समान उनकी दोनों भुजाएँ नीचे की ओर लटक रही थीं और उनसे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो सर्पों से आवेष्टित चन्दन का बड़ा वृक्ष ही हो।।१२७।।
वे आतापन योग में शिलापीठ के ऊपर निश्चल बैठे थे और प्राणियों के प्रति ऐसा संशय उत्पन्न कर रहे थे कि ये जीवित हैं भी या नहीं।।१२८।।
तदनन्तर ‘यह बालि है’ ऐसा जानकर दशानन पिछले वैर का स्मरण करता हुआ क्रोधाग्नि से प्रज्वलित हो उठा।।१२९।। जो ओंठ चबा रहा था, जिसकी आवाज अत्यन्त कर्वश थी और जो अत्यन्त देदीप्यमान आकार का धारक था ऐसा दशानन भ्रकुटी बाँधकर बड़ी निर्भयता के साथ मुनिराज से कहने लगा।।१३०।।
कि अहो! तुमने यह बड़ा अच्छा तप करना प्रारम्भ किया है कि अब भी अभिमान से मेरा विमान रोका जा रहा है।।१३१।।
धर्म कहाँ और क्रोध कहाँ ? अरे दुर्बुद्धि ! तू व्यर्थ ही श्रम कर रहा है और अमृत तथा विष को एक करना चाहता है।।१३२।।
इसलिए मैं तेरे इस उद्धत अहंकार को आज ही नष्ट किये देता हूँ। तू जिस कैलास पर्वत पर बैठा है उसे उखाड़कर तेरे ही साथ अभी समुद्र में फेंकता हूँ।।१३३।।
तदनन्तर उसने समस्त विद्याओं का ध्यान किया जिससे आकर उन्होंने उसे घेर लिया। अब दशानन ने इन्द्र के समान महाभयंकर रूप बनाया और महाबाहुरूपी वन से सब ओर सघन अन्धकार फैलाता हुआ वह पृथिवी को भेदकर पाताल में प्रविष्ट हुआ। पाप करने में वह उद्यत था ही।।१३४-१३५।।
तदनन्तर क्रोध के कारण जिसके नेत्र अत्यन्त लाल हो रहे थे और जिसका मुख क्रोध से मुखरित था ऐसे प्रबल पराक्रमी दशानन ने अपनी भुजाओं से वैलास को उठाना प्रारम्भ किया।।१३६।।
आखिर, पृथिवी को अत्यन्त चंचल करता हुआ वैâलास पर्वत स्वस्थान से चलित हो गया।।१३७।।
तदनन्तर जब समस्त संसार संवर्तक नामक वायु से ही मानो आकुलित हो गया था तब भगवान् बाली मुनिराज ने अवधिज्ञान से दशानन नामक राक्षस को जान लिया।।१४५।।
यद्यपि उन्हें स्वयं कुछ भी पीड़ा नहीं हुई थी और पहले की तरह उनका समस्त शरीर निश्चल रूप से अवस्थित था तथापि वे धीर, वीर और क्रोध से रहित हो अपने चित्त में इस प्रकार विचार करने लगे कि।।१४६।।
कारितं भरतेनेदं जिनायतनमुत्तमम्। सर्वरत्नमयं तुङ्गं बहुरूपविराजितम्।।१४७।।
प्रत्यहं भक्तिसंयुत्तै कृतपूजं सुरासरैः। भा विनाशि चलत्थस्मिन् पर्वते भिन्नपर्वणि।।१४८।।
ध्यात्वेति चरणाङ्गुष्टपीडितं गिरिमस्तकम्। चकार शोभनध्यानाददूरीकृतचेतनः।।१४९।।
चक्रवर्ती भरत ने ये नाना प्रकार के सर्वरत्नमयी उँचे-उँचे जिनमन्दिर बनवाये हैं। भक्ति से भरे सुर और असुर प्रतिदिन इनकी पूजा करते हैं सो इस पर्वत के विचलित हो जाने पर कहीं ये जिनमन्दिर नष्ट न हो जावें।।१४७।।
ऐसा विचारकर शुभ ध्यान के निकट ही जिनकी चेतना थी ऐसे मुनिराज बाली ने पर्वत के मस्तक को अपने पैर के अँगूठे से दबा दिया।।१४८-१४९।।
तदनन्तर जिसकी भुजाओं का वन (बल) बहुत भारी बोझ से आक्रान्त होने के कारण अत्यधिक टूट रहा था, जो दुख से आकुल था, जिसकी लाल-लाल मनोहर आँखें चंचल हो रही थीं ऐसा दशानन अत्यन्त व्याकुल हो गया। उसके सिर का मुकुट टूटकर नीचे गिर गया और उस नंगे सिर पर पर्वत का भार आ पड़ा। नीचे धँसती हुई पृथिवी पर उसने घुटने टेक दिये। स्थूल होने के कारण उसकी जंघाएँ मांसपेशियों में निमग्न हो गयीं।।१५०-१५१।।
उसके शरीर से शीघ्र ही पसीने की धारा बह निकली और उससे उसने रसातल को धो दिया। उसका सारा शरीर कछुए के समान संकुचित हो गया।।१५२।।
उस समय चूँकि उसने सर्व प्रयत्न से चिल्लाकर समस्त संसार को शब्दायमान कर दिया था इसलिए वह पीछे चलकर सर्वत्र प्रचलित ‘रावण’ इस नाम को प्राप्त हुआ।।१५३।।
रावण की स्त्रियों का समूह अपने स्वामी के उस अश्रुतपूर्ण दीन-हीन शब्द को सुनकर व्याकुल हो विलाप करने लगा।।१५४।।
मन्त्री लोग किकर्तव्यविमूढ़ हो गये। वे युद्ध के लिए तैयार हो व्यर्थ ही इधर-उधर फिरने लगे। उनके वचन बार-बार बीच में ही स्खलित हो जाते थे और हथियार उनके हाथ से छूट जाते थे।।१५५।।
मुनिराज के वीर्य के प्रभाव से देवों के दुन्दुभि बजने लगे और भ्रमर सहित फूलों की वृष्टि आकाश को आच्छादित कर पड़ने लगी।।१५६।।
क्रीडा करना जिनका स्वभाव था ऐसे देवकुमार आकाश में नृत्य करने लगे और देवियों की संगीत ध्वनि वंशी की मधुर ध्वनि के साथ सर्वत्र उठने लगी।।१५७।।
तदनन्तर मन्दोदरी ने दीन होकर मुनिराज को प्रणाम कर याचना की कि हे अद्भुत पराक्रम के धारी! मेरे लिए पतिभिक्षा दीजिए।१५८।।
तब महामुनि ने दयावश पैर का अँगूठा ढीला कर लिया और रावण भी पर्वत को जहां का तहां छोड़ क्लेशरूपी अटवी से बाहर निकला।।१५९।।
तदनन्तर जिसने तप का बल जान लिया था ऐसे रावण ने जाकर मुनिराज को प्रणाम कर बार-बार क्षमा माँगी और इस प्रकार स्तुति करना प्रारम्भ किया।।१६०।।
कि हे पूज्य! आपने जो प्रतिज्ञा की थी कि मैं जिनेन्द्रदेव के चरणों को छोड़कर अन्य के लिए नमस्कार नहीं करूँगा यह उसी की सामथ्र्य का फल है।।१६१।।
हे भगवन्! आपके तप का महाफल निश्चय से सम्पन्न है इसीलिए तो आप तीन लोक को अन्यथा करने में समर्थ हैं।।१६२।।
तप से समृद्ध मुनियों की थोड़े ही प्रयत्न से उत्पन्न जैसी सामथ्र्य देखी जाती है हे नाथ! वैसी सामथ्र्य इन्द्रों की भी नहीं देखी जाती है।।१६३।।
इस प्रकार स्तुति कर उसने मुनिराज को प्रणाम कर तीन प्रदक्षिणाएँ दीं, अपने आपकी बहुत निन्दा की और दुःखवश मुँह से सू-सू शब्द कर रुदन किया।।१७३।।
मुनिराज के समीप जो जिनमन्दिर था लज्जा से युक्त और विषयों से विरक्त रावण उसी के अन्दर चला गया।।१७४।।
वहाँ उसने चन्द्रहास नामक खड्ग को अनादर से पृथिवी पर फैक दिया और अपनी स्त्रियों से युक्त होकर जिनेन्द्रदेव की पूजा की।।१७५।।
उसके भाव भक्ति में इतने लीन हो गये थे कि उसने अपनी भुजा की नाड़ीरूपी तन्त्री को खींचकर वीणा बजायी और सैकड़ों स्तुतियों के द्वारा जिनराज का गुणगान किया।।१७६।।
ऋषभाय नभो नित्यभजिताय नमो नमः।
संभवाय नमोऽजस्रमभिनन्दनरूढये।।१८५।।
नमः सुमतये पद्मप्रभाय सततं नमः।
सुपाश्र्वाय नमः शश्वन्नमश्चन्द्रसमत्विषे।।१८६।।
नमोऽस्तु पुष्पदन्ताय शीतलाय नमो नमः।
श्रेयसे वासुपूज्याय नमो लब्धात्मतेजसे।।१८७।।
विमलाय नमस्त्रेधा नमोऽनन्ताय संततम्।
नमो धर्माय सौख्यानां नमो मूलाय शान्तये।।१८८।।
नमः कुन्थुजिनेन्द्राय नमोऽरस्वामिने सदा।
नमो मल्लिमहेशाय नमः सुव्रतदायिने।।१८९।।
अन्येभ्यश्च भविष्यद्भयो भूतेभ्यश्च सुभावतः।
नमोऽस्तु जिननाथेभ्यः श्रमणेभ्यश्च सर्वदा।।१९०।।
नमः सम्यक्त्वयुक्ताय ज्ञानायैकान्तनाशिने।
दर्शनाय नमोऽजस्रं सिद्धेभ्योऽनारतं नमः।।१९१।।
ऋषभ, अजित, सम्भव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपाश्र्व, चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त, शीतल, श्रेयोनाथ, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, सौख्यों के मूल कारण शान्तिनाथ, कुन्थु जिनेन्द्र, अरनाथ, मल्लि महाराज और मुनिसुव्रत भगवान् इन वर्तमान तीर्थंकरों को मन-वचन-काय से नमस्कार हो। इनके सिवाय जो अन्य भूत और भविष्यत्काल सम्बन्धी तीर्थंकर हैं उन्हें नमस्कार हो। साधुओं के लिए सदा नमस्कार हो। सम्यक्त्वसहित ज्ञान और एकान्तवाद को नष्ट करने वाले दर्शन के लिए निरन्तर नमस्कार हो तथा सिद्ध परमेश्वर के लिए सदा नमस्कार हो।।१८५-१९१।।
उस सुलोचना ने श्री जिनेन्द्रदेव की अनेक प्रकार की रत्नमयी बहुत सी प्रतिमाएँ बनवाई थीं और उनके सब उपकरण भी सुवर्ण ही के बनवाये थे। प्रतिष्ठा तथा तत्सम्बन्धी अभिषेक हो जाने के बाद वह उन प्रतिमाओं की महापूजा करती थी, अर्थपूर्ण स्तुतियों के द्वारा श्री अर्हंन्तदेव की भक्तिपूर्वक स्तुति करती थी, पात्र दान देती थी, महामुनियों का सम्मान करती थी, धर्म सुनती थी तथा धर्म को सुनकर आप्त, आगम और पदार्थों का बार-बार चिन्तवन करती हुई सम्यग्दर्शन की शुद्धता को प्राप्त करती थी। अथानन्तर-फाल्गुन महीने की अष्टान्हिका में उसने भक्तिपूर्वक श्री जिनेन्द्रदेव की अष्टाह्रिकी पूजा की, विधिपूर्वक प्रतिमाओं की पूजा की, उपवास किया और वह कृशांगी पूजा के शेषाक्षत देने के लिए िंसहासन पर बैठे हुए राजा अकम्पन के पास गयी। राजा ने भी उठकर और हाथ जोड़कर उसके दिए हुए शेषाक्षत लेकर स्वयं अपने मस्तक पर रखे तथा यह कहकर कन्या को विदा किया कि हे पुत्रि, तू उपवास से खिन्न हो रही है अब घर जा, यह तेरे पारणा का समय है।।१७३ से १७९।।
अथानन्तर एक दिन विनय से जिसका शरीर झुक रहा था, ऐसा दशानन आकाश में बहुत ऊँचे चढ़कर अपने दादा सुमाली से आश्चर्यचकित हो पूछता है कि हे पूज्य! इधर इस पर्वत के शिखर पर सरोवर तो नहीं है पर कमलों का वन लहलहा रहा है सो इस महाआश्चर्य को आप देखें।।२७२-२७३।।
यहाँ पृथ्वीतल पर पड़े रंग-बिरंगे बड़े-बड़े मेघ निश्चल होकर कैसे खड़े हैं ?।।२७४।।
तब सुमाली ने ‘नमः सिद्धेभ्यः’ कहकर दशानन से कहा कि हे वत्स! न तो ये कमल हैं और न मेघ ही हैं।।२७५।।
किन्तु सपेद पताकाएँ जिन पर छाया कर रही हैं तथा जिनमें हजारों प्रकार के तोरण बने हुए हैं ऐसे-ऐसे ये जिनमन्दिर पर्वत के शिखरों पर सुशोभित हो रहे हैं।।२७६।।
ये सब मन्दिर महापुरुष हरिषेण चक्रवर्ती के द्वारा बनवाये हुए हैं। हे वत्स! तू इन्हें नमस्कार कर और क्षण-भर में अपने हृदय को पवित्र कर।।२७७।।
तदनन्तर वैश्रवण का मानमर्दन करने वाले दशानन ने वहीं खड़े रहकर जिनालयों को नमस्कार किया और आश्चर्यचकित हो सुमाली से पूछा कि पूज्यवर! हरिषेण का ऐसा क्या माहात्म्य था कि जिससे आपने उनका इस तरह कथन किया है ?।।२७८-२७९।।
तब सुमाली ने कहा कि हे दशानन! तूने बहुत अच्छा प्रश्न किया। अब पाप को नष्ट करने वाला हरिषेण का चरित्र सुन।।२८०।।
काम्पिल्य नगर में अपने यश के द्वारा समस्त संसार को व्याप्त करने वाला सिंहध्वज नाम का एक बड़ा राजा रहता था।।२८१।।
उसकी वप्रा नाम की पटरानी थी जो स्त्रियों के योग्य गुणों से सुशोभित थी तथा अपने सौभाग्य के कारण सैकड़ों रानियों में आभूषणपना को प्राप्त थी।।२८२।।
उन दोनों से परम अभ्युदय को धारण करने वाला हरिषेण नाम का पुत्र हुआ। वह पुत्र उत्तमोत्तम चौंसठ लक्षणों से युक्त था तथा पापों को नष्ट करने वाला था।।२८३।।
किसी एक समय आष्टान्हिक महोत्सव आया सो धर्मशील वप्रा रानी ने नगर में जिनेन्द्र भगवान् का रथ निकलवाना चाहा।।२८४।।
राजा सिंहध्वज की महालक्ष्मी नामक दूसरी रानी थी जो कि सौभाग्य के गर्व से सदा विह्वल रहती थी। अनेक खोटी चेष्टाओं से भरी महालक्ष्मी वप्रा की सौत थी इसलिए उसने उसके विरुद्ध आवाज उठायी कि पहले मेरा ब्रह्मरथ नगर की गलियों में घूमेगा। उसके पीछे वप्रा रानी के द्वारा बनवाया हुआ जैनरथ घूम सकेगा।।२८५-२८६।।
यह सुनकर वप्रा को इतना दुःख हुआ कि मानो उसके हृदय में वङ्का की ही चोट लगी हो। दुःख से सन्तप्त होकर उसने प्रतिज्ञा की कि यदि मेरा यह रथ नगर में पहले घूमेगा तो मैं पूर्व की तरह पुनः आहार करूँगी अन्यथा नहीं।।२८७-२८८।।
तदनन्तर चक्रवर्ती की लक्ष्मी से युक्त होकर वह हरिषेण पुत्र काम्पिल्यनगर आया। बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा उसके साथ थे।।३९४।।
उसने मुकुट में लगे मणियों के समूह से सुशोभित शिर झुकाकर तथा हाथ जोड़कर बड़ी विनय से माता के चरणों में नमस्कार किया।।३९५।।
सुमाली दशानन से कहते हैं कि हे दशानन! उस समय उक्त प्रकार के हरिषेण पुत्र को देखकर वप्रा के हर्ष का पार नहीं रहा। वह अपने अंगों में नहीं समा सकी तथा हर्ष के आँसुओं से उसके दोनों नेत्र भर गये।।३९६।।
तदनन्तर उसने सूर्य के समान तेजस्वी बड़े-बड़े रथ काम्पिल्यनगर में घुमाये और इस तरह अपनी माता का मनोरथ सफल किया।।३९७।।
इस कार्य से मुनि और श्रावकों को परम हर्ष हुआ तथा बहुत से लोगों ने जिनधर्म धारण किया।।३९८।।
पृथिवी, पर्वत, नदियों के समागम स्थान, नगर तथा गाँव आदि में जो नाना रंग के ऊँचे-ऊँचे जिनालय शोभित हो रहे हैं वे सब उसी के बनवाये हैं।।३९९।।
उदार हृदय को धारण करने वाले हरिषेण ने चिरकाल तक राज्य कर दीक्षा ले ली और परम तपश्चरण कर तीन लोक का शिखर अर्थात् सिद्धालय प्राप्त कर लिया।।४००।।
गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन्! उस वंशगिरि पर जगत् के चन्द्रस्वरूप राम ने जिनेन्द्र भगवान् की हजारों प्रतिमाएँ बनवायीं थीं।।२७।।
तथा जिनमें महामजबूत खम्भे लगवाये थे, जिनकी चौड़ाई तथा उँचाई योग्य थी, जो झरोखे, महलों तथा छपरी आदि की रचना से शोभित थे, जिनके बड़े-बड़े द्वार तोरणों से युक्त थे, जिनमें अनेक शालाएँ निर्मित थीं, जो परिखा से सहित थे, सपेद और सुन्दर पताकाओं से युक्त थे, बड़े-बड़े घण्टाओं के शब्द से व्याप्त थे, जिनमें मृदंग, बाँसुरी और मुरज का संगीतमय उत्तम शब्द पैâल रहा था, जो झाँझों, नगाड़ों, शंखों और भेरियों के शब्द से अत्यन्त शब्दायमान थे और जिनमें सदा समस्त सुन्दर वस्तुओं के द्वारा महोत्सव होते रहते थे ऐसे राम के बनवाये जिनमन्दिरों की पंक्तियां उस पर्वत पर जहाँ-तहाँ सुशोभित हो रही थीं।।२८-३१।।
उन मन्दिरों में सब लोगों के द्वारा नमस्कृत तथा सब प्रकार के लक्षणों से युक्त पंचवर्ण की जिनप्रतिमाएँ सुशोभित थीं।।३२।।
इधर जिसकी मेखलाएँ शोभा से सम्पन्न थीं तथा जिसके शिखर अनेक धातुओं से युक्त थे ऐसा यह ऊँचा उत्तम पर्वत दिशाओं के समूह को लिप्त करने वाली जिनमन्दिरों की पंक्ति से अतिशय सुशोभित होता था।।४४।।
चूँकि उस पर्वत पर रामचन्द्र ने जिनेन्द्र भगवान् के उत्तमोत्तम मन्दिर बनवाये थे इसलिए उसका वंशाद्रि नाम नष्ट हो गया और सूर्य के समान प्रभा को धारण करने वाला वह पर्वत ‘रामगिरि’ के नाम से प्रसिद्ध हो गया।।४५।।