अथ व्यन्तरलोकाधिकारं निरूप्य तदनन्तरोद्देशभाजं ज्योतिर्लोकाधिकारं
निरूपयितुकामस्तदादौ ज्योतिर्बिबसंख्याप्रदर्शनगर्भं ज्योतिर्लोकचैत्यालयवन्दनालक्षणं मङ्गलमाह-
बेसदछप्पण्णंगुलकदिहिदपदरस्स संखभागमिदे। जोइसजिणिंदगेहे गणणातीदे णमंसामि१।।३०२।।
द्विशतषट्पञ्चाशदङ्गु लकृतिहृतप्रतरस्य संख्यातभागमितान्।
ज्योतिष्कजिनेन्द्रगेहान् गणनातीतान्नमस्यामि।।३०२।।
बेसद।
छायामात्रमेवार्थ:।।३०२।।
अथ तद्गेहस्थज्योतिष्कभेदमाह- चंदा पुण आइच्चा गह णक्खत्ता पइण्णतारा य।
पंचविहा जोइ्रगणा लोयंतघणोदहिं पुट्ठा।।३०३।।
चन्द्रा: पुन: आदित्या ग्रहा नक्षत्राणि प्रकीर्णकताराश्च।
पञ्चविधा ज्योतिर्गणा लोकान्तघनोदधिं स्पृष्टवन्त:।।३०३।।
चंदा ।
छायामात्रमेवार्थ:।।३०३।।
ज्योतिर्वासी देवों के जिनमंदिर चंदा दिवायरा गहणक्खत्ताणिं पइण्णताराओ।
पंचविहा जोदिगणा लोयंतघणोवहिं पुट्ठा१।।७।।
णवरि विसेसो पुव्वावरदक्खिणउत्तरेसु भागेसुं।
अंतरमत्थि त्ति ण ते छिवंति जोइग्ग सो वाऊ।।८।।
भजिदम्मि सेढिवग्गे बेसयछप्पण्णअंगुलकदीए।
जं लद्धं सो रासी जोदिसियसुराण सव्वाणं।।११।।
अट्ठचउदुतितिसत्ता सत्त य ठाणेसु णवसु सुण्णाणिं।
छत्तीससत्तदुणवअट्ठातिचउ होंति अंककमा।।१२।।
एदेहि गुणिदसंखेज्जरूवपदरंगुलेहिं भजिदाए।
सेढिकदीए लद्धं माणं चंदाण जोइसिंदाणं।।१३।।
•४।४३८३८९२७३६०००००००००७३३२४८।
तेत्तियमेत्ता रविणो हुवंति चंदाण ते पडिंद त्ति।
अट्ठासीदि गहाणिं णं मयंकाणं।।१४।।
• ४। ४३८३८९२७३६०००००००००७७३३२४८।
बुहसुबिहप्पइणो मंगलसणिकाललोहिदा कणओ।
णीलविकाला केसो कवयवओ कणयसंठाणा।।१५।।
।१३। दुदुंभगो रत्तणिभो णीलब्भासो असोयसंठाणो।
वंसो रूवणिभक्खो वंसयवण्णो य संखपरिणामा।।१६।।
।८। तिलपुच्छसंखवण्णोदयवण्णो पंचवण्णणामक्खा।
उप्पायधूमकेदू तिलो य णभछाररासी य ।।१७।।
।९।वीयण्हसरिससंधी कलेवराभिण्णगंधिमाणवया।
कालककालककेदू णियलाणयविज्जुजीहा य।।१८।।
१२।सिंहालकणिद्दुक्खा कालमहाकालरुद्दमहरुद्दा।
संताणविउलसंभवसव्वट्ठी खेमचंदो य।।१९।।
१३। णिम्मंतजोइमंता दिससंठियविरदवीतसोका य।
णिच्चलपलंबभासुरसयंपभा विजयवइजयंते य।।२०।।
११।सीमंकरावराजियजयंतविमलाभयंकरो वियसो।
कट्ठी वियडो कज्जजलि अग्गीजालो असोकयो केदू।।२१।।
।१२। खीरसऽघस्सवणज्जलकेदुकेदुअंतरयसंठाणा।
अस्सो य ब्भावग्गह चरिमा य महग्गहा णामा।।२२।।
।१०।छप्पण्ण छण्णव सुण्णाणि होंति दसठाणा।
दोणवपंचयछअट्ठचउपंचअंककमे।।२३।।
एदेण गुणिदसंखेज्जरूवपदरंगुलेहि भजिदूणं।
सेढिकदी रसहदम्मि सव्वग्गहाण परिसंखा।।२४।।
११।४। ५४८६५९२००००००००००९६६६५६।
¹ससंकाणं अट्ठावीसा हुवंति णक्खत्ता।
एदाणं णामाइं कमजुत्तीए परूवेमो।।२५।।
कित्तियरोहिणिमिगसिरअद्दाओ पुणव्वसु तहा पुस्सो।
असिलेसादी मघओ पुव्वाओ उत्तराओ य हत्थो य।।२६।।
चित्ताओ सादीओ होंति विसाहाणुराहजेट्ठाओ।
मूलं पुव्वासाढा तत्तो वि य उत्तरासाढा।।२७।।
अभिजीसवणधणिट्ठा सदभिसणामाओ पुव्वभद्दपदा।
उत्त्तरभद्दपदा रेवदीओ तह अस्सिणी भरणी।।२८।
दुगइगितियतितिणवया ठाणेसु णवसु सुण्णाणिं।
चउअट्ठए×ा¹तियसत्तणवयगयणेअंककमे।।२९।।
एदेहि गुणिदसंखेज्जरूवपदरंगुलेहिं भजिदूणं।
सेढिकदी सत्तहदे परिसंखा सव्वरिक्खाणं।।३०।।
७।४। १०९७३१८४०००००००००१९३३३१२ ।
मयंकाणं हुवंति ताराण कोडिकोडीओ।
छावट्ठिसहस्साणं णवसया पंचहत्तरिजुदाणिं।।३१।।
तारागणसंखा ६६९७५००००००००००००।
संपहि कालवसेणं ताराणामाण णत्थि उवदेसो।
एदाणं सव्वाणं परमाणाणिं परूवेमो।।३२।।
दुगसत्तचउरसठाणएसु सुण्णाइं।
णवसत्तछद्दुगाइं अंकाण कमेण एदेणं।।३३।।
संगुणिदेहिं संखेज्जरूवपदरंगुलेहिं भजिदव्वो।
सेढीवग्गो तत्तो पणसत्तत्तियचउ×ा¹ट्ठा।।३४।।
णवअट्ठपंचणवदुगअट्ठासत्तट्ठणवचउ×ा¹ाणिं।
अंककमे गुणिदव्वो परिसंखा सव्वताराणं।।३५।।
४९८७८२९५८९८४३७५।४।२६७९०००००००००००४७२।
चन्द्रमा के विमान गंत्णं सीदिजुदं अट्ठसया जोयणाणि चित्ताए।
उवरिम्मि मंडलाइं चंदाणं होंति गयणम्मि।।३६।।
।८८०। उत्ताणावट्ठिदगोलगद्धसरिसाणि ससिमणिमयाणिं।
ताणं पुह पुह बारससहस्ससिसिरयरमंदकिरणाणिं।।३७।।
तेसु ट्ठिदपुढविजीवा जुत्ता उज्जोवकम्मउदएणं।
जम्हा तम्हा ताणिं पुरंतसिसिरयरमंदकिरणाणिं।।३८।।
ट्ठियभागकदे जोयणए ताण होदि छप्पण्णा।
उवरिमतलाण रुंदं दलिदद्धबहलं पि पत्ते।।३९।।
।५६।२८।।६१।६१। एदाणं परिहीओ पुह पुह बे जोयणाणि अदिरेको।
ताणिं अकिट्टिमाणिं अणाइणिहणाणि बिंबाणिं।।४०।।
चउगोउरसंजुत्ता तडवेदी तेसु होदि पत्ते।
तम्मज्झे वरवेदीसहिदं रायंगणं रम्मं।।४१।।
ज्योतिर्वासी देवों के जिनमंदिर रायंगणबहुमज्झे वररयणमयाणि दिव्ववडाणिं।
वूडेसु जिणपुराणिं वेदीचउतोरणजुदाइं।।४२।।
ते सव्वे जिणणिलया मुत्ताहलकणयदामकमणिज्जा।
वरवज्जकवाडजुदा दिव्वविदाणेहिं रेहंति।।४३।।
दिप्पंतरयणदीवा अट्ठमहामंगलेहिं परिपुण्णा।
वंदणमालाचामरकिंकिणियाजालसोहिल्ला।।४४।।v
एदेसुं णट्टसभा अभिसेयसभा विचित्तरयणमई।
कीडणसाला विविहा ठाणट्ठाणेसु सोहंति।।४५।।
मद्दलमुइंगपडहप्पहुदीहिं विविहदिव्वतूरेहिं।
उवहिसरिच्छरवेहिं जिणगेहा णिच्चहलबोला।।४६।।
छत्तत्तयसिंहासणभामंडलचामरेहिं जुत्ताइं।
जिणपडिमाओ तेसुं रयणमईओ विराजंति।।४७।।
सिरिदेवी सुददेवी सव्वाण सणक्कुमारजक्खाणं।
रूवाणि मणहराणिं रेहंति जिणिंदपासेसुं।।४८।।
जलगंधकुसुमतंदुलवरभक्खप्पदीवधूवफलपुण्णं।
कुव्वंति ताण पुज्जं णिब्भरभत्तीए सव्वसुरा।।४९।।
एदाणं वूडाणं समंतदो होंति चंदपासादा।
समचउरस्सा दीहा णाणाविण्णासरमणिज्जा।।५०।।
मरगयवण्णा केई केई वुंदेंदुहारहिमवण्णा।
अण्णे सुवण्णवण्णा अवरे वि पवालणिहवण्णा।।५१।।
उववादमंदिराइं अभिसेयपुराणि भूसणगिहाणिं।
मेहुणकीडणसालाओ मंतअत्थाणसालाओ।।५२।।
ते सव्वे पासादा वरपायारा विचित्तगोउरया।
मणितोरणरमणिज्जा जुत्ता बहुचित्तभित्तीहिं।।५३।।
उववणपोक्खरणीहिं विराजमाणा विचित्तरूवाहिं।
कणयमयविउलथंभा सयणासणपहुदिपुण्णाणिं।।५४।।
सुद्धरसरूवगंधप्पासेहि णिरुवमेहिं सोक्खाणिं।
देंति विविहाणि दिव्वा पासादा धूवगंधड्ढा।।५५।।
सत्तट्ठप्पहुदीओ भूमीओ भूसिदाओ वूडेहिं।
विप्पुरिदरयणकिरणावलीओ भवणेसु रेहंति।।५६।।
तम्मंदिरमज्झेसुं चंदा सिहासणासमारूढा।
पत्ते चंदाणं चत्तारो अग्गमहिसीओ।।५७।।
चंदाभसुसीमाओ पहंकरा अच्चिमालिणी ताणं।
पत्ते परिवारा चत्तारिसहस्सदेवीओ।।५८।।
णियणियपरिवारसमं विक्किरियं दरिसियंति देवीओ।
चंदाणं परिवारा अट्ठवियप्पा य पत्ते।।५९।।
पडिइंदा सामाणियतणुरक्खा तह हवंति तिप्परिसा।
सत्ताणीयपइण्णयअभियोगा किव्विसा देवा।।६०।।
सयलिंदाण पडिंदा होंति ते वि आइच्चा।
सामाणियतणुरक्खप्पहुदी संखेज्जपरिमाणा।।६१।।
रायंगणबाहिरए परिवाराणं हवंति पासादा।
विविहवररयणरइदा विचित्तविण्णासभूदीहिं।।६२।।
सोलससहस्समेत्ता अभिजोगसुरा हवंति पत्ते।
चंदाण पुरतलाइं वि×िा¹रियासाविणो णिच्चं।।६३।।
।१६०००। चउचउसहस्समेत्ता पुव्वादिदिसासु कुंदसंकासा।
केसरिकरिवसहाणं जडिलतुरंगाण रूवधरा।।६४।।
सूर्य के विमान चित्तोवरिमतलादो उवरिं गंतूण जोयणट्ठसए।
दिणयरणयरतलाइं णिच्चं चेट्ठंति गयणम्मि।।६५।।
८००।। उत्ताणावट्ठिदगोलयद्धसरिसाणि रविमणिमयाणिं।
ताणं पुह पुह बारससहस्सउण्हयरकिरणाणिं।।६६।।
१२०००। तेसु ठिदपुढविजीवा जुत्ता आदावकम्मउदएणं।
जम्हा तम्हा ताणिं पुरंतउण्हयरकिरणाणिं।।६७।।
इगिसट्ठियभागकदे जोयणए ताण होंति अडदालं।
उवरिमतलाण रुंदं तलद्धबहलं पि पत्ते ।।६८।।
४८। २४।६१। ६१। एदाणं परिहीओ पुह पुह बे जोयणाणि अदिरेगा।
ताणिं अकट्टिमाणिं अणाइणिहणाणि बिंबाणिं।।६९।।
पत्ते तडवेदी चउगोउरदारसुंदरा ताणं।
तम्मज्झे वरवेदीसहिदं रायंगणं होदि।।७०।।
रायंगणस्स मज्झे वररयणमयाणि दिव्ववूडाणिं।
तेसुं जिणपासादा चेट्ठंते सूरवंतमया।।७१।।
एदाण मंदिराणं मयंकपुरवूडभवणसारिच्छं।
सव्वं चिय वण्णणयं णिउणेहिं एत्थ वत्तव्वं।।७२।।
तेसु जिणप्पडिमाओ पुव्वोदिदवण्णणप्पयाराओ।
विविहच्चणदव्वेहिं ताओ पूजंति सव्वसुरा।।७३।।
एदाणं वूडाणं होंति समंतेण सूरपासादा।
ताणं पि वण्णणाओ ससिपासादेहिं सरिसाओ।।७४।।
तण्णिलयाणं मज्झे दिवायरा दिव्वसिंधपीढेसुं।
वरछत्तचमरजुत्ता चेट्ठंते दिव्वयरतेया।।७५।।
जुदिसुदिदपहंकराओ सूरपहाअच्चिमालिणीओ वि।
पत्ते चत्तारो दुमणीणं अग्गदेवीओ।।७६।।
देवीणं परिवारा पत्ते चउसहस्सदेवीओ।
णियणियपरिवारसमं विरियं ताओ गेण्हंति ।।७७।।
सामाणियतणुरक्खा तिप्परिसाओ पइण्णयाणीया।
अभियोगा किब्बिसिया सत्तविहा सूरपरिवारा।।७८।।
रायंगणाबाहिरए परिवाराणं हुवंति पासादा।
वररयणभूसिदाणं पुरंततेयाण सव्वाणं।।७९।।
णियणियरासिपमाणं एदाणं जं मयंकपहुदीणं।
णियणियणयरपमाणं तेत्तियमेत्तं च वूडजिणभवणं१।।११४।।
जोइग्गणणयरीणं सव्वाणं रुंदमाणसारिच्छं।
बहलत्तं मण्णंते लोगविभायस्स आइरिया।।११५।।
ताराओं का वर्णन सेसाओ वण्णणाओ जंबूदीवस्स वण्णणसमाओ।
णवरि विसेसो संखा अण्णण्णा खीलताराणं२।।६०३।।
सयं उणदालं लवणसमुद्दम्मि खीलताराओ।
दसउत्तरं सहस्सा दीवम्मि य धादईसंडे।।६०४।।
१३९।१०१०।। त्तालसहस्सा बीसुत्तरमिगिसयं च कालोदे।
तेवण्णसहस्सा बेसयाणि तीसं च पुक्खरद्धम्मि।।६०५।।
४११२०।५३२३०।। मनुष्यलोक के चन्द्र-सूर्यों की संख्या माणुसखेत्ते ससिणो छासट्ठी होंति एपासम्मि।
दोपासेसुं दुगुणा तेत्तियमेत्ताओ मत्तंडा।।६०६।।
।६६।१३२। रससहस्साणिं होंति गहा सोलसुत्तरा छसया।
रिक्खा तिण्णि सहस्सा छस्सयछण्णउदिअदिरित्ता।।६०७।।
।९१६१६।३६९६। अट्ठासीदीलक्खा चालीससहस्ससगसयाणिं पि।
होंति हु माणुसखेत्ते ताराणं कोडकोडीओ।।६०८।।
।८८४०७०००७००००००००००००। पंचाणउदिसहस्सं पंचसया पंचतीसअब्भहिया।
खेत्तम्मि माणुसाणं चेट्ठंते खीलताराओ।।६०९।।
।९५५३५।। सव्वे ससिणो सूरा णक्खत्ताणिं गहा य ताराणिं।
णियणियपहपणिधीसुं पंतीए चरंति णभखंडे।।६१०।
ज्योतिर्वासी देवों के जिनमंदिर व्यन्तरलोकाधिकार का निरूपण करके उसके अनन्तर उद्देश्य को प्राप्त ज्योतिर्लोकाधिकार के निरूपण की इच्छा रखने वाले आचार्य सर्वप्रथम ज्योतिषदेवों के बिम्बों की संख्या दिखाने के लिये ज्योतिर्लोक के चैत्यालयों को नमस्कार करने रूप मंगल कहते हैं :-
गाथार्थ :- जगत्प्रतर को दो सौ छप्पन (२५६) अंगुलों के वर्ग (२५६²२५६•६५५३६) का भाग देने पर ज्योतिष देवों का प्रमाण प्राप्त होता है। ज्योतिष देवों के संख्यात भाग प्रमाण ज्योर्तििबम्ब एवं चैत्यालय हैं, जो असंख्यात हैं । उन्हें मैं (नेमिचन्द्राचार्य) नमस्कार करता हूँ ।।३०२।। विशेषार्थ :- दो सौ छप्पन अंगुलों का वर्ग करने से (२५६²२५६)•६५५३६ वर्ग अंगुल अर्थात् पण्णट्ठी प्राप्त होती है अत: जगत्प्रतर ´ ६५५३६ वर्ग अंगुल•ज्योतिष देवों का प्रमाण । ज्योतिषदेव ´ संख्यात•ज्योर्तििबम्ब और चैत्यालय जिनकी संख्या असंख्यात है, उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ। बिम्बों में स्थित ज्योतिषी देवों के भेद कहते हैं—
गाथार्थ– चन्द्र,सूर्य ग्रह, नक्षत्र और प्रकीर्णक तारा, इस प्रकार ज्योतिष देवों के समूह पाँच प्रकार के हैं। ये पाँचों लोक के अन्त में घनोदधिवातवलय का स्पर्श करते हैं ।।३०३।।
विशेषार्थ :- पूर्व पश्चिम अपेक्षा घनोदधि वातवलय पर्यन्त ज्योतिषी देवों के बिम्ब स्थित हैं।
चन्द्र, सूर्य , ग्रह, नक्षत्र और प्रकीर्णक तारा, इस प्रकार ज्योतिषी देवों के समूह पांच प्रकार के हैं । ये ज्योतिषी देव लोक के अन्त में घनोदधि वातवलय को छूते हैं।।७।। विशेष इतना है कि पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर भागों में अन्तर है इसलिये वे ज्योतिषी देव उस घनोदधि वातवलय को नहीं छूते ।।८।। दो सौ छप्पन अंगुलों के वर्ग का जगश्रेणी के वर्ग में भाग देने पर जो लब्ध आवे उतनी सम्पूर्ण ज्योतिषी देवों की राशि है—असंख्यात हैं।।११।। जगश्रेणी ´ ६५५३६। आठ, चार, दो, तीन, तीन, सात, सात,नौ स्थानों में शून्य, छत्तीस, सात, दो, नौ, आठ, तीन, और चार, ये क्रम से अंक होते हैं । इनसे गुणित संख्यातरूप प्रतरांगुलों का जगश्रेणी के वर्ग में भाग देने पर जो लब्ध आवे उतना चन्द्र ज्योतिषियों का प्रमाण है ।।१२-१३।। ज.श्रे.´(सं.प्र.अं. ² ४३८९२७३६०००००००००७७३३२४८). इतने ही (चन्द्रों के बराबर ) सूर्य भी हैं । ये चन्द्रों के प्रतीन्द्र होते हैं। प्रत्येक चन्द्र के अट्ठासी ग्रह होते हैं ।।१४।। ज.श्रे.´(सं.प्र.अं. ² ४३८९२७३६०००००००००७७३३२४८ ). बुध, शुक्र, बृहस्पति, मंगल, शनि, काल, लोहित, कनक, नील, विकाल, केश, कवयव, कनकसंस्थान, दुंदुभक, रक्तनिभ, नीलाभास, अशोकस्स्थान, वंस, रूपनिभ, वंसकवर्ण, शंखपरिणाम, तिलपुच्छ, शंखवर्ण, उदकवर्ण, पंचवर्ण, उत्पात, धूमकेतु, तिल, नभ , क्षारराशि, विजिष्णु, सदृश, संधि, कलेवर, अभिन्न, ग्रन्थि, मानवक, कालक, कालकेतु, निलय, अनय, विद्युज्जिह्व, सिंह,अलक, निर्दु:ख,काल, महाकाल, रुद्र, महारुद्र, संतान, विपुल, संभव, सर्वार्थी, क्षेम, चन्द्र, निर्मन्त्र, ज्योतिष्मान् , दिशसंस्थित, विरत, वीतशोक, निश्चल, प्रलंब, भासुर, स्वयंप्रभ, विजय, वैजयन्त, सीमंकर, अपराजित, जयन्त, विमल, अभयंकर, विकस, काष्ठी, विकट, कज्जली, अग्निज्वाल, अशोक, केतु, क्षीरस, अघ, श्रवण, जलकेतु, केतु, अन्तरद, एकसंस्थान, अश्व, भावग्रह और अन्तिम महाग्रह, इस प्रकार ये अठासी ग्रहों के नाम हैं।।१५-२२।। छह, पांच, छह, छह, छह, नौ, दश स्थानों में शून्य, दो, नौ, पांच, छह, आठ, चार और पांच, इन अंकों के क्रम से जो संख्या उत्पन्न हो उससे गुणित संख्यातरूप प्रतरांगुलों का जगश्रेणी के वर्ग में भाग देने पर लब्ध आवे उसे ग्यारह से गुणा करने पर सम्पूर्ण ग्रहों की संख्या होती है ।।२३-२४।। ज.श्रे.´(सं.प्र.अं. ² ५४८६५९२००००००००००९६६६५६) ² ११. एक-एक चन्द्र के अट्ठाईस नक्षत्र होते हैं। यहाँं क्रमयुक्ति से उनके नामों को कहते हैं।।२५।। कृत्तिका, रोहिणी, मृगशीर्षा, आद्र्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वा फाल्गुनी, उत्तरा फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, अभिजित् , श्रवण, घनिष्ठा, शतभिषज्, पूर्व भाद्रपदा, उत्तर भाद्रपदा, रेवती, अश्विनी और भरणी, ये उन नक्षत्रों के नाम हैं।।२६-२८।। दो, एक, तीन, तीन,तीन, नौ, एक, नौ स्थानों में शून्य, चार, आठ, एक, तीन, सात, नौ, शून्य और एक, इन अंकों के क्रम से जो संख्या उत्पन्न हो उससे गुणित संख्यातरूप प्रतरांगुलों का जगश्रेणी के वर्ग में भाग देने पर जो लब्ध आवे उसे सात से गुणा करने पर सब नक्षत्रों की संख्या होती है।।२९-३०।। ज.श्रे.´(सं.प्र.अं.²१०९७३१८४०००००००००१९३३३१२) ² ७. एक-एक चन्द्र के छियासठ हजार नौ सौ पचहत्तर कोड़ीकोड़ी तारे होते हैं।।३१।। इस समय काल के वश से ताराओं के नामों का उपदेश नहीं है। इन सबके प्रमाणों को कहते हैं।।३२।। दो, सात, चार, ग्यारह स्थानों में शून्य, नौ, सात, छह और दो, इन अंकों के क्रम से जो संख्या उत्पन्न हो उससे गुणित संख्यात रूप प्रतरांगुलों का जगश्रेणी के वर्ग में भाग देने पर जो लब्ध आवे उसको पांच, सात, तीन, चार, आठ, नौ, आठ, पाँच, नौ, दो, आठ, सात, आठ, नौ और चार, इन अंकों से गुणा करने पर सब ताराओं की संख्या होती है ।।३३-३५।। ज.श्रे. ´(सं. प्र. अं. ²२६७९००००० ००००००४७२)²४९८७८२९५८९८४३७५
चित्रा पृथिवी से ऊपर आठ सौ अस्सी योजन जाकर आकाश में चन्द्रों के मण्डल हैं।।३६।।८८०। उत्तान अर्थात् ऊध्र्वमुखरूप से अवस्थित अर्धगोलक के सदृश चन्द्रों के मणिमय विमान हैं। उनकी पृथव्-पृथव् अतिशय शीतल एवं मंद किरणें बारह हजार प्रमाण हैं।।३७।। उनमें स्थित पृथिवी जीव चूँकि उद्योत नामकर्म के उदय से संयुक्त हैं, इसीलिये वे प्रकाशमान अतिशय शीतल मन्द किरणों से संयुक्त होते हैं।।३८।। एक योजन के इकसठ भाग करने पर छप्पन भाग प्रमाण उन चन्द्रविमानों में से प्रत्येक के उपरिम तल का विस्तार व इससे आधा बाहल्य है।।३९।। ५६।२८। ।६१।६१। इनकी परिधियां पृथव्-पृथव् दो योजन से कुछ अधिक हैं। वे बिम्ब अकृत्रिम व अनादिनिधन हैं। ।।४०।। उनमें से प्रत्येक की तटवेदी चार गोपुरों से संयुक्त होती है। उसके बीच में उत्तम वेदी सहित रमणीय राजांगण होता है ।।४१।।
राजांगण के ठीक बीच में उत्तम रत्नमय दिव्य कूट और उन कूटों पर वेदी व चार तोरणों से संयुक्त जिनपुर-जिनमंदिर होते हैं ।।४२।। वे सब जिनभवन मोती व सुवर्ण की मालाओं से रमणीय और उत्तम वङ्कामय किवाड़ों से संयुक्त होते हुए दिव्य चन्दोवों से सुशोभित रहते हैं।।४३।। ये जिनभवन देदीप्यमान रत्नदीपकों से सहित, अष्ट महामंगल द्रव्यों से परिपूर्ण और वन्दनमाला, चंवर व क्षुद्र घंटिकाओं के समूह से शोभायमान होते हैं।।४४।। इन जिनभवनों में स्थान-स्थान पर विचित्र रत्नों से निर्मित नाट्यसभा, अभिषेकसभा और विविध प्रकार की क्रीड़ाशालायें सुशोभित होती हैं।।४५।। वे जिनभवन समुद्र के समान गम्भीर शब्द करने वाले मर्दल, मृदंग और पटह आदि विविध प्रकार के दिव्य वादित्रों से नित्य शब्दायमान रहते हैं।।४६।। उन जिनभवनों में तीन छत्र, सिंहासन, भामण्डल और चामरों से संयुक्त रत्नमयी जिनप्रतिमायें विराजमान हैं।।४७।। जिनेन्द्रप्रासादों में श्रीदेवी, श्रुतदेवी और सब सनत्कुमार यक्षों की मनोहर मूर्तियां शोभायमान होती हैं।।४८।। सब देव गाढ़ भक्ति से जल, गन्ध, फूल, तन्दुल, उत्तम भक्ष्य(नैवेद्य), दीप, धूप और फलों से परिपूर्ण उनकी पूजा करते हैं।।४९।। इन कूटों के चारों ओर समचतुष्कोण लंबे और नाना प्रकार के विन्यास से रमणीय चन्द्रों के प्रासाद होते हैं।।५०।। इनमें से कितने ही प्रासाद मरकतवर्ण, कितने ही कुन्दपुष्प, चन्द्र, हार एवं बर्प जैसे वर्ण वाले; कोई सुवर्ण के समान वर्ण वाले और दूसरे मूंगे के सदृश वर्ण से सहित हैं।।५१।। इन भवनों में उपपादमंदिर, अभिषेकपुर, भूषणगृह, मैथुनशाला, क्रीडाशाला, मंत्रशाला और आस्थानशालायें (सभाभवन) स्थित रहती हैं। ।५२।। वे सब प्रासाद उत्तम कोटों से सहित, विचित्र गोपुरों से संयुक्त, मणिमय तोरणों से रमणीय, बहुत प्रकार के चित्रों वाली दीवालों से युक्त, विचित्र रूप वाली उपवन-वापिकाओं से विराजमान, सुवर्णमय विशाल खम्भों से सहित और शयनासन आदि से परिपूर्ण हैं।।५३-५४।। ये दिव्य प्रासाद धूप के गन्ध से व्याप्त होते हुए अनुपम एवं शुद्ध रस, रूप, गन्ध और स्पर्श से विविध प्रकार के सुखों को देते हैं।।५५।। भवनों में कूटों से विभूषित और प्रकाशमान रत्नकिरणपंक्ति से संयुक्त सात, आठ आदि भूमियां शोभायमान होती हैं।।५६।। इन भवनों वे बीच में चन्द्र सिंहासनों पर विराजमान रहते हैं। उनमें से प्रत्येक चन्द्र के चार अग्रमहिषियां (पट्टदेवियां ) होती हैं।।५७।। चन्द्राभा, सुसीमा, प्रभंकरा और अर्चिमालिनी, ये उन अग्रदेवियों के नाम हैं। इनमें से प्रत्येक की चार हजार प्रमाण परिवार देवियाँ होती हैं।।५८।। अग्रदेवियां अपनी-अपनी परिवार देवियों के समान अर्थात् चार हजार रूपों प्रमाण विक्रिया दिखलाती हैं। प्रतीन्द्र, सामानिक, तनुरक्ष, तीनों पारिषद , सात अनीक, प्रकीर्णक , आभियोग्य और किल्विष, इस प्रकार प्रत्येक चन्द्र के परिवार देव आठ प्रकार के होते हैं ।।५९-६०।। सब इन्द्रों के एक-एक प्रतीन्द्र होते हैं। वे (प्रतीन्द्र) सूर्य ही हैं। सामानिक और तनुरक्ष प्रभृति देव संख्यात प्रमाण होते हैं।।६१।। राजांगण के बाहिर विविध प्रकार के उत्तम रत्नों से रचित और विचित्र विन्यासरूप विभूति से सहित परिवार देवों के प्रासाद हैं।।६२।। प्रत्येक इन्द्र के सोलह हजार प्रमाण आभियोग्य देव होते हैं जो नित्य ही विक्रिया धारण करते हुए चन्द्रों के पुरतलों को वहन करते हैं।।६३।। १६०००। इनमें से सिंह, हाथी , बैल और जटायुक्त घो़ड़ों के रूप को धारण करने वाले तथा कुन्दपुष्प के सदृश सपेद चार-चार हजार प्रमाण देव क्रम से पूर्वादिक दिशाओं में चन्द्रबिंबों को वहन करते हैं।।६४।।
चित्रा पृथिवी के उपरिम तल से ऊपर आठ सौ योजन जाकर आकाश में नित्य सूर्य नगरतल स्थित हैं।।६५।। ८००। सूर्यों के मणिमय बिंब ऊध्र्व अवस्थित अर्ध गोलक के सदृश हैं। इनकी पृथक् – पृथक् बारह हजार प्रमाण उष्णतर किरणें होती हैं।।६६।।१२०००। चूंकि उनमें स्थित पृथिवी जीव आताप नामकर्म के उदय से संयुक्त होते हैं इसीलिये वे प्रकाशमान उष्णतर किरणों से युक्त होते हैं।।६७।। एक योजन के इकसठ भाग करने पर अड़तालीस भाग प्रमाण उनमें से प्रत्येक सूर्य के बिंब के उपरिम तलों का विस्तार और तलों से आधा बाहल्य भी होता है।।६८।। ४८। २४। ६१।६१। इनकी परिधियां पृथव्-पृथव् दो योजन से अधिक होती हैं। वे सूर्यबिंब अकृत्रिम एवं अनादिनिधन हैं।।६९।। उनमें से प्रत्येक तटवेदी चार गोपुरद्वारों से सुन्दर होती है। उसके बीच में उत्तम वेदी से संयुक्त राजांगण होता है।।७०।। राजांगण के मध्य में जो उत्तम रत्नमय दिव्य कूट होते हैं उनमें सूर्यकान्त मणिमय जिनभवन स्थित हैं ।।७१।। निपुण पुरुषों को इन मंदिरों का सम्पूर्ण वर्णन चन्द्रपुरों के कूटों पर स्थित जिनभवनों के सदृश यहां पर भी करना चाहिये।।७२।। उनमें जो जिनप्रतिमायें विराजमान हैं उनके वर्णन का प्रकार पूर्वोंक्त वर्णन के ही समान है। समस्त देव विविध प्रकार के पूजा द्रव्यों से उन प्रतिमाओं की पूजा करते हैं।।७३।। इन कूटों के चारों तरफ जो सूर्यप्रासाद हैं उनका भी वर्णन चन्द्रप्रासादों के सदृश है।।७४।। उन भवनों के मध्य में उत्तम छत्र-चँवरों से संयुक्त और अतिशय दिव्य तेज को धारण करने वाले सूर्य दिव्य सिंहासनों पर स्थित होते हैं।।७५।। द्युतिश्रुति, प्रभंकरा, सूर्यप्रभा और अर्चिमालिनी, ये चार प्रत्येक सूर्य की अग्रदेवियां होती हैं।।७६।। इनमें से प्रत्येक अग्रदेवी की चार हजार परिवार देवियां होती हैं । वे अपने-अपने परिवार के समान अर्थात् चार हजार रूपों की विक्रिया ग्रहण करती हैं।।७७।। सामानिक, तनुरक्ष, तीनों पारिषद, प्रकीर्णक , अनीक, आभियोग्य और किल्विषिक , इस प्रकार सूर्यों के सात प्रकार के परिवार देव होते हैं।।७८।। राजांगण के बाहिर उत्तम रत्नों से विभूषित और प्रकाशमान तेज को धारण करने वाले समस्त परिवार देवों के प्रासाद होते हैं।।७९।। इन चन्द्रादिकों की निज-निज राशि का जो प्रमाण है उतना ही अपने-अपने नगरों, कूटों और जिनभवनों का प्रमाण है ।।११४।। ‘लोकविभाग’ के आचार्य समस्त ज्योतिर्गणों की नगरियों के विस्तारप्रमाण के सदृश ही उनके बाहल्य को भी मानते हैं ।।११५।। पाठान्तर ।
इनका शेष वर्णन जंबूद्वीप के वर्णन के समान है । विशेषता केवल यह है कि स्थिर ताराओं की संख्या भिन्न-भिन्न है।।६०३।। ये स्थिर तारे लवण समुद्र में एक सौ उनतालीस और धातकीखण्ड द्वीप में एक हजार दश हैं।।६०४।। १३९।१०१०।। का
लोद समुद्र में इकतालीस हजार एक सौ बीस और पुष्कराद्र्ध द्वीप में तिरेपन हजार दो सौ तीस स्थिर तारे हैं ।।६०५।।४११२०।५३२३०।
मनुष्यलोक के भीतर एक पाश्र्वभाग में छ्यासठ और दोनों पाश्र्व भागों में इससे दूने चन्द्र तथा इतने मात्र ही सूर्य भी हैं।।६०६।। ६६।१३२।। मनुष्यलोक में ग्यारह हजार छह सौ सोलह ग्रह और तीन हजार छह सौ छियानबे नक्षत्र हैं।।६०७।। ११६१६।३६९६।। मनुष्यक्षेत्र में अठासी लाख चालीस हजार सात सौ कोड़ाकोड़ी तारे हैं।।६०८।। ८८४०७००००००००००००००००। मनुष्यों के क्षेत्र में पंचानवे हजार पाँच सौ पैंतीस स्थिर तारा स्थित हैं।।६०९।। ९५,५३५। चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र, ग्रह और तारा, ये सब अपने-अपने पथों की प्रणिधियों में पंक्ति रूप से नभखण्डों में संचार करते हैं।।६१०।।
चित्रा पृथ्वी से ऊपर तारा, सूर्य, चन्द्र के विमान इस चित्रा पृथ्वी से ७६० योजन के ऊपर प्रथम ही ताराओं के विमान हैं । नंतर १० योजन जाकर अर्थात् पृथ्वीतल से ८०० योजन जाकर सूर्य के विमान हैं तथा ८० योजन अर्थात् पृथ्वीतल से ८८० योजन (३५,२०००० मील ) पर चन्द्रमा के विमान हैं। सूर्य, चन्द्र आदि के विमानों का प्रमाण सूर्य का विमान ४८/६१ योजन का है । यदि १ योजन में ४००० मील के अनुसार गुणा किया जावे तो ३१४७-३३/६१ मील का होता है। एवं चन्द्र का विमान ५६/६१ योजन अर्थात् ३६७२-८/६१ मील का है । शुक्र का विमान १ कोश का है । यह बड़ा कोश लघु कोश से ५०० गुणा है। अत: ५००²२ मील से गुणा करने पर १००० मील का आता है। इसी प्रकार आगे – ताराओं के विमानों का सबसे जघन्य प्रमाण १/४ कोश अर्थात् २५० मील का है । इन सभी विमानों की बाहल्य (मोटाई) अपने-अपने विमानों के विस्तार से आधी-आधी मानी है। राहु के विमान चन्द्र विमान के नीचे एवं केतु के विमान सूर्य विमान के नीचे रहते हैं अर्थात् ४ प्रमाणांगुलं (२००० उत्सेधांगुल) प्रमाण ऊपर चन्द्र-सूर्य के विमान स्थित होकर गमन करते रहते हैं। ये राहु-केतु के विमान ६-६ महीने में पूर्णिमा एवं अमावस्या को क्रम से चन्द्र एवं सूर्य के विमानों को आच्छादित करते हैं। इसे ही ग्रहण कहते हैं। ज्योतिष्क विमानों की किरणों का प्रमाण सूर्य एवं चन्द्र की किरणें १२०००-१२००० हैं। शुक्र की किरणें २५०० हैं। बाकी सभी ग्रह, नक्षत्र एवं तारकाओं की मंद किरणें हैं।
वाहन जाति के देव इन सूर्य और चन्द्र के प्रत्येक (विमानों को) आभियोग्य जाति के ४००० देव विमान के पूर्व में सिंह के आकार को धारण कर, दक्षिण में ४००० देव हाथी के आकार को, पश्चिम में ४००० देव बैल के आकार को एवं उत्तर में ४००० देव घोड़े के आकार को धारण कर (इस प्रकार १६००० हजार देव) सतत खींचते रहते हैं। इसी प्रकार ग्रहो के ८०००, नक्षत्रों के ४००० एवं ताराओं के २००० वाहन जाति के देव होते हैं। गमन में चन्द्रमा सबसे मंद है। सूर्य उसकी अपेक्षा शीघ्रगामी है। सूर्य से शीघ्रतर ग्रह, ग्रहों से शीघ्रतर नक्षत्र एवं नक्षत्रों से भी शीघ्रतर गति वाले तारागण हैं। शीत एवं उष्ण किरणों का कारण पृथ्वी के परिणामस्वरूप (पृथ्वीकायिक) चमकीली धातु से सूर्य का विमान बना हुआ है, जो कि अकृत्रिम है । इस सूर्य के बिंब में स्थित पृथ्वीकायिक जीवों के आतप नाम कर्म का उदय होने से उसकी किरणें चमकती हैं तथा उसके मूल में उष्णता न होकर सूर्य की किरणों में ही उष्णता होती है इसलिये सूर्य की किरणें उष्ण हैं । उसी प्रकार चन्द्रमा के बिंब में रहने वाले पृथ्वीकायिक जीवों के उद्योत नाम कर्म का उदय है जिसके निमित्त से मूल में तथा किरणों में सर्वत्र ही शीतलता पाई जाती है। इसी प्रकार ग्रह, नक्षत्र, तारा आदि सभी के बिंब-विमानों के पृथ्वीकायिक जीवों के भी उद्योत नाम कर्म का उदय पाया जाता है।
सभी ज्योतिर्देवों के विमानों में बीचोंबीच में एक-एक जिनमंदिर है और चारों ओर ज्योतिर्वासी देवों के निवास स्थान बने हैं। विशेष-प्रत्येक विमान की तटवेदी चार गोपुरों से युक्त है । उसके बीच में उत्तम वेदी सहित राजांगण है। राजांगण के ठीक बीच में रत्नमय दिव्य वूâट है । उस वूâट पर वेदी एवं चार तोरण द्वारों से युक्त जिनचैत्यालय (मंदिर) हैं । वे जिनमंदिर मोती व सुवर्ण की मालाओं से रमणीय और उत्तम वङ्कामय किवाड़ों से स्ांयुक्त दिव्य चन्द्रोपकों से सुशोभित हैं। वे जिनभवन देदीप्यमान रत्नदीपकों से सहित अष्ट महामंगल द्रव्यों से परिपूर्ण, वंदनमाला, चमर, क्षुद्र घंटिकाओं के समूह से शोभायमान हैं। उन जिनभवनों में स्थान-स्थान पर विचित्र रत्नों से निर्मित नाट्यसभा, अभिषेक सभा एवं विविध प्रकार की क्रीडाशालायें बनी हुई हैं । वे जिनभवन समुद्र के सदृश गंभीर शब्द करने वाले मर्दल, मृदंग, पटह आदि विविध प्रकार के दिव्य वादित्रों से नित्य शब्दायमान हैं । उन जिनभवनों में तीन छत्र, िंसहासन, भामंडल और चामरों से युक्त जिनप्रतिमायें विराजमान हैं। उन जिनेन्द्रप्रासादों में श्रीदेवी व श्रुतदेवी यक्षी एवं सर्वाण्ह व सनत्कुमार यक्षों की मूर्तियां भगवान के आजू-बाजू में शोभायमान होती हैं। सब देव गाढ़ भक्ति से जल, चन्दन, तंदुल, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फलों से परिपूर्ण नित्य ही उनकी पूजा करते हैं । राहु का विमान प्रतिदिन एक-एक मार्ग में चन्द्रबिंब की १५ दिन तक एक-एक कलाओं को ढकता रहता है। इस प्रकार राहुबिंब के द्वारा चन्द्र की १ ही कला दीखती है वह अमावस्या का दिन होता है । फिर वह राहु प्रतिपदा के दिन से प्रत्येक गली में १-१ कला को छोड़ते हुये पूर्णिमा को पन्द्रहों कलाओं को छोड़ देता है तब चन्द्रबिंब पूर्ण दिखने लगता है, उसे ही पूर्णिमा कहते हैं। इस प्रकार कृष्णपक्ष एवं शुक्लपक्ष का विभाग हो जाता है ।
इस प्रकार ६ मास में पूर्णिमा के दिन चन्द्र विमान पूर्ण आच्छादित हो जाता है उसे चन्द्रग्रहण कहते हैं तथैव छह मास में सूर्य के विमान को अमावस्या के दिन केतु का विमान ढक देता है उसे सूर्यग्रहण कहते हैं। विशेष-ग्रहण के समय दीक्षा, विवाह आदि शुभ कार्य वर्जित माने हैं तथा सिद्धांत ग्रन्थों के स्वाध्याय का भी निषेध किया है ।
सूर्य चन्द्रादिकों का तीव्र-मन्द गमन सबसे मन्द गमन चन्द्रमा का है । उससे शीघ्र गमन सूर्य का है । उससे तेज गमन ग्रहों का, उससे तेज गमन नक्षत्रों का एवं सबसे तीव्र गमन ताराओं का है ।
चक्रवर्ती के द्वारा सूर्य के जिनबिम्ब का दर्शन जब सूर्य पहली गली में आता है तब अयोध्या नगरी के भीतर अपने भवन के ऊपर स्थित चक्रवर्ती सूर्य विमान में स्थित जिनबिम्ब का दर्शन करते हैं। इस समय सूर्य अभ्यंतर गली की परिधि ३१५०८९ योजन को ६० मुहूर्त में पूरा करता है। इस गली मे ंसूर्य निषध पर्वत पर उचित होता है वहाँ से उसे अयोध्या नगरी के ऊपर आने में ९ मुहूर्त लगते हैं। अब जब वह ३१५०८९ योजन प्रमाण उस वीथो को ६० मुहूर्त में पूर्ण करता है जतब वह ९ मुहूर्त में कितने क्षेत्र को पूरा करेगा। इस प्रकार त्रैराशिक करने पर – ३१५०८९/६० ² ९ • ४७२६३ ७/२० योजन अर्थात् मील होता है। एक चन्द्र का परिवार इन ज्योतिषी देवों में चन्द्रमा चन्द्र इन्द्र है तथा सूर्य प्रतीन्द्र है अतः एक चन्द्र (इन्द्र) के—१ सूर्य (प्रतीन्द्र), ८८ ग्रह, २८ नक्षत्र, ६६ हजार ९७५ कोड़ाकोड़ी तारे ये सब परिवार देव हैं।
कोड़ाकोड़ी का प्रमाण १ करोड़ को १ करोड़ से गुणा करने पर कोड़ाकोड़ी संख्या आती है। १००००००० ² १००००००० • १०, ०००००००००००००। १ तारे से दूसरे तारे का अन्तर एक तारे से दूसरे तारे का जघन्य अंतर १४२-६/७ मील अर्थात १/७ महाकोश है इसका लघु कोश ५०० गुणा होने से ५००/७ हुआ, उसका मील बनाने पर ५०० गुणा होने से ५००/७ हुआ, उसका मील बनाने पर ५००/७ ² २ • १४२ – ६/९ हुआ। मध्यम अन्तर—५० योजन (२,००००० मील) का है एवं उत्कृष्ट अन्तर—१०० योजन (४,००००० मील) का है। मानुषोत्तर पर्वत के पूर्व के ही ज्योतिष्क देवों का भ्रमण मानुषोत्तर पर्वत से इधर-उधर के ही ज्योतिर्वासी देवगण हमेशा ही मेरू की प्रदक्षिणा देते हुये गमन करते रहते हैं और इन्हीं के गमन के क्रम से दिन, रात्रि, पक्ष, मास, संवत्सर आदि का विभागरूप व्यवहारकाल जाना जाता है ।
# कृत्तिका # रोहिणी # मृगशीर्षा # आर्द्रा # पुनर्वसू # पुष्य # आश्लेषा # मघा # पूर्वाफाल्गुनी # उत्तराफाल्गुनी # हस्त # चित्रा # स्वाति # विशाखा # अनुराधा # ज्येष्ठा # मूल # पूर्वाषाढ़ा # उत्तराषाढ़ा # अभिजित् # श्रवण # घनिष्ठा # शतभिषज् # पूर्वा भाद्रपदा # उत्तरा भाद्रपदा # रेवती # अश्विनी # भरिणी ।
चन्द्रमा की १५ गलियाँ हैं । उनके मध्य में २८ नक्षत्रों की ८ ही गलियाँ हैं। चन्द्र की प्रथम गली में—अभिजित, श्रवण, घनिष्ठा, शतभिषज् , पूर्वा भाद्रपदा, रेवती, उत्तरा भाद्रपदा, अश्विनी, भरिणी, स्वाति, पूर्वा फाल्गुनी एवं उत्तरा फाल्गुनी ये १२ नक्षत्र संचार करते हैं। तृतीय गली में पुनर्वसू एवं मघा संचार करते हैं। छठी गली में-कृत्तिका का गमन होता है आदि। विशेष-पुष्करार्ध द्वीप की बाह्य परिधि-१,४२,३०,२४९ योजन की है । इससे कुछ कम वहाँ के सूर्य के अन्तिम गली की परिधि होगी अत: इसमें ६० मुहूर्त का भाग देने से २,७०,५०४-१/२० योजन प्रमाण हुआ । वहां के सूर्य के एक मुहूर्त की गति का यह प्रमाण है। अर्थात् जब सूर्य जंबूद्वीप में प्रथम गली में है तब उसका १ मुहूर्त में गमन करने का प्रमाण २१०,०५९३३-१/३ मील होता है तथा पुष्करार्ध के अंतिम वलय की अंतिम गली में वहां के सूर्य का १ मुहूर्त में गमन -६४,८६,८३,२६६-२/३ मील के लगभग है ।
मानुषोत्तर पर्वत के इधर-उधर ४५ लक्ष योजन तक के क्षेत्र में ही मनुष्य रहते हैं। अर्थात्- जंबूद्वीप का विस्तार १ लक्ष योजन लवण समुद्र के दोनों ओर का विस्तार ४ ,, ,, धातकी खण्ड के दोनों ओर का विस्तार ८ ,, ,, कालोदधि समुद्र के दोनों ओर का विस्तार १६ ,, ,, पुष्करार्ध द्वीप के दोनों ओर का विस्तार १६ ,, ,, जंबूद्वीप को वेष्टित करके आगे-आगे द्वीप-समुद्र होने से दूसरी तरफ से भी लवण समुद्र आदि के प्रमाण को लेने से १±२±४±८±८±८±४±२•४५००००० योजन होते हैं। मानुषोत्तर पर्वत के बाहर मनुष्य नहीं जा सकते हैं । आगे-आगे असंख्यात द्वीप समुद्रों तक अर्थात् अंतिम स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च पाये जाते हैं। वहाँ तक असंख्यातों व्यन्तर देवों के आवास भी बने हुये हैं। सभी देवगण वहां गमनागमन कर सकते हैं। मध्यलोक १ राजू प्रमाण है । मेरु के मध्य भाग से लेकर स्वयंभूरमण समुद्र तक आधा राजू होता है अर्थात् आधे का आधा (१/४) राजू स्वयंभूरमण समुद्र की अभ्यन्तर वेदी तक होता है और १/४ राजू में स्वयंभूरमण द्वीप व सभी असंख्यात द्वीप समुद्र आ जाते हैं।
मानुषोत्तर पर्वत के बाहर जो असंख्यात द्वीप और समुद्र हैं उनमें न तो मनुष्य उत्पन्न ही होते हैं और न वहां जा ही सकते हैं। मानुषोत्तर पर्वत से परे (बाहर) आधा पुष्कर द्वीप ८ लाख योजन का है। इस पुष्करार्ध में १२६४ सूर्य एवं इतने ही (१२६४) चन्द्रमा हैं। अर्थात् मानुषोत्तर पर्वत से आगे ५०००० योजन की दूरी पर प्रथम वलय है। इस प्रथम वलय की सूची१ का विस्तार ४६००००० योजन है। उसकी परिधि १,४५,४६,४७७ योजन प्रमाण है । इस प्रकार वलय (अभ्यन्तर पुष्करार्ध से ७२ से दुगुने ) १४४ सूर्य एवं १४४ चन्द्रमा हैं। इस प्रथम वलय की परिधि में १४४ का भाग देने से सूर्य से सूर्य का अंतर प्राप्त होता है। यथा-१४५४६४७७´१४४ •१०१०१७-२६/१४४ योजन है। इसमें से सूर्यबिंब और चन्द्रबिंब के प्रमाण को कम कर देने पर उनका बिंब रहित अंतर इस प्रकार प्राप्त होता है-४८ / ६१ ² १४४ • ६९१२ / ८७८४, १०१०१७-२९/१४४-६६१२/८७८४•१०१०१६-३६४१/८७८४ योजन एक सूर्यबिंब से दूसरे सूर्य का अन्तर हैंं। इस प्रकार पुष्करार्ध में ८ वलय हैं। प्रथम वलय से १ लाख योजन जाकर दूसरा वलय है। इस दूसरे वलय में प्रथम वलय के १४४ से ४ सूर्य अधिक हैंं इसी प्रकार आगे के ६ वलयों में ४-४ सूर्य एवं ४-४ चन्द्र अधिक-अधिक होते गये हैं। जिस प्रकार प्रथम वलय से १ लाख योजन दूरी पर द्वितीय वलय है । उसी प्रकार १-१ लाख योजन दूरी पर आगे-आगे के वलय हैं। इस प्रकार क्रम से सूर्य , चन्द्रों की संख्या भी बढ़ती गई है। जिस प्रकार प्रथम वलय मानुषोत्तर पर्वत से ५० हजार योजन पर है उसी प्रकार अन्तिम वलय से पुष्करार्ध की अन्तिम वेदी ५० हजार योजन पर है बाकी मध्य के सभी वलय १-१ लाख योजन के अन्तर से हैं। प्रथम वलय में १४४, दूसरे में १४८, तीसरे में १५२, इस प्रकार ४-४ बढ़ते हुये अन्तिम वलय में १७२ सूर्य एवं १७२ चन्द्रमा हैं । इस प्रकार पुष्करार्ध के आठों वलयों के कुल मिलाकर १२६४ सूर्य एवं १२६४ चन्द्रमा हैं। ये गमन नहीं करते हैं, अपनी-अपनी जगह पर ही स्थित हैं इसलिये वहाँ दिन-रात का भेद नहीं दिखाई देता है।
पुष्करवर द्वीप को घेरे हुये पुष्करवर समुद्र ३२ लाख योजन का है इसमें प्रथम वलय पुष्करवर द्वीप की वेदी से ५०००० योजन आगे है। इस प्रथम वलय से १-१ लाख योजन की दूरी पर आगे-आगे के वलय हैं। अंतिम वलय से ५०००० योजन जाकर समुद्र की अंतिम तट वेदी है। इस पुष्करवर समुद्र में ३२ वलय हैं। प्रथम वलय में २५२८ सूर्य एवं इतने ही चन्द्रमा हैं अर्थात् बाह्म पुष्कर द्वीप के कुल मिलकर १२६४ सूर्य थे उसके दुगुने २५२८ होते हैं। पुन: प्रत्येक वलयों में ४-४ सूर्य-चन्द्र बढ़ते गये हैं । इस प्रकार बढ़ते-बढ़ते अन्तिम बत्तीसवें वलय में २६५२ सूर्य एवं २६५२ चन्द्रमा होते हैं। पुष्करवर समुद्र के ३२ वलयों के सभी सूर्यों का जोड़ ८२,८८० है एवं चन्द्र भी इतने ही हैं।
इसी प्रकार आगे के द्वीप में ८२,८८० से दूने सूर्य, चन्द्र प्रथम वलय में हैं और आगे के वलयों में ४-४ से बढ़ते जाते हैं। वलय भी ३२ से दूने ६४ हैं। पुन: इस द्वीप में ६४ वलयों के सूर्यों की जो संख्या है उससे दुगने अगले समुद्र के प्रथम वलय में होंगे । पुन: ४-४ की वृद्धि से बढ़ते हुये अन्तिम वलय तक जायेंगे । वलय भी पूर्व द्वीप से दुगुने ही होंगे । इस प्रकार यही क्रम आगे के असंख्यात द्वीप समुद्रों में सर्वत्र अन्तिम स्वयंभूरमण द्वीप व समुद्र तक जानना चाहिये । मानुषोत्तर पर्वत से आगे के (स्वयंभूरमण समुद्र तक) सभी ज्योतिर्वासी देवों के विमान अपने-अपने स्थानों पर ही स्थिर हैं, गमन नहीं करते हैं। इस प्रकार असंख्यात द्वीप-समुद्रों में असंख्यात द्वीप-समुद्रों की संख्या से भी अत्यधिक असंख्यातों सूर्य, चन्द्र हैं एवं उनके परिवार देव-ग्रह, नक्षत्र, तारागण आदि भी पूर्ववत् एक चन्द्र की परिवार संख्या के समान ही असंख्यातों हैं। इन सभी ज्याोतिर्वासी देवों के विमानों में प्रत्येक में १-१ जिनमंदिर हैं। उन असंख्यात जिनमंदिर एवं उनमें स्थित सभी जिनप्रतिमाओं को मेरा मन, वचन, काय से नमस्कार हो।
देवगति के ४ भेद हैं-भवनवासी, व्यन्तरवासी, ज्योतिर्वासी एवं वैमानिक । सम्यग्दृष्टि जीव वैमानिक देवों में ही उत्पन्न होते हैं। भवनत्रिक (भावन, व्यन्तर, ज्योतिष्क देव) में उत्पन्न नहीं होते हैं क्योंकि ये जिनमत के विपरीत धर्म को पालने वाले हैं, उन्मार्गचारी हैं, निदानपूर्वक मरने वाले हैं, अग्निपात, झंझावात आदि से मरने वाले हैं, अकामनिर्जरा करने वाले हैं, पंचाग्नि आदि कुतप करने वाले हैं या सदोष चारित्र पालने वाले हैं एवं सम्यग्दर्शन से रहित ऐसे जीव इन ज्योतिष्क आदि देवों में उत्पन्न होते हैं। ये देव भी भगवान के पंचकल्याणक आदि विशेष उत्सवों के देखने से या अन्य देवों की विशेष ऋ़द्धि (विभूति) आदि को देखने से या जिनबिंब दर्शन आदि कारणों से सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर सकते हैं तथा अकृत्रिम चैत्यालयों की पूजा एवं भगवान के पंचकल्याणक आदि में आकर महान पुण्य का संचय भी कर सकते हैं। अनेक प्रकार की अणिमा, महिमा आदि ऋद्धियों से युक्त इच्छानुसार अनेक भोगों का अनुभव करते हुये यत्र-तत्र क्रीड़ा आदि के लिये परिभ्रमण करते रहते हैं । ये देव तीर्थंकर भगवंतों के पंच कल्याणक उत्सव में या क्रीडा आदि के लिये अपने मूल शरीर से कहीं भी नहीं जाते हैं । विक्रिया के द्वारा दूसरा शरीर बनाकर ही सर्वत्र जाते आते हैं । यदि कदाचित् वहां पर सम्यक्त्व को नहीं प्राप्त कर पाते हैं तो मिथ्यात्व के निमित्त से मरण के ६ महीने पहले से ही अत्यंत दु:खी होने से आर्तध्यानपूर्वक मरण करके मनुष्यगति में या पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में जन्म लेते हैं। यदि अत्यधिक संक्लेश परिणाम से मरते हैं तो एकेन्द्रिय-पृथ्वी, जल, वनस्पतिकायिक आदि में भी जन्म ले लेते हैं ।