अर्थात् जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष इन नौ पदार्थों के सिवा अन्य कुछ भी नहीं है, क्योंकि इनके सिवा अन्य कोई पदार्थ उपलब्ध नहीं होता। यही क्रम समयसार ग्रन्थ में है—(१५ ज.)
अर्थ — भूतार्थ से जाने हुए जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ये नवतत्त्व ही सम्यक्त्व हैं। समयसार ग्रन्थ में इसी क्रम से अधिकार दिये गये हैं। यही क्रम गोम्मटसार जीवकांड में गाथा ६२१ में दिया गया है। देखिए—
अर्थ — जीव, अजीव, उनके पुण्य और पाप दो तथा आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ये नौ पदार्थ होते हैं। पदार्थ शब्द प्रत्येक के साथ लगाना चाहिए, जैसे जीव पदार्थ, अजीवपदार्थ इत्यादि।।६२१।। पंचास्तिकाय ग्रंथ में भी ९ पदार्थ का क्रम इसी प्रकार है-
जीवा-जीवा भावा पुण्णं पावं च आसंव तेसिं।
संवर-णिज्जर-बंधो मोक्खो य हवंति ते अट्ठापंचास्तिकाय, पृ. २८०-२८१।।।१०८।।
गाथार्थ —जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष इस प्रकार नव पदार्थों के नाम हैं। भावसंग्रह में आचार्य श्री देवसेन जी ने भी ९ पदार्थ का यही क्रम रखा है—
आगे श्री उमास्वामी आचार्य ने तत्त्वार्थसूत्र में ऐसा क्रम रखा है। यथा—
जीवाजीवास्रवबंधसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम्।।४।।
सूत्रार्थ —जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं। किन्हीं विद्वान ने पाक्षिक प्रतिक्रमण में श्री गौतमस्वामी की रचना में पाठ बदलकर ऐसा कर दिया है—
अर्थात् आस्रव के बाद तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार बंध को ले लिया है। किन्तु ऐसा करना उचित नहीं है क्योंकि प्रतिक्रमण की टीका में व समयसार आदि में मूलपाठ का ही क्रम रखा है। क्या कोई समयसार में अधिकारों के भी क्रम में परिवर्तन कर सकते हैं ? नहीं कर सकते हैं। समयसार में-श्री अमृतचंद्रसूरि व श्री जयसेनाचार्य ने भी इसी क्रम से अधिकारों की टीका की है, पहले जीवाजीवाधिकार, पुण्यपापाधिकार पुनः आस्रव, पुनः संवर, निर्जरा पुनः बंध और मोक्ष अधिकार लिये हैं। तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ के अनुसार ही उनके टीकाकार आचार्य श्री पूज्यपादस्वामी, आ. श्री अकलंकदेव, आचार्य श्री विद्यानंद महोदय, श्री श्रुतसागरसूरि आदि ने उसी क्रम से टीका, भाष्य आदि लिखे हैं। द्रव्यसंग्रह में भी यही क्रम है उसमें पुण्य-पाप को अंत में ले लिया है। कहने का अभिप्राय यहाँ यही है कि इन किन्हीं की भी रचना में पाठ बदलने का अतिसाहस हमें व आपको नहीं करना चाहिये। नव पदार्थ के क्रम में अन्तर श्री गौतमस्वामी आदि कृत श्री उमास्वामी आचार्यकृत श्री नेमिचंद्र आचार्य कृत (पाक्षिक प्रतिक्रमण, समयसार, (तत्त्वार्थसूत्र एवं टीकाग्रंथ) (द्रव्यसंग्रह) पंचास्तिकाय, मूलाचार) १. जीव १. जीव १. जीव २. अजीव २. अजीव २. अजीव ३. पुण्य ३. आस्रव ३. आस्रव ४. पाप ४. बंध ४. बंध ५. आस्रव ५. संवर ५. संवर ६. संवर ६. निर्जरा ६. निर्जरा ७. निर्जरा ७. मोक्ष ७. मोक्ष ८. बंध ८. ० ८. पुण्य ९. मोक्ष ९. ० ९. पाप प्रारम्भ के नव को तत्त्व व पदार्थ समयसार टीका में दोनों नाम आये हैं तत्त्वार्थसूत्र में टीकाकारों ने आस्रव में ही पुण्य-पाप को गर्भित किया है एवं द्रव्यसंग्रह में गाथा ३७ में मोक्षतत्त्व का वर्णन करके पुनः गाथा ३८ में पुण्य-पाप को लिया है। अन्यत्र ग्रन्थों में श्री उमास्वामी के क्रमानुसार सात को तत्त्व कहकर पुण्य-पाप मिलाने से इन्हें नव पदार्थ संज्ञा दी है।